राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी से संकट बरकरार
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, गंगा और यमुना जैसी नदियां कई दशकों से प्रदूषित हैं। परिणामस्वरूप, जलीय जीव संकट में हैं और मानव स्वास्थ्य भी गंभीर खतरे में है। अनियोजित शहरीकरण, बढ़ती आबादी और कारखानों से निकलने वाला गंदा पानी नदियों के अस्तित्व को खतरे में डाल रहा है।
ज्ञानेन्द्र रावत
बीते दिनों महाराष्ट्र नव निर्माण सेना (मनसे) प्रमुख राज ठाकरे ने गंगा की स्वच्छता पर सवाल उठाते हुए कहा कि आज देश की कोई नदी ऐसी नहीं है जो स्वच्छ हो और प्रदूषण मुक्त हो। विडम्बना यह है कि इसके बावजूद हम उन्हें स्वच्छ रखने में असफल रहे हैं।
गौरतलब है कि गंगा की सफाई का जिम्मा केन्द्र सरकार के सात मंत्रालयों पर है, लेकिन हकीकत यह है कि गंगा अपने मायके से ही प्रदूषित हो रही है। उत्तराखंड सरकार की रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि गंगा कई स्थानों पर जल शोधन संयंत्र से छोड़े गए पानी से ही प्रदूषित है। एनजीटी को भी इस बारे में जानकारी है। यह स्थिति केवल गंगा की नहीं, बल्कि देश की दूसरी नदियों की भी है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, गंगा और यमुना जैसी नदियां कई दशकों से प्रदूषित हैं। परिणामस्वरूप, जलीय जीव संकट में हैं और मानव स्वास्थ्य भी गंभीर खतरे में है। अनियोजित शहरीकरण, बढ़ती आबादी और कारखानों से निकलने वाला गंदा पानी नदियों के अस्तित्व को खतरे में डाल रहा है, साथ ही यह भूमिगत जल को भी प्रदूषित कर रहा है। विज्ञान और पर्यावरण केन्द्र की रिपोर्ट के अनुसार, घरों, फैक्टरियों और संस्थानों से निकलने वाला 72 फीसदी गंदा पानी सीधे नदियों और झीलों में जा रहा है, जिससे पेयजल और अन्य उपयोग के लिए पानी का संकट बढ़ता जा रहा है।
एनजीटी की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में गंगा और उसकी सहायक नदियों में रोजाना 1100 मिलियन लीटर प्रति दिन (एमएलडी) सीवेज गिर रहा है। राज्य में गंगा किनारे बसे जिलों के 225 नाले सीधे नदियों में मिल रहे हैं, जबकि केवल 101 नाले एसटीपी (सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट) से जुड़े हैं।
देश की राजधानी दिल्ली की जीवन रेखा यमुना हजारों करोड़ रुपये खर्च होने के बाद भी गंदे नाले से भी बदतर हालत में है। उसका पानी न केवल लोगों के स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है, बल्कि वह पर्यावरण के लिए भी हानिकारक है। मौजूदा स्थिति यह है कि नई भाजपा सरकार नये संकल्प और यमुना सफाई के नये एजेंडे के साथ यमुना के पुनरुद्धार और कायाकल्प में जुटी है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी दिल्ली के 16 औद्योगिक क्षेत्रों में एसटीपी की कमी पर हैरानी जताई है और कहा है कि यमुना में बिना ट्रीटमेंट के अपशिष्ट पदार्थ खुलेआम गिराए जा रहे हैं। हकीकत यह है कि यहां एक-तिहाई क्षमता से एसटीपी काम कर रहे हैं और 11 क्लस्टरों के लिए प्लांट ही नहीं हैं। इसके लिए एसटीपी की क्षमता तीन गुना बढ़ानी होगी और निगरानी तंत्र को चौकस करना होगा, तभी कोई बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।
गौरतलब है कि दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति यमुना में प्रदूषण के लिए 60 फीसदी जिम्मेदार नजफगढ़ नाले को मानती है। असलियत यह है कि यमुना इतनी प्रदूषित हो चुकी है कि दिल्ली के अंदर और सीमा पर भी उसका जल नहाने लायक नहीं है।
आंकड़ों के अनुसार, एक समय देश में करीब 15,000 छोटी-बड़ी नदियां थीं, जिनमें से 30 फीसदी से ज्यादा आज सूख चुकी हैं। 4500 से ज्यादा छोटी या मंझोली नदियां केवल बारिश के दिनों में बहती हैं, और बाकी आठ-नौ महीनों में वे मृतप्राय रहती हैं।
देश की राजधानी दिल्ली की जीवनदायिनी यमुना में बरसात के दिनों में भले जलस्तर बढ़ा रहता है, लेकिन बाकी आठ-नौ महीनों में इसका जलस्तर काफी कम हो जाता है। गर्मी के दिनों में स्थिति और भयावह हो जाती है। यही हालत देश के अन्य राज्यों की छोटी-बड़ी नदियों की है, जहां की नदियों के साथ-साथ झीलों का जलस्तर भी कम हो गया है। उत्तराखंड में पर्यटन के लिए विख्यात नैनीताल की झीलें इसकी जीती-जागती मिसाल हैं, जिनका जलस्तर कम हो रहा है। मध्य भारत की गंगा कहलाने वाली पौराणिक नदी बेतवा की बात करें तो उसके उद्गम स्थल ही सिमट गए हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने 2024 में बेतवा के उद्गम स्थल में जल गंगा संवर्धन योजना शुरू करने की घोषणा की थी, लेकिन उसका अभी तक क्रियान्वयन नहीं हुआ है।
सवाल यह है कि देश की नदियां साफ क्यों नहीं हो पा रही हैं। इस मामले में जल शक्ति मंत्रालय ने भी स्वीकार किया है कि इसमें सीवेज सिस्टम की खामी अहम कारण है। असलियत में नदियों के किनारे बसे शहरों के सीवेज सिस्टम में सुधार में नाकामी के कारण सीवेज का गंदा पानी सीधे नदियों में गिरकर उन्हें विषाक्त कर रहा है। इसके लिए उन शहरों के नगर निकाय पूरी तरह जिम्मेदार हैं। हालात यह हैं कि कहीं शोधन संयंत्र देखभाल के अभाव में खराब पड़े हैं, कहीं उनकी शोधन क्षमता उतनी नहीं है जितनी होनी चाहिए, कहीं जरूरत के मुताबिक उनकी तादाद बहुत कम है, और कहीं बिजली आपूर्ति समय पर न होने के कारण वे पूरे समय काम नहीं कर पाते। कहीं-कहीं शोधन संयंत्रों से गंदे नाले जोड़े ही नहीं गए हैं, नतीजतन वे सीधे नदियों में गिर रहे हैं।
हकीकत में सरकारें और नगर निकाय औद्योगिक रसायनयुक्त अपशिष्ट सीधे नालों या नदियों में गिरने से रोकने में नाकाम हैं। दुखद यह है कि इसके पीछे राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव मुख्य कारण है। इसमें दो राय नहीं कि यदि नदियों को स्वच्छ और निर्मल बनाना है तो लॉकडाउन जैसी सख्ती बरतनी होगी, तभी कुछ बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।
लेखक पर्यावरणविद हैं।