मुफ्तखोरी और आत्मनिर्भरता के लिए सीनाजोरी
आलोक पुराणिक
दिल्ली में प्रदूषण का आलम यह है कि हर दिल्ली वाला 49 सिगरेट जितना धुआं अंदर कर रहा है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि दिल्ली में सरकार हर बंदे को मुफ्त सिगरेट पिलवा रही है। भविष्य में कोई सरकार मुफ्त शराब पिलवाने का जुगाड़ भी करवा सकती है। कोई और सरकार कह सकती है कि मुफ्त शराब के साथ मुफ्त नमकीन भी हम दे देंगे।
तो दिल्ली वाला 49 सिगरेट मुफ्त में पी रहा है, पर एक बंदे को देखा मैंने, वह सचमुच एक सिगरेट होंठों से लगाकर पी रहा था। मैंने उससे पूछा भाई 49 सिगरेटें दिल्ली में यूं ही मुफ्त मिल रही हैं, फिर भी तू ऊपर से और पी रहा है। सिगरेट पीवक भाई ने कहा-देखिये, शहर में बहुत भंडारे चलते हैं, सबमें मुफ्त खाना मिलता है। पर अपने घर के खाने की बात कुछ और है। आत्मनिर्भर होना चाहिए बंदे को। सो भाई आत्मनिर्भरता निभाते हुए खुद सिगरेट पीता है, ताकि वह उन 49 पर निर्भर न हो जाये, जो उसे मुफ्त मिल रही हैं।
पर मुफ्तखोरी के साथ कुछ लोग आत्मनिर्भरता के प्रति भी प्रतिबद्ध होते हैं, यानी मुफ्त की सिगरेट के साथ अपनी खुद की सिगरेट भी पीते हैं।
मुफ्त में हरेक को सब कुछ चाहिए, पर मुफ्त में कोई किसी के लिए कुछ करने के लिए तैयार नहीं है। वक्त वह भी आ सकता है कि बेटा बाप की मौत के बाद, बाप की लाश उठाने से इनकार कर दे और कह उठे कि मुफ्त में क्यों उठाऊं, मुझे क्या मिलेगा। मुफ्तखोरी की मानसिकता बहुत कुछ बदल देती है। मुफ्तखोर कुछ करने को तैयार ना होता, सिगरेट पीने के अलावा।
विख्यात कथाकार प्रेमचंद की एक कहानी है कफन। इस कहानी में दो कैरेक्टर हैं-घीसू और माधव, ये दोनों परम कामचोर बंदे हैं, कुछ नहीं करते। इस कदर गैर-जिम्मेदार कि परिवार की एक स्त्री की मौत के कफन के लिए मिले पैसों से भी दारू पी जाते हैं। फिर दोनों बात करते हैं, बातों का सार यह होता कि चिंता नहीं, कोई न कोई फिर पैसा देगा, कफन के लिए। भारतीय परंपरा में उच्च किस्म के मुफ्तखोर रहे हैं, घीसू माधव की कसम। अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये सबके दाता राम-यानी संदेश साफ है कि कुछ करने की जरूरत नहीं है क्योंकि अजगर कुछ काम नहीं करता और पंछी भी कुछ काम नहीं करता। पर साहब, अजगर को बड़ी कार में चलने की इच्छा भी नहीं होती। अजगर को बड़े घर की दरकार नहीं होती। अजगर को महंगी शराब की इच्छा नहीं होती। इंसान को होती है, इन सब आइटमों की इच्छा, तो उसका हिसाब-किताब अलग होता है।
अजगर संतोषी जीव होता है, इंसान नहीं होता। भारतीय इंसान तो अब संतोषी ना रहा। कहीं उसे मुफ्त चावल मिल रहा है, कहीं उसे मुफ्त सिगरेट मिल रही है। पर हर इंसान ऐसा नहीं है, जी मुफ्त की 49 सिगरेट मिल रही हैं दिल्ली में फिर भी आपको दिल्ली में कोई न कोई सचमुच की सिगरेट पीता हुआ मिल ही जाता है, आत्मनिर्भरता की कसम।