रक्षक-भक्षक
हाल के दिनों में देश के विभिन्न भागों में गौ रक्षा के नाम पर हिंसक व्यवहार की कई घटनाएं सामने आई, जिसमें कई लोगों को जान भी गंवानी पड़ी है। निस्संदेह, गौ तस्करी करने वालों को दंडित किया जाना चाहिए, लेकिन कानून के तहत गौधन की खरीददारी करने वालों को यदि हिंसक भीड़ का शिकार होना पड़े तो यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायेगा। ऐसे मामलों में पुलिस की सतर्कता और कानून की सख्ती ही किसी निरंकुश व्यवहार पर रोक लगा सकती है। ऐसे ही हरियाणा के नूंह जिले के रकबर खान की गौ तस्करी के संदेह में भीड़ द्वारा हत्या करने की घटना सामने आई थी। जुलाई 2018 में जब रकबर अपने एक साथी के साथ गौधन खरीदकर अलवर से हरियाणा लौट रहा था तो स्थानीय लोगों ने उन्हें पीटा था। इस घटना में रकबर ने पिटाई के बाद दम तोड़ दिया था। इस घटनाक्रम के पांच साल बाद अलवर के अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश ने चार गौरक्षकों को सात साल की सजा सुनाई है। निस्संदेह, सजा ही ऐसे मामलों में कानून हाथ में लेने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाएगी। अलवर जनपद में 2017 में भी इसी तरह की घटना सामने आई थी जिसमें डेयरी किसान पहलू खान तब हिंसा का शिकार बना जब वह साप्ताहिक बाजार से मवेशियों को नूंह में अपने गांव ले जा रहा था। लेकिन पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में छह आरोपियों को सत्र अदालत ने बरी कर दिया था। आरोपियों को पुलिस जांच के आधार पर संदेह का लाभ मिला था। अदालत ने भी जांच में गंभीर खामियों की ओर इशारा किया था।
उल्लेखनीय है कि रकबर खान के प्रकरण में आरोपियों को सजा सुनाने का मामला तब सामने आया है जबकि राजस्थान पुलिस ने बहुचर्चित जुनैद व नासिर हत्या मामले में मानू मानेसर समेत 21 लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की है। दरअसल, यह जांच भिवानी जिले में इन दोनों के शव पाये जाने के बाद शुरू हुई थी। तब भी आशंका जतायी जा रही थी कि पुलिस की चूक के बाद इस जघन्य अपराध को अंजाम दिया गया था। वहीं इस बात में संदेह नहीं कि कथित राजनीतिक संरक्षण और पुलिस की ढिलाई के चलते ही गौरक्षक कानून अपने हाथ में लेने लग जाते हैं। इसमें दो राय नहीं हो सकती है कि गौधन की रक्षा की जानी चाहिए। लेकिन कानून हाथ में लेने का अधिकार किसी को नहीं है। देश में दोषियों को सजा देने के लिये एक पूरा कानूनी सिस्टम बना हुआ है। आशंका जतायी जाती रही है कि गौरक्षा के नाम पर असामाजिक तत्व डेयरी किसानों व पशु व्यापारियों के खिलाफ हिंसा करते हैं। निस्संदेह, तस्करों से निबटने का अधिकार सिर्फ पुलिस को है न कि हिंसक भीड़ को। वहीं हिंसा का सहारा लेने वाले समूहों पर शिकंजा कसने की जिम्मेदारी कानून लागू करने वालों की है। इसमें दो राय नहीं कि गौरक्षकों के नाम पर सक्रिय असामाजिक तत्वों तथा उन्हें संरक्षण देने वालों पर शिकंजा कसना जरूरी है।