मुख्य समाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाबहरियाणाआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकी रायफीचर
Advertisement

मासूम बंदा

04:00 AM Jan 19, 2025 IST

मुझे लगा, अख्तरी बुरके में मुस्कराई और कुछ शरमाई थी। और थोड़ी देर बाद वह मिनमिनाई, ‘चंदर से?’ एक सवाल। तभी मां जी उठकर रसोई में चले गए। उसने झट से बुरका उतारा और मेरे पास ही चारपाई पर बैठ गई। वह वैसी की वैसी ही थी। वही बाल, जिनमें उसकी जान फंसी हुई थी। हू-ब-हू रत्तीभर भी फर्क़ नहीं पड़ा था। उसने कहा, ‘पगले! मैं तुझसे मिलने आई हूं।’ मैं कसमसा-सा गया।

Advertisement

सुरिंदर सिंह ओबराय

मुझे कभी किसी की याद नहीं आई। न ही मुझे कोई याद करता है। मैं बहुत सीधा-सादा आदमी हूं। साधु स्वभाव, भोला भाला, छोटा-सा एक दीन और मासूम चेहरा। न आंखों में शरारत, न वो प्यार भरे संदेशे। जिनको कवि लोग नयनों के तीर कहते हैं। मैंने गोलियां तो चलती देखी हैं, पर नयनों के तीर कभी चलते नहीं देखे।
कहते हैं, जवानी मस्तानी होती है। बाढ़ की तरह आती है और अपने साथ कई चाव, कई उमंगें और लड़कियों के सपने बहाकर ले जाती है। मगर मुझे लगता है कि मेरे पर जवानी आई ही नहीं। यदि कहीं भूली-भटकी आई भी, तो अपने साथ सिर्फ़ बच्चे ही लाई है, जिनका मैं पिता हूं। ये बच्चे भी शकुंतला रानी की मेहर हैं, जिसका पल्लू मेरे पल्लू के साथ इसलिए बांध दिया गया कि मैं भी कह सकूं कि हां भाई जवानी भी कोई शै होती है। ये बच्चे जवानी की ही सनद हैं।
जवानी कब आई, कब गई, पता नहीं। पैंतीस साल की उम्र में यदि कोई मुझसे पूछे कि बाऊजी, तुमने क्या-क्या गुल खिलाए, तो मैं कहूंगा कि मेरी सारी स्लेट साफ पड़ी है। लिखने के बाद मैंने कभी कुछ पोंछा भी नहीं, साफ़-सुथरी, सीधी-सपाट जिन्दगी में कोई पेच नहीं। कोई मोड़ नहीं, कोई इश्क़-पेचा नहीं।
मैं छुट्टियों में अपने घर आया हूं। शकुंतला, मुन्नी और बबलू भी मेरे साथ हैं। हां, आज जब मां जी ने मुझे बताया कि अख्तरी मुझसे मिलना चाहती है, मैं तब से सोच रहा हूं कि शायद मेरी जिन्दगी में भी इश्क़-पेचे की बेलों से लिपटने का मौसम आ गया है। शायद गर्मी के मौसम में वसंत का झोंका आने वाला है।
अख्तरी हमारे पड़ोस में रहती थी। पड़ोस भी ऐसा कि एक दीवार साझी। अपने कोठे पर खड़े होकर हम तो उनके पूरे आंगन को देख सकते थे, पर वे अपने कोठे से सिर्फ हमारा अमरूद का दरख्त ही देख पाते।
‘मीठी गोली।’ मैं कहता और मुंह में से गोली निकालकर उसको दिखाता।
‘मुझे भी दे।’ वह कहती।
और मैं लेसदार गोली निकालकर झरोखे के अंदर खिसका देता, वह उसे अपने कुरते से पोंछ कर चूसने लगती। एक दिन वह गेंद को झपट्टा मारकर अपने घर में घुस गई। मैं भी बोरी का परदा उठाकर झट से अंदर। पहले भी मैं कई बार इस तरह अंदर घुस चुका था, पर हर बार डर-सा लगता था। वह मेरे से वायदा करवाती कि मैं अगली बार उसको संतरे की मीठी गोलियां लाकर दूंगा। मैं झूठ-मूठ वायदा कर देता। मैं भी पक्का कंजूस था, फिजूल ही उसके लिए मीठी गोलियों पर पैसे क्यों खर्च करता फिरूं?
अभी मैं अंदर घुसा ही था कि किसी के मजबूत हाथों ने मेरे दोनों कंधों को पकड़ लिया। कमरे में अंधेरा था। मैं डर से कांपने लगा। मुंह उठाकर देखा तो एक पतली लम्बी-सी लड़की, मलमल की पतली-सी कुरती पहने, कमर में तहमद बांधे, मेरे सामने खड़ी थी। उसके स्याह-काले बाल नीचे फर्श को छू रहे थे।
डर के मारे मेरी चीख-सी निकल गई। शायद मैं सिसकने या रोने भी लगा था। मेरे मुंह से मद्धम-सी आवाज निकली, ‘अब मैं कभी नहीं आऊंगा।’
‘तू चंदर है?’ उसने बहुत ही धैर्य के साथ पूछा। मुझे कुछ हौसला-सा हुआ।
‘हां...।’ मैंने कहा, ‘मैं लाला चुन्नीलाल का बेटा हूं।’ मैं नज़रें झुकाए नीचे फर्श की तरफ देख रहा था। मेरा सिसकना बंद हो चुका था और आंसू मेरी ठोड़ी तक चू आए थे।
उसने अपनी उंगलियों से मेरे आंसू पोंछे, मेरे माथे पर आए बालों को एकतरफ करते हुए कहा, ‘रोते नहीं।’ फिर अपने हाथ से मेरी ठोड़ी ऊपर उठाकर पूछा, ‘गुड़ खाएगा?’
‘नहीं।’
‘कौन-सी क्लास में पढ़ता है?’
अख्तरी ने बताया, ‘तीसरी में…।’
मेरे आंसू सूख गए थे। उसने मुझे ऊपर उठाकर मेरा मुंह चूमते हुए कहा, ‘मेरा एक काम करेगा?’
मैंने कुरते से मुंह पोंछकर कहा, ‘हां।’
उसने मुझे धागे का एक गोला देकर कहा, ‘इससे मेरे बाल नाप दे...।’
यह कहकर वह नीचे फर्श पर लेट गई। मैं उसके बालों को फैलाकर दूसरी तरफ ले गया। धागे का एक सिरा उसके सिर पर रखने लगा। धागे का दूसरा सिरा अख्तरी के हाथ में था। मुझे कुछ होश नहीं थी। मैंने अख्तरी की बहन को कहते सुना, ‘दो गज दो इंच’। मैं कब और किस तरह बाहर आया, मुझे नहीं पता।
अब सोचता हूं कि दो गज दो इंच तो उसका कद भी नहीं था, उसके बाल इतने लम्बे कैसे हो सकते थे।
मुझे यह भी याद है कि उसने मेरी गालों को सहलाते हुए कहा था, ‘प्यारा बच्चा।’ और फिर उसने मेरा मुंह चूमते हुए कहा था, ‘रोज आया कर।’ साथ ही उसने मेरे हाथ में एक मोरी वाला पैसा रख दिया था। उस पैसे से लेकर खाई हुई मलाई वाली बर्फ मुझे अभी तक याद है।
फिर तो वह कभी न कभी मुझे बुलाती ही रहती और मैं उसको कोई न कोई चीज लाकर देता रहता। कभी लाल रंग के रिबन। कभी कोई खुशबू वाला तेल। कभी मुंदरी और कभी दंदासा। मुझे इस काम के लिए पैसा भी मिलता था और साथ ही, अख्तरी के साथ मेरी मुलाकात भी हो जाती थी।
एक दिन उसने मुझे एक रुक्का बरकत नाई को देने के लिए कहा। जब मैं लौटने लगा तो बरकत नाई ने मुझे उर्दू की एक किताब दी। मैंने उस किताब का नाम पढ़ा था - रंगीन रातें। इन किताबों में सब झूठ-मूठ लिखा होता है। रातें भी कभी रंगीन हो सकती हैं? रातें या तो वे काली होती हैं या उजली।
फिर एक दिन पता चला कि अख्तरी की बहन उस नाई के साथ भाग गई थी। सारी गली में शोर मचा हुआ था। लोग कहते- सुबह जंगल-पानी को गई थी, वापस नहीं लौटी। बरकत नाई का भी कोई पता नहीं था। अब वे कहां मिलने वाले थे? रेलगाड़ी ने तो उनको लाहौर पहुंचा दिया होगा। उस दिन के बाद मैं अख्तरी को कभी न मिल सका। झरोखे को भी बोरी लगाकर बंद कर दिया गया।
मैं अपनी ननिहाल चला गया। एक बार आया तो पता चला कि अख्तरी का निकाह हो गया था और उसका शौहर नानबाई की दुकान पर काम करता था। अब मैं पैंतीस साल का हूं। अख्तरी भी बत्तीस-तैंतीस की तो होगी ही। इतने साल बाद आज लग रहा था कि शायद मैं अख्तरी को पहचान नहीं सकूंगा। वह मोटी-ठुल्ली हो चुकी होगी। शायद उसके बाल ही उसकी पहचान बन सकें। वही बाल जिन्हें मैंने गुस्से में भी कभी नहीं खींचा था। मुझे लगता था, कहीं उसकी जान उसके बालों में न हो।
मैं उसके साथ कैसे बात करूंगा। पहली बात क्या करूंगा? वह मिलना चाहती है। क्यों मिलना चाहती है? क्या कहना चाहती है?
मुझे एक कहानी याद आई … एक लड़का और एक लड़की खेलते-कूदते दुनियादारी के झमेलों से दूर, अपनी दुनिया में मस्त बड़े हो जाते हैं, ब्याहे जाते हैं। लड़की अपने पति के साथ, किसी दूसरे शहर में चली जाती है और लड़का उसी शहर में अपने बापू की दुकान पर बैठ जाता है। फिर उस लड़के को वह लड़की बहुत प्यारी-प्यारी लगने लगी। उसके साथ बिताये दिन उस पर जादू करते जा रहे थे। उस गुजरे हुए मासूम दिनों में से रोमांस की किरमची लकीरें ढूंढ़ने की वह कोशिश करता। वह लड़की जब अपने मायके घर आती तो वह रोमांस की किसी रेशमी तांत से, बीती यादों की किसी सुनहरी किरण को यूं खींचता कि आख़िर एक दिन वे दोनों उन रेशमी तातों के जाल में जकड़े ही गए। गुजरे हुए ज़माने के मासूम धागे की गांठें जंजीरें बनकर उनको जकड़ लेतीं, दोनों कहीं भाग जाने की सोचते, पर ऐसा शायद किसी कहानी में ही होता है।
मेरी चूसी हुई गोलियां का जिक्र वह अवश्य करेगी और जिक्र कर के मेरी तरफ जरूर देखेगी। फिर शायद वह अपने बालों की बात करेगी। फिर अल्हड़पने में गुज़ारे हुए दिनों को, हाथ मलकर पछतावा दर्शाते हुए, आंखों में मुस्कुराहट भरकर कहेगी, ‘हम कितने भोले थे! क्या वक्त था वो?’ फिर वह ठंडी सांस भरेगी कि काश! वे दिन इतने मासूम न होते।
मैं उसकी आंखों में आंखें डालकर कहूंगा, ‘अख्तरी, कभी याद भी किया था?’ वह शायद शरमा जाए। शायद न भी शरमाए। लेकिन जवाब क्या देगी? फिर मैं नाई के साथ भागी, उसकी बहन नूर की बात करूंगा… कि जब वह एक रात सोई हुई थी, उस नाई ने उसके बाल काटकर बेच दिए थे। दो गज दो इंच लम्बे बाल!
मुझे लग रहा था कि मेरे अंदर का सब कुछ बाहर आने लगा है… कि मेरी देह पर इश्क़ की कोंपलें फूट रही हैं… कि मेरी नसें अभी फूटने वाली हैं।
मैंने सोचा कि अख्तरी को भी जरूर नूर की और हमारी साझी बातें याद आती होंगी, जिनके हम तीन ही राजदान थे। मैं उसका हाथ पकड़कर थोड़ा-सा दबाऊंगा। वह शरमा जाएगी। शायद ‘न-न’ भी करेगी। जैसा कि आम फिल्मों में होता है। वह मेरा हाथ दबाएगी और बस।
अख्तरी आई। मांजी भी कमरे में बैठे थे। उसने आते ही सलाम किया, पर चेहरे से बुरका नहीं हटाया था।
‘री अख्तरी! परदा कैसा?’ मां जी ने कहा।
मुझे लगा, अख्तरी बुरके में मुस्कराई और कुछ शरमाई थी। और थोड़ी देर बाद वह मिनमिनाई, ‘चंदर से?’ एक सवाल।
तभी मां जी उठकर रसोई में चले गए। उसने झट से बुरका उतारा और मेरे पास ही चारपाई पर बैठ गई। वह वैसी की वैसी ही थी। वही बाल, जिनमें उसकी जान फंसी हुई थी। हू-ब-हू रत्तीभर भी फर्क़ नहीं पड़ा था।
उसने कहा, ‘पगले! मैं तुझसे मिलने आई हूं।’
मैं कसमसा-सा गया। मैंने सोचा, अब मौका है। मगर उसका वह हाथ कहां गया जिसको मुझे पकड़कर दबाना था। तभी उसने मेरा हाथ पकड़कर कहा, ‘पगले! खुश है? किस तरह कट रही है?’ मैंने हाथ खींच लिया।
‘तुझे डर नहीं लगता, मांजी आ जाएं तो...।’ मैंने कहा।
‘डर?’ उसने कहा, ‘तेरे से?… तू बड़ा ही भोला और मासूम बंदा है… तेरे से कैसा डर...।’
मां जी आ गए थे। मैं कुछ नहीं बोला। मांजी न भी आते, तब भी मैं कुछ नहीं बोल सकता था। क्योंकि मैं तो एक मासूम बंदा हूं, जिससे किसी को भी डर नहीं लगता।

Advertisement

अनुवादक : सुभाष नीरव

Advertisement