मनुष्य का जीवन बदल देती है सत्संगति
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
कहते हैं कि संगति आदमी को पशु से बदलकर इंसान बना देती है। कबीर ने तो कहा भी है :-
‘कबीरा संगत साधु की, हरे और की व्याधि।
संगत बुरी असाधु की, आठों पहर उपाधि।’
हमारे समाज में अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जब बहुत बुरा व्यक्ति सत्संगति के कारण पाप और बुराई के रास्ते को छोड़कर अच्छाई और पुण्य के मार्ग पर चलकर प्रसिद्ध हुआ। अंगुलिमाल की कथा तो सभी जानते हैं।
आज ऐसी प्रेरक बोधकथा पढ़ने को मिली, जो आपसे साझी करना जरूरी लगता है : ‘एक चोर ने राजा के महल में चोरी की। सिपाहियों को पता चला, तो उन्होंने उसके पदचिह्नों का पीछा किया। उन्होंने चोर के पदचिह्न पास के गांव की ओर जाते देखे।
गांव में जाकर उन्होंने देखा कि एक संत वहां सत्संग कर रहे हैं। चोर के पदचिह्न भी उसी ओर जा रहे थे, अतः सिपाहियों को संदेह हुआ कि चोर भी सत्संग में ही लोगों के बीच बैठा होगा। वे वहीं खड़े रहकर उसका इंतजार करने लगे।
सत्संग में संत कह रहे थे, ‘जो मनुष्य सच्चे हृदय से भगवान की शरण चला जाता है, भगवान उसके सम्पूर्ण पापों को सदा माफ कर देते हैं।’
संत ने कहा, ‘जो भगवान का हो गया, उसका तो मानो दूसरा जन्म हो गया। अब वह पापी नहीं रहा, बल्कि साधु हो गया। अगर कोई पथभ्रष्ट भी अनन्य भक्त होकर प्रभु का भजन सच्चे मन से करता है, तो उसको साधु ही मानना चाहिए।’ चोर वहीं बैठा यह सब सुन रहा था। उस पर सत्संग की बातों का बहुत ही गहरा असर पड़ा और उसने वहीं बैठे-बैठे यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि ‘अभी से मैं भगवान की शरण लेता हूं, अब मैं कभी चोरी नहीं करूंगा। मैं अब भगवान का हो गया हूं।’
सत्संग समाप्त हुआ। लोग उठकर बाहर जाने लगे। चोर बाहर निकला तो सिपाहियों ने उसके पदचिह्नों को पहचान लिया और उसको पकड़ कर राजा के सामने पेश किया। राजा ने चोर से पूछा, ‘इस महल में तुम्हीं ने चोरी की है न? सच-सच बताओ, तुमने चुराया हुआ धन कहां रखा हुआ है?’
चोर ने दृढ़तापूर्वक कहा, ‘महाराज! इस जन्म में मैंने कोई चोरी नहीं की।’
राजा ने चोर की परीक्षा लेने की आज्ञा दी, जिससे पता चले कि वह झूठा है या सच्चा। चोर के हाथ पर पीपल के ढाई पत्ते रखकर उसको कच्चे सूत से बांध दिया गया। फिर उसके ऊपर गर्म करके लाल किया हुआ लोहा रखा, परंतु उसका हाथ जलना तो दूर रहा, सूत और पत्ते भी नहीं जले।
राजा ने सोचा कि ‘वास्तव में इसने चोरी नहीं की, यह निर्दोष है।’ और राजा सिपाहियों पर बहुत नाराज हुआ कि ‘तुम लोगों ने एक निर्दोष पुरुष पर चोरी का आरोप लगाया है। तुम लोगों को दण्ड दिया जायेगा।’
यह सुनकर चोर बोला, ‘नहीं महाराज! आप इनको दण्ड न दें। इनका कोई दोष नहीं है। चोरी मैंने ही की थी।’ राजा बोला, ‘तुम इन पर दया करके इनको बचाने के लिए ऐसा कह रहे हो, पर मैं इन्हें दण्ड अवश्य दूंगा।’ तब चोर बोला, ‘महाराज! मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं, चोरी मैंने ही की थी। मैंने चोरी का धन जंगल में जहां छिपा रखा है, वहां से लाकर दिखा दूंगा।’ राजा ने अपने सिपाहियों को चोर के साथ भेजा, तो चोर ने वहां से धन लाकर राजा के सामने रख दिया।
यह देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा बोला, ‘अगर तुमने ही चोरी की थी, तो परीक्षा करने पर तुम्हारा हाथ क्यों नहीं जला?’ तुम्हारा हाथ भी नहीं जला और तुमने चोरी का धन भी लाकर दे दिया, यह बात हमारी समझ में नहीं आ रही है। ठीक-ठीक बताओ, बात क्या है?
चोर बोला, ‘महाराज! चोरी करने के बाद मैंने धन को जंगल में छिपाया और मैं गांव में चला गया। वहां सत्संग हो रहा था। मैं भी लोगों के बीच जाकर बैठ गया। सत्संग में मैंने सुना कि ‘जो भगवान की शरण लेकर पुनः पाप न करने का निश्चय कर लेता है, उसको भगवान सब पापों से मुक्त कर देते हैं। उसका नया जन्म हो जाता है।’ इस बात का मुझ पर असर पड़ा और मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि ‘अब मैं कभी चोरी नहीं करूंगा। अब मैं भगवान का हो गया हूं, इसीलिए तब से मेरा नया जन्म हो गया। अब चूंकि इस जन्म में मैंने कोई चोरी नहीं की, इसलिए मेरा हाथ नहीं जला। आपके महल में मैंने जो चोरी की थी, वह तो मैंने पिछले जन्म में की थी।’
राजा को आश्चर्य था कि सत्संग का ऐसा दिव्य प्रभाव होता है कि मात्र कुछ क्षण के सत्संग ने ही चोर का जीवन पलट दिया। उसे सही समझ देकर पुण्यात्मा, धर्मात्मा बना दिया और चोर सत्संग में सुने वचनों में दृढ़निष्ठा से कठोर परीक्षा में भी सफल हो गया और उसका जीवन पूरी तरह बदल गया है।’ सच ही कहा गया है—
‘जैसी संगति नर करे, वैसा जीवन होय।
भली संगति मान देय, बुरी करे तो रोय।’