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लीक से जुदा फिल्मों ने जगाया रूढ़ियां तोड़ने को

04:00 AM Dec 07, 2024 IST
हिंदी फिल्म गाइड के एक सीन में अभिनेता देवानंद के साथ मौजूद अभिनेत्री वहीदा रहमान। चित्र : लेखक

हेमंत पाल
फिल्मों के कथानक किस प्रेरणा से गढ़े जाते हैं, यदि इस सवाल का जवाब खोजा जाए तो हर जवाब में जीवन के अनुभव, प्रेम कथाएं, सामाजिक परम्पराएं, अनोखी घटनाएं, सामाजिक रूढ़ियां और पारिवारिक रिश्ते ही शामिल होंगे। यही पांच-छह विषय सामने आएंगे। लेकिन, जिस विषय पर सबसे कम कथानक रचे गए, वो है सामाजिक रूढ़ियां या यूं कहिए कि मान्यताओं को खंडित करने वाली फ़िल्में। यानी ऐसे रीति-रिवाज जिन्हें बरसों से समाज में ढोया जा रहा है। कुछ लोग उन्हें तोड़ना चाहते हैं, पर आगे बढ़कर कोई साहस नहीं करता। इन विषयों पर फिल्मी कथानक बने, लेकिन उनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक है। कारण, फिल्मकार ऐसे मामलों में उलझना नहीं चाहते। उन्हें पता है कि फिल्म का विरोध हुआ, तो खामियाजा उन्हें ही भुगतना पड़ता है।
गुलामी के दौर में बनी फ्रांज़ ऑस्टेन की फिल्म ‘अछूत कन्या’ (1936) का निष्कर्ष था कि फिल्मों के जरिये सुधारवाद की बात कैसे की जाए। ज्वलंत मुद्दों पर आधारित कहानियों को तब सामने लाना आसान नहीं था। वह भी ऐसे समय में, जब फ़िल्मों के विषय समाज और राजनीति के हिसाब से तय होते हों। फिल्म में एक ब्राह्मण लड़के अशोक कुमार और एक अछूत कन्या देविका रानी के बीच प्रेम कहानी को दिखाकर, ऐसे समाज में जीने की बात की गई थी, जो वर्गों में बंटा हो। लेकिन, बाद में किसी ने ऐसा साहस नहीं किया। आजादी के बाद 1954 में पहली ऐसी फिल्म ‘बूट पॉलिश’ बनी, जिसमें मानवीय मूल्यों को उजागर करने की कोशिश की गई थी। यह फिल्म दो बच्चों भोला और बेलू की कहानी थी। इस फ़िल्म में सहजता से बताया गया कि कोई भी काम छोटा हो या बड़ा, वह आत्मनिर्भर जरूर बनाता है। भोला और बेलू भी मेहनत करके कमाई का रास्ता नहीं छोड़ते। एक दिन अपनी कमाई से वे बूट पॉलिश और ब्रश खरीदते हैं और चिल्ला कर कहते हैं- ‘आज से हमारा हिंदुस्तान आजाद होता है।’ राज कपूर हमेशा प्रेम आधारित फिल्में बनाते रहे थे लेकिन ‘बूट पॉलिश’ इस थीम से उलट थी।
खूंखार अपराधियों के सुधार की कोशिश
इसके कुछ साल बाद 1957 में वी शांताराम की फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ आई, जो अपने अनोखे विषय और सभ्य समाज में रहन-सहन के कथित आदर्शों के उलट कहानी थी। तब कैदियों को जेल में पीड़ितों की तरह रखा जाता। ज़िंदगी में किए अपराधों की वजह से उनकी जवानी खो जाती थी। इस फिल्म ने इस धारणा को बदला। फ़िल्म का विषय था खूंखार अपराधियों को सुधारने के लिए अहिंसक तरीके अपनाना। यह कहानी जेल वार्डन के इर्द-गिर्द घूमती है, जो छह कैदियों को अच्छा इंसान बनने की राह पर लाता है। इसी साल आई ‘शारदा’ (1957) एलवी प्रसाद की फिल्म थी। इसकी कहानी भी अन्य फिल्मों से अलग थी। जब एक प्रेमी युगल एक-दूसरे से जुदा हो जाता है। नायक को एक युवती से प्यार हो जाता है, लेकिन वह उससे शादी नहीं कर पाता। उसके पिता की उसी महिला से शादी हो जाती है। इसके बाद, एक सौतेली मां और बेटे के बीच का रिश्ता देखने को मिलता है, जिसके मायने ही कुछ और होते हैं।
सामाजिक जड़ता के खिलाफ विद्रोह
इसके अलावा 1963 में आई बिमल रॉय की फिल्म ‘बंदिनी’ में पहली बार मुख्य कलाकारों को बिल्कुल अलग तरीके से दिखाया गया। मुख्य किरदार कल्याणी के व्यक्तित्व के कई पहलू थे। प्रेमी को पाने और अधूरे प्यार के बीच फंसने से उपजी जलन की वजह से वह खून तक कर देती है। उसे जेल हो जाती है। सजा काटने के बाद, वह उसी आदमी के पास लौटकर उसी की हो जाती है। अलग तरह की फिल्मों में 1972 में आई कमाल अमरोही की ‘पाकीजा’ को भी गिना जाता है। फिल्म का कथानक मुगल दौर की तवायफ़ों को समाज में स्वीकार करने की अड़चनों को उजागर करना था। मीना कुमारी की इस फिल्म ने कई सवाल भी खड़े किए थे। फिल्म को दमदार और तीखे संवादों के लिए जाना जाता है। वैश्या विवाह पर बनी फिल्मों में देव आनंद और वहीदा रहमान की कालजयी फिल्म ‘गाइड’ (1965) को भी गिना जाता है जिसमें वैश्या विवाह का समर्थन व लिवइन रिलेशन दिखाया था।
विवाह के बिना गर्भवती होने की पीड़ा
रूढ़ियों को खंडित करने वाली एक फिल्म थी 1975 में आई ‘जूली।’ फिल्म में नए ज़माने की संवेदनशील लड़की बिना शादी के गर्भवती हो जाती है तो उसे कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। धर्म और शादी से जुड़ी सदियों पुरानी रुकावटों के आधार पर होने वाले घटनाक्रम को इसमें दिखाया था। बिन ब्याही मां का संघर्ष क्या होता है, यही कथानक था।
विधवा विवाह की पहल
1982 में आई राज कपूर की फिल्म ‘प्रेम रोग’ में ग्रामीण इलाकों में रहने वाली विधवाओं की जिंदगी में आने वाली मुश्किलों को करीब से दिखाया था। फिल्म में राज कपूर ने प्रेमियों के माता-पिता को अपनी ‘शान’ के लिए बेटियों और बेटों की जान दांव पर लगाने के खिलाफ चेतावनी दी थी। नायक देवधर (ऋषि कपूर) शहर से गांव आता है। उसकी बचपन की दोस्त मनोरमा (पद्मिनी कोल्हापुरी) अमीर परिवार की होती है। शादी के बाद उसके पति की मौत हो जाती है। मनोरमा ससुराल में बलात्कार का शिकार होती है। वह परिवार पुनर्विवाह के नामुमकिन होने का हवाला देकर, उसके साथ मारपीट करता है। यश चोपड़ा की फिल्म ‘लम्हे’ (1991) ऐसी ही फिल्म थी, जिसके कथानक में प्रेमी-प्रेमिका, लड़का-लड़की और प्यार-मोहब्बत की परिभाषा बदल दी थी। हीरोइन श्रीदेवी को को अपने पिता की उम्र के विरेन (अनिल कपूर) से प्यार हो जाता है।
‘फ़िलहाल’ और ‘मातृभूमि’ का इशारा
लीक से हटकर बनी फिल्मों में मेघना गुलजार की ‘फ़िलहाल’ को भी गिना जा रखा सकता है। आज बच्चे को जन्म देने के लिए सरोगेसी आम तरीका है। लेकिन, साल 2002 में जब यह फिल्म रिलीज हुई थी, तब यह बड़ी बात हुआ करती थी। ये कहानी एक ऐसी औरत की है, जो प्राकृतिक रूप से मां नहीं बन सकती। इसलिए वह अपने दोस्त को अपने लिए सरोगेट करने के लिए मनाती है। तब्बू, सुष्मिता सेन, पलाश सेन और संजय सूरी की यह फिल्म इमोशनल अनुभव रहा। इसके साल भर बाद 2003 में आई मनीष झा के निर्देशन में बनी ‘मातृभूमि’ ऐसे समाज की कल्पना थी, जहां औरतों की संख्या कम ही बची थी, शादी के लिए लड़कियां नहीं मिलती। इस कारण होने वाले व्यसन फिल्म में दिखाए गए। भ्रूण हत्या की वजह से पैदा हुई ये स्थिति थी। अब ऐसी फ़िल्में बनने का दौर करीब-करीब ख़त्म हो गया। कारण ,अब फिल्म महज मनोरंजन का साधन बनकर रह गईं, अब कोई फिल्मों से ऐसी उम्मीद नहीं करता कि रूढ़ियां खंडित हों।

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