मौत के बोरवेल
ऐसे समय में जब देश-दुनिया नये साल के जश्न में डूबने जा रही है मध्यप्रदेश व राजस्थान में खुले बोरवेल में गिरने से हुई दो बच्चों की मौत विचलित करती है। राजस्थान के दोसा जिले और मध्यप्रदेश के गुना की घटनाएं पहली बार नहीं हुई हैं। गाहे-बगाहे ऐसी खबरें पूरे देश से आती हैं। यह सोचकर ही मन सिहर उठता है कि कोई बच्चा कैसे एक अंधी सुरंग में भूखे-प्यासे, अपर्याप्त ऑक्सीजन व बिना हिले-डुले कुछ दिन मौत की प्रतीक्षा करता होगा। भय व घुप्प अंधेरे में बच्चा किन मानसिक व शारीरिक यातनाओं से गुजरता होगा, सोचकर भी डर लगता है। लेकिन फिर भी हमारा संवेदनहीन समाज व लापरवाह तंत्र इस त्रासदी को गंभीरता से नहीं लेता। जिस बोरवेल को खुदवाने में लाखों रुपये खर्च होते हैं, उसका मुंह बंद करने के लिये चंद रुपये खर्च करने में लोग आपराधिक लापरवाही दिखाते हैं। राजस्थान के कोटपुतली में बोरवेल में गिरी तीन साल की बच्ची को एक सप्ताह बाद भी न निकाला जाना तंत्र की विफलता को दर्शाता है। निस्संदेह, यह अभियान जटिल बताया जाता है और बारिश ने राहत कार्य में बाधा डाली, लेकिन शुरुआत में प्रशासन की शिथिलता पर सवाल उठे हैं। ऐसे अभियानों में राष्ट्रीय आपदा निरोधक बल तथा स्थानीय सुरक्षा बलों की नाकामी गाहे-बगाहे उजागर होती रहती है। निस्संदेह, ऐसे संकटों में तत्काल कार्रवाई और राहत- बचाव कार्य को आधुनिक तकनीक से शुरू करने की जरूरत महसूस की जाती रही है। यही वजह है कि आए दिन होने वाले बोरवेल हादसों के मद्देनजर देश की शीर्ष अदालत ने वर्ष 2010 में इस बाबत दिशानिर्देश जारी किए थे ताकि ऐसे हादसों को टाला जा सके। जिसमें बोरवेल के चारों ओर बाड़ लगाने तथा मजबूत बोल्ट के साथ स्टील कवर लगाने के निर्देश दिए गए थे। इसके बावजूद आए दिन बोरवेल में बच्चों के गिरने के मामले सामने आ रहे हैं। जाहिर किसान व स्थानीय प्रशासन सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अनदेखी कर रहे हैं। अन्यथा ऐसे हादसों की पुनरावृत्ति न होती।
निस्संदेह, देश के विभिन्न भागों में बोरवेल हादसों का सामने आना जहां निगरानी करने वाले विभागों की लापरवाही को दर्शाता है, वहीं उन लोगों के आपराधिक कृत्य को भी दर्शाता है, जो बोरवेल का मुंह खुला छोड़ देते हैं। वहीं हादसे हमारे समाज में चेतना के अभाव को भी दर्शाते हैं कि खुले बोरवेल के खिलाफ आम लोगों के स्तर पर आवाज नहीं उठायी जाती। यह भी उल्लेखनीय है कि सिंचाई विभाग राज्यों का विषय होने के कारण इसमें केंद्र सरकार का दखल नहीं हो पाता। एक अनुमान के अनुसार देश में करीब पौने तीन करोड़ बोरवेल हैं। जिसमें से बड़ी संख्या में सूख चुके हैं। जिन्हें गैरजिम्मेदार लोगों द्वारा खुला छोड़ दिया जाता है, जो कालांतर हादसे की वजह बन जाते हैं। विडंबना यह भी है कि एनडीआरएफ द्वारा चलाये जाने वाले ऐसे राहत व बचाव के दो तिहाई अभियान नाकाम रहते हैं। दरअसल, सभी राज्यों में ऐसे मामलों में बच्चों की जान बचाने से जुड़े सुरक्षा उपाय हर जिले के अधिकारियों को एक मैनुअल के रूप में दिए जाने चाहिए। ताकि किसी हादसे के बाद राहत-बचाव कार्य तुरंत शुरू करके बच्चों को बचाया जा सके। संकट इस ओर भी इशारा करता है कि ऐसे मामलों में हमारा राहत व बचाव का तंत्र कितना शिथिल व निष्प्रभावी है। अकसर स्थिति जटिल होने पर सेना के विशेषज्ञों की भी मदद ली जाती है। कई बार इतनी देर बाद सेना के विशेषज्ञों को बुलाया जाता है कि बच्चों के बचने की उम्मीद क्षीण हो चुकी होती है। निश्चित रूप से बोरवेल की देखरेख करने वाली एजेंसियों के अधिकारियों की जवाबदेही तय करने का वक्त आ गया है। ऐसे मामलों में लापरवाही दिखाने वाले अधिकारियों को दंडित करने की जरूरत है। उनका दायित्व बनता है कि खुले बोरवेल के मालिकों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई करें। समाज के लोगों को भी इस बाबत सचेत करने की जरूरत है ताकि वे प्रशासन को खुले बोरवेल की सूचना दे सकें। यदि समाज सचेत और संवेदनशील रहेगा तो उसका दबाव प्रशासन भी महसूस करेगा। फिर इस सजगता-सतर्कता से कई बच्चों की अनमोल जिंदगी बचायी जा सकेंगी।