लिंगभेद मुक्त कानून से ही न्याय संभव
अतुल सुभाष की मृत्यु के बाद मीडिया के एक बड़े तबके में यह मांग भी उठी कि कानूनों को जेंडर न्यूट्रल या लिंग भेद से मुक्त होना चाहिए। जो भी सताया गया हो, स्त्री या पुरुष, उसे कानून न्याय दे और अपराधी को सजा। अधिकांश देशों में जेंडर न्यूट्रल कानून ही हैं। वहां पुरुष को आरोप लगते ही अपराधी घोषित नहीं कर दिया जाता है। जबकि अपने यहां पुरुष का नाम, पता, फोटो, सब कुछ सार्वजनिक कर दिया जाता है।
पिछले दिनों आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बंगलुरू में कार्यरत चौंतीस वर्षीय इंजीनियर, अतुल सुभाष की आत्महत्या काफी चर्चा में रही है। इस युवक ने आत्महत्या से पहले, नब्बे मिनट का एक वीडियो बनाकर डाला, जिसमें उसने बताया कि वह अपनी पत्नी और उसके घर वालों के व्यवहार से कितना परेशान है। उसे साल में मात्र तेईस छुट्टियां मिलती हैं और दहेज सम्बंधी, घरेलू हिंसा से जुड़े केस के सिलसिले में डेढ़ सौ यात्राएं करनी पड़ी हैं। उसने यह भी बताया कि वह अपने बच्चे के लिए चालीस हजार रुपये महीना देता है। और बच्चे के लिए पत्नी एक लाख रुपये मांग रही है, लेकिन बच्चे की शक्ल तक उसे याद नहीं, क्योंकि पत्नी कभी उससे मिलने नहीं देती। यह भी बताया कि मामले को रफा-दफा करने के लिए पत्नी तीन करोड़ रुपए मांग रही है।
अतुल का कहना था कि वह अब बिल्कुल रुपये नहीं देना चाहता क्योंकि जो रुपये वह दे रहा है, उसके ही खिलाफ इस्तेमाल हो रहे हैं। फिर वह टैक्स भी क्यों दे, क्योंकि सरकार उन्हीं टैक्स के पैसों से पुरुषों को परेशान करने वाले कानून बना रही है। अतुल ने वे चैट भी लगाए जिसमें उसकी सास कह रही है कि तेरे सुसाइड की खबर नहीं आई। अतुल कह रहा है कि आप तो पार्टी करोगे। इसके उत्तर में सास कह रही है कि पैसा तेरा बाप देगा। तेरा घर भी बिक जाएगा क्योंकि उसमें बहू का हिस्सा भी होता है।
यह बात दीगर है कि यह युवक कितना परेशान रहा होगा कि उसे जीने के मुकाबले मृत्यु को चुनना पड़ा। कोई यों ही मौत को गले नहीं लगाता। ऐसी खबरों की भी कोई कमी नहीं, जिनमें महिला कानूनों का दुरुपयोग भारी पैमाने पर हो रहा है। इनमें बदले की भावना, जमीन-जायदाद के मामले, पति के घर वालों के साथ न रहना, विवाहेत्तर संबंध आदि शामिल हैं। अदालतें बार-बार इस ओर आगाह भी कर रही हैं। लेकिन कानूनों का दुरुपयोग करने वाली महिलाओं को शायद ही कोई सजा मिलती है।
दरअसल, कानून बनाने वालों के मन में अभी भी स्त्रियों की हाय बेचारी वाली छवि है। मान लिया गया है कि वे कभी झूठ बोल ही नहीं सकतीं। इसीलिए कानून सौ फीसदी महिलाओं के पक्ष में झुके हुए हैं। वहां अक्सर पुरुषों की कोई सुनवाई नहीं है। इसीलिए अतुल सुभाष की मृत्यु के बाद मीडिया के एक बड़े तबके में यह मांग भी उठी कि कानूनों को जेंडर न्यूट्रल या लिंग भेद से मुक्त होना चाहिए। जो भी सताया गया हो, स्त्री या पुरुष, उसे कानून न्याय दे और अपराधी को सजा।
अधिकांश देशों में जेंडर न्यूट्रल कानून ही हैं। वहां पुरुष को आरोप लगते ही अपराधी घोषित नहीं कर दिया जाता है। जबकि अपने यहां पुरुष का नाम, पता, फोटो, सब कुछ सार्वजनिक कर दिया जाता है। बहुत बार पुरुषों की नौकरी चली जाती है, क्योंकि कोई भी कम्पनी किसी विवादास्पद व्यक्ति को अपने यहां रखना नहीं चाहती। सामाजिक बहिष्कार भी झेलना पड़ता है। सालों साल अदालत के चक्कर लगाने पड़ते हैं। आरोप मुक्त हो भी जाए, तो भी खोई हुई प्रतिष्ठा वापस नहीं मिलती। अतुल की आत्महत्या के बाद सोशल मीडिया पर अभियान भी चलाया गया कि अब निकिता जैसी लड़कियों से विवाह नहीं करना है, गांव से लड़की खोजकर लानी चाहिए। इन लोगों को शायद नहीं पता कि गांव में स्त्री कानूनों का कितना इस्तेमाल होता है। बहुत बार दुरुपयोग भी।
हाल ही में अतुल की पत्नी निकिता का बयान भी आया था कि उसकी मां हर रोज उसे पांच-छह घंटे अतुल के खिलाफ भड़काती थी। उसने यह भी कहा था कि अतुल उसे मारता-पीटता था।
इन दिनों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि जीवन से एडजेस्टमेंट नाम की चीज गायब हो चली है । लगता है कि लड़ाई-झगड़े, एक-दूसरे के अपमान से ही चीजें सुलझ सकती हैं। जबकि बड़े से बड़े विश्व युद्ध के मसले भी अंततः समझौते से ही सुलझते हैं। घर वाले भी युवाओं को समझाते नहीं, कई बार आग में घी डालने का काम करते हैं जैसा कि निकिता के बयान से जाहिर है। क्या पता कि अगर परिवार वालों द्वारा दोनों को समझाया गया होता, तो ऐसी स्थितियां न होतीं। इसके अलावा ऐसी बातें भी होने लगीं कि सभी स्त्रियां ऐसा करती हैं। वे पुरुषों को फंसाती हैं, जबकि यह भी सच नहीं है।
अपने देश में न जाने कितनी स्त्रियां दहेज के कारण घर से निकाली जाती रहीं हैं, सताई गई हैं, या जलाकर मार डाली गई हैं। अभी वे दिन स्मृतियों में ताजा हैं, जब अक्सर स्टोव बहू के ऊपर फट जाता था और वह इस कदर जल जाती थी कि प्राण नहीं बचते थे। मामूली बातों पर स्त्रियों को घर से निकाला जाना, उनके साथ मारपीट, दुष्कर्म भी हमारे समाज की कड़वी सच्चाइयां हैं। पति के मर जाने के बाद पत्नी को सती भी यही समाज करता था। वर्ष 1987 में जब राजस्थान के दिवराला में रूपकंवर सती हो गई थी, तो यह लेखिका भी वहां गई थी। उन दिनों देश भर में सती पर बहस चली थी। तब वहां कई बड़े नेताओं ने सती के समर्थन में बयान दिए थे। जनता दल के एक वरिष्ठ नेता ने इस लेखिका को तीन चुन्नियां दिखाई थीं। जो स्त्रियों को विवाह के अवसर पर दी जाती हैं। इनमें एक चुन्नी सती होने के लिए होती है। जबकि हमने मान रखा था कि सती को तो समाज ने अरसा पहले सम्पूर्ण रूप से नकार दिया।
हाल ही में यह लेखिका महान रचनाकार महादेवी वर्मा के साहित्य पर काम कर रही थी। स्त्रियों की आफतों से जुड़े उनके संस्मरण चाहे बिबिया, मुन्नू की माई, गुंगिया, लछमा, बिंदो ऐसे हैं कि रौंगटे खड़े हो जाते हैं। एक उन्नीस साल की विधवा स्त्री भाभी के बारे में पढ़ते हुए, उसके दुखों से दो-चार होते हुए, उसके प्रति हिंसा को पढ़कर, मन घृणा से भर उठता है।
यही बात आज की स्त्रियों के संदर्भ में भी है। ऐसा नहीं है कि उनके जीवन में कोई दुःख ही नहीं। उनके प्रति कोई अपराध ही नहीं हो रहा। वे सबकी सब सिर्फ पुरुषों को सता रही हैं।
न ही ऐसा है कि देश की हर स्त्री के हाथ में पैसा है या नौकरी है या सिर पर छत है। संयुक्त राष्ट्र की 2024 की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि साठ प्रतिशत महिलाओं की हत्या, उनके साथी या परिवार के किसी सदस्य ने की थी। इसी तरह एनसीआरबी के आंकड़े कहते हैं कि 2022 में स्त्रियों की हत्या की छठी बड़ी वजह दहेज था। नेशनल हैल्थ सर्वे पांच में बताया गया था कि 31.9 प्रतिशत महिलाओं ने अपने प्रति की गई हिंसा की बात की थी। इसी सर्वे के अनुसार बड़ी संख्या में महिलाएं हिंसा की शिकार होती हैं, मगर वे किसी न किसी कारण से इसकी सूचना नहीं दे पातीं। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि वे तमाम जांच एजेंसियों तक नहीं पहुंच पातीं।
इसलिए महिलाओं की भी सुनिए। समाज के सामने अतुल की पत्नी निकिता का पक्ष भी आना चाहिए। स्त्री को भी अारोपी बनते ही अपराधी मत बनाइए। कानून को तय करने दीजिए।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।