मर्यादित व अनुशासित आस्था में महाकुंभ की सफलता
दुनिया के इस सबसे बड़े मेले की सफलता का वास्तविक रहस्य लोगों की मर्यादित और अनुशासित आस्था में छिपा है। चिंतकों और मनीषियों को यही अचरज कुंभ पर शोध के लिए सदैव प्रेरित करता रहा है और हर बार उनकी मीमांसाएं इसी ओर इशारा करती आई हैं कि कुंभ भारतवर्ष की विलक्षण सांस्कृतिक परंपरा का पर्व है, जिसमें न वर्ण-भेद है, न जाति-भेद और न भाषा की दीवारंे हैं। यदि कुछ है तो सिर्फ प्रकृति का एक उद्दाम रूप जिसमें आस्थावान के लिए सूर्यकिरणों संग पावन जल की एक छपाक से पापमुक्त होने का गहरा संतुष्टि भाव समाहित है।
व्योमेश चन्द्र जुगरान
एक युवक भीड़ को चीरता हुआ पुलिस इंस्पेक्टर के पास आ खड़ा हुआ है। गिड़गिड़ाते स्वर में कह रहा है- जी मेरी बात सुनिए। मेरे अस्सी बरस के बाबा सैकड़ों मील की दूरी से प्रयाग चले आए हैं किन्तु अपनी झोपड़ी से संगम तक पैदल चलकर नहीं आ सकते। क्या मैं उन्हें साइकिल पर बिठाकर ला सकता हूं।
इंस्पेक्टर नरम पड़ते हुए कहते हैं- ठीक है ले आइए, पर देखिए उन्हें आपको अलग नहलाना होगा, साइकिल समेत नहीं। युवक खुश होकर चला गया और करीब आधा घंटे बाद एक जर्जर साइकिल को घसीटते हुए वापस आता दिखा। साइकिल के पहिए बार-बार गीली रेत पर रपट रहे हैं। वह घबराकर इधर-उधर देखता है कि कहीं कोई दूसरा सिपाही उसे रोक न ले। किन्तु पीछे कैरियर पर बैठा यात्री एकदम अटल और निश्चिंत है। आंखें मूंदी और मुंह खुला हुआ। ठुड्डी पर लार बह रही है। नीचे लटकते पैर रेत से रगड़ खा रहे हैं। बूढ़े ने अपना सिर सीट पर रखी मैली पोटली पर टिका रखा है। साइकिल की चरमराहट में पता ही नहीं चलता कि ढीले कलपुर्जों की आवाज कितनी है और बूढ़ी हड्डियों की खटखटाहट कितनी! हर टूटी हुई सांस उसे अपनी यात्रा के अंत की ओर ठेले जा रही थी।
कैसा अंत! क्या कोई ऐसी जगह है जिसे हम अंत कहकर छुट्टी पा सकें! जिस जगह पर एक नदी दूसरे में समर्पित हो जाए और दूसरी अविरल रूप से बहती रहे, वहां अंत कैसा! हिन्दू मानस में कोई ऐसा बिंदु नहीं जिस पर उंगली रख हम यह कह सकें कि यह शुरू है, यह अंत है। मरता कोई नहीं सब समाहित हो जाते हैं। घुल जाते हैं, मिल जाते हैं। जिस मानस में व्यक्ति की अगल सत्ता नहीं, वहां अकेली मृत्यु का डर कैसा! रामकृष्ण परमहंस ने कहा था- नदियां बहती हैं क्योंकि उनके जनक पहाड़ अटल रहते हैं। शायद इसीलिए इस संस्कृति ने अपने तीर्थस्थल पहाड़ों और नदियों में खोज निकाले थे- शाश्वत अटल और शाश्वत प्रवाहमान।
प्रयाग के कुंभ मेले के अनुभवों पर आधारित यह गहन विचार मीमांसा हिन्दी के जाने-माने कथाकार और लेखक निर्मल वर्मा ने अपनी किताब ‘धुंध से उठती धुन’ में व्यक्त की है। वर्मा यह भी लिखते हैं- ‘मैं इस मेले में खाली होकर आया था, सब कुछ पीछे छोड़ आया था। मैं अथाह भीड़ में अपने को अदृश्य पाना चाहता था। मैं वहीं बैठ जाना चाहता था भीगी रेत पर, असंख्य पदचिन्हों के बीच अपनी भाग्यरेखा को बांधता हुआ। पर यह असंभव था। मेरे आगे-पीछे असंख्य यात्रियों की कतार थी- शताब्दियों से चलती हुई, थकी उद्भ्रांत मलिन, फिर भी सतत प्रवाहमान। पता नहीं, वे कहां जा रहे हैं। किस दिशा में किस दिशा को खोज रहे हैं, एक सदी से दूसरी सदी की सीढि़यां चढ़ते हुए। कहां है वह कुंभ-घटक जिसे देवताओं ने यहीं कहीं बालू में दबाकर रखा था। न जाने कैसा स्वाद होगा उस सत्य का, अमृत की कुछ तलछटी बूंदों का जिनकी तलाश में यह लंबी यातना भरी धूल-धूसरित यात्रा/तीर्थ अभियान शुरू हुआ है!’
कुंभ पर इसी विचार के समानांतर अपने संस्मरणों में आधुनिक हिन्दी कविता के सशक्त हस्ताक्षर और आलोचक अशोक वाजपेयी लिखते हैं- ‘कुंभ महापर्व है। मुक्ति की दिशा में निकले व्यक्ति की सजल चाहना है। कुंभ नए संकल्पों का जन्मदाता है। भूलों को न दोहराने और उन पर विजय पाने की आस्थापरक संचेतना है। कुंभ जड़ की उमंगभरी तान है, निस्सीम को रिझाती रागिनी है और गर्हित को गरिमामय मोड़ देने की भूमिका है। कुंभ एक सामूहिक अभियान है। जनता-जनार्दन से जुड़ने की युक्ति है और एक दुर्लभ संयोग है। कुंभ प्रार्थना की वह बेला है जब तमस के मस्तक पर अशीष की तरल किरण झरने को मचलती है। भीतर पड़ी गांठ निरायास खुलती है और कौंध जाता है यह महाबोध कि सब एक-दूसरे से जुड़े हैं और सबका स्थायी नीड़ मोक्ष है।’
अशोक वाजपेयी कुंभ की प्राचीनता के बारे में लिखते हैं- ‘कुंभ पर्व कब प्रारंभ हुआ, इस विषय पर विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ का कहना है कि यह गर्ग ऋषि की खोज है। ये वही ऋषि हैं जिन्होंने श्रीकृष्ण को चौंसठ कलाओं में निष्णाहत होने की युति सुझाई थी। यह भी माना जाता है कि प्रयाग में ब्रह्मा ने अपने यज्ञ की वेदी बनाकर याेग किया था। कुछ विद्वान कुंभ को विक्रमादित्य से जोड़ते हैं। उनका मानना है कि यदि सम्राट विक्रमादित्य ने कुंभ को प्रोत्साहित न किया होता तो यह पर्व लगभग मर गया था। बौद्ध ग्रंथों में कई पर्वों का जिक्र मिलता है मगर कुंभ का कोई जिक्र नहीं है।’ इतिहास कहता है कि सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल (629 - 645 ई.) में भारत आए चीनी यात्री ह्वेन सांग के वर्णन में कुंभ का जिक्र है। ह्वेन सांग के अनुसार सम्राट हर पांच साल बाद प्रयाग के त्रिवेणी तट पर एक बड़े धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेते थे। यहां वह बीते सालों में अर्जित अपनी सारी संपत्ति विद्वानों, पुरोहितों, साधुओं, भिक्षुकों, विधवाओं और असहाय लोगों को दान कर दिया करते थे। आठवीं सदी में जब शंकराचार्य ने हिन्दू चिन्तन की कडि़यां जोड़ीं, तब से कुंभ पर्व की महत्ता लोगों ने पुन: जानी।
प्रयाग कुंभ के अनुभव पर आधारित एक अनन्य दृष्टि विख्यात अन्वेषी पत्रकार मार्क टली की भी है। अपनी चर्चित पुस्तक ‘नो फुलस्टॉप इन इंडिया’ में वह लिखते हैं- ‘कुंभ मेले को दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक पर्व कहा जाता है लेकिन वास्तव में यह कोई ठीक-ठीक नहीं जानता कि यह कितना बड़ा है। शायद भगवान ही उनका हिसाब रखता है जो इलाहाबाद में कुंभ के दौरान अपने पाप धोते हैं। गंगा के उस पार सूरज उग आया था। श्रद्धालुओं का सैलाब संगम के कोने-कोने में काले बादलों की तरह फैला नजर आ रहा था। इस बात का अनुमान लगा पाना नामुमकिन था कि आखिर यहां कितने लाख लोग थे। मैंने अपने जीवन में कभी इतनी शांत भीड़ नहीं देखी थी। वहां कोई पालगपन या उन्माद नहीं था। बस आस्था के प्रति एक स्थिर विश्वास था। श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या गांवों से आने वालों की थी। उनकी आस्था ने उन्हें यह साहस दिया कि वे अफवाहों की परवाह किए बगैर यात्रा के सारे कष्टों को झेलते हुए मीलों पैदल चलकर स्नान के लिए पहुंच पाएं। तब भी इन गांव वालों से कहा जाता है कि उनकी आस्था जो कि उनके लिए इतनी महत्वपूर्ण है, महज एक अंधविश्वास है। उनसे कहा जाता है कि वे धर्मनिरपेक्ष बनें। दुनिया के किसी अन्य देश में कुंभ मेले जैसा कोई दृश्य मुमकिन नहीं है। मेले का सफलतापूर्वक संचालन भारत की अक्सर आलोचना पाने वाली प्रशासन व्यवस्था की बड़ी जीत थी लेकिन यह भारतीय जनता की कहीं बड़ी जीत थी।’
वाकई सत्य यही है कि सरकारें अपनी ओर से व्यवस्था को सर्वश्रेष्ठ बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहतीं, पर दुनिया के इस सबसे बड़े मेले की सफलता का वास्तविक रहस्य लोगों की मर्यादित और अनुशासित आस्था में छिपा है। चिंतकों और मनीषियों को यही अचरज कुंभ पर शोध के लिए सदैव प्रेरित करता रहा है और हर बार उनकी मीमांसाएं इसी ओर इशारा करती आई हैं कि कुंभ भारतवर्ष की विलक्षण सांस्कृतिक परंपरा का पर्व है, जिसमें न वर्ण-भेद है, न जाति-भेद और न भाषा की दीवारंे हैं। यदि कुछ है तो सिर्फ प्रकृति का एक उद्दाम रूप जिसमें आस्थावान के लिए सूर्यकिरणों संग पावन जल की एक छपाक से पापमुक्त होने का गहरा संतुष्टि भाव समाहित है। इसीलिए प्रयागराज में 13 से 26 जनवरी तक चलने वाले महाकुंभ के बारे में मेजबान उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कहते हैं कि महाकुंभ-2025 के आयोजन को लेकर पूरा विश्व उत्सुक है। यह दुनिया को भारत की सनातन संस्कृति से साक्षात्कार कराने का सुअवसर है।