भागवत के बयान से उपजी राहतकारी उम्मीदें
हाल में पुणे में संबोधन के दौरान संघ प्रमुख माेहन भागवत द्वारा की गयी टिप्पणी राहत का अहसास कराती है जिसमें सभी देशवासियोंं से मिलजुलकर रहने की जरूरत का आह्वान किया है। दिलचस्प उनकी ओर से सरकार को देश की विविधतापूर्ण विरासत की याद दिलाना भी है। शायद उन्होंने महसूस किया कि एक समुदाय का बड़ा नेता बनने की होड़ वाली राजनीतिक सोच शुरु में ही निर्मूल कर दी जाये।
ज्योति मल्होत्रा
अब जबकि यह साल खत्म होने को है, ऐसा कहना शायद अतिशयोक्ति न होगी कि कई मायनों में 2024 आरएसएस प्रमुख मोहन मधुकर राव भागवत का साल रहा। पुणे में बीते गुरुवार को संघ प्रमुख ने सहजीवन व्याख्यानमाला में ‘भारत–विश्वगुरु’ विषय वस्तु पर अपने संबोधन के दौरान जो नवीनतम टिप्पणियां की हैं, वे राहत प्रदान करने की दिशा में काफी चौंकाने वाली लगती हैं।
उनका यह कहना कि ‘मंदिर-मस्जिद विवाद अस्वीकार्य हैं’और यह भी कि ‘राम मंदिर के निर्माण के बाद, यदि कुछ लोग सोचने लगे हैं कि नई-नई जगहों पर वे इस तरह के मुद्दों को उठाकर हिंदुओं के नेता बन सकते हैं, तो यह कुबूल नहीं है’, आगे कहा कि ‘कौन अल्पसंख्यक है और कौन बहुसंख्यक”और खुद ही इस सवाल का जवाब दियाः‘सभी समान हैं’।
कहां तो संविधान द्वारा एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की गारंटी दिए जाने के 75 साल बाद, भागवत की टिप्पणियों को सामान्य माना जाना चाहिए था। लेकिन इसकी बजाय, इन्हें राहत की बात माना जा रहा है - और सुर्खियों की भी। आरएसएस प्रमुख को अपनी ही सरकार को यह याद दिलाने में समय लग गया कि देश ऐसे लोगों से बना है जिनके विचार, परंपराएं, रीति-रिवाज, धर्म और भाषाएं एकदम अलहदा हैं। और अगर इस 'खिचड़ी' को अपना विशिष्ट स्वाद बनाए रखना है, तो शायद इसे ‘एक राष्ट्र-एक लोग’ के शिंकजे में जकड़ने के कोई मायने नहीं हैं।
अनुमान के मुताबिक , राजनीतिक रूप से वामपंथी सोच वाले उनके पुणे भाषण में कोई न कोई कमी ढूंढ़ने में लग गए –कहीं अनुवाद में कुछ गड़बड़ तो नहीं, क्योंकि भागवत ने अपना संबोधन मराठी में दिया था। वहीं कयास से उलट, राजनीतिक रूप से दक्षिणपंथी भी शायद यह सोच रहे होंगे कि भागवत ऐसे वक्त पर स्तंभ पर बंधे भगवा ध्वज की डोर खींचकर उसे फहराने से परहेज़ क्यों कर रहे हैं, खासकर तब, जबकि मुसलमानों पर हिंदुत्व की जीत क्षितिज पर मंडरा रही है।
यह स्पष्ट नहीं है कि भागवत को कब बात खटक गई और किस वजह से उन्होंने पुणे में यह टिप्पणी की। आखिरकार, आरएसएस की स्थापना की 100वीं वर्षगांठ मनाने के लिए साल भर चलने वाले समारोहों की शुरुआत के कुछ हफ्तों बाद, और क्रिसमस से कुछ दिन पहले (जिसे मोदी सरकार ने ‘सुशासन दिवस’ घोषित कर रखा है, जो एक कार्यदिवस भी है) उनका यह कहना कि ‘हमें साथ रहना चाहिए’ - हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सभी को - यह कथन अनोखा और दिलचस्प दोनों है।
कुछ हफ़्ते पहले संभल मस्जिद के वास्तु के आधार पर इसके मूल स्वरूप को लेकर समुदायों के बीच हुई झड़प के बाद पुलिस की गोलीबारी में पांच लोगों की बेवजह मौत हो गई थी, लगता है इसके बाद से भागवत को अहसास हुआ है कि खुद को बेहतर हिंदू नेता सिद्ध करने वाली इस प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति को जड़ पकड़ने से पहले ही खत्म कर देना सही होगा।
शायद उन्होंने देख लिया है कि भारत के 20 करोड़ मुसलमान, जो कि आबादी का 14 प्रतिशत हैं, उन्हें भी बाकी लोगों की तरह शांति और समानता से यहीं बसना है, और देश के एक अन्य विभाजन के बारे में विचार भी सोच के दायरे से परे है। किसी और की तुलना में शायद उन्होंने करीब मंडरा रहे खतरों को पहचान लिया है। कदाचित उन्होंने अपने चारों ओर देखा और पाया कि कैसे - और क्यों - सीरिया, अफगानिस्तान और फिलिस्तीन जैसे इस्लामी राष्ट्र पिछले कुछ वर्षों में भरभरा कर ढह गए। भारत के मुसलमान कहां जाएंं, यदि उनके आत्मसम्मान को कुछ लोग चोट पहुंचाने की कोशिश करें। बुलडोजर चलाने वाली गर्मपंथी सोच पर भी सवाल उठे हैं।
आखिरकार, 2018 में भी भागवत ने दिल्ली में संवाददाताओं से कहा था कि ‘मुसलमानों के बिना हिंदुत्व अधूरा है’। और पिछले साल, जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वेक्षण करने की अनुमति दी ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या यह कभी मंदिर था और टीवी पत्रकार इस निर्णय के निहितार्थों को लेकर हल्ला मचाने लगे, तो भागवत ने शांति से कहा, ‘हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग की तलाश क्यों करना’?
निश्चित ही, यह बात कोई नहीं मानेगा कि आरएसएस प्रमुख और पीएम मोदी एक जैसे नहीं हैं या पिछले एक दशक में भाजपा के सत्ता में रहने से आरएसएस को बहुत लाभ नहीं हुआ है। बेशक, हुआ है। आरएसएस को पता है कि अगर मोदी नहीं होते, तो अयोध्या में राम मंदिर नहीं होता या दुनिया भर के 39 देशों में इसका विस्तार नहीं होता। आरएसएस प्रमुख के विचार इस बारे में स्पष्ट हैं कि सभी धर्मों के सभी भारतीय ‘हिंदू’ हैं, क्योंकि एक समय में उनके पूर्वज भी हिंदू थे। अक्तूबर माह की शुरुआत में विजयादशमी पर अपने संबोधन में भागवत ने स्पष्ट किया था कि उनके पास ‘उदारवादी एवं प्रगतिशील विचार और सांस्कृतिक मार्क्सवाद’ के लिए समय नहीं है। उन्होंने कहा कि बांग्लादेशी हिंदुओं को भारत से मदद की जरूरत है। उन्होंने कहा, ‘यहां तक कि भगवान भी कमजोरों की परवाह नहीं करते...बांग्लादेश में जो हुआ, वह हिंदू समाज के लिए एक सबक होना चाहिए। कमजोरी एक अपराध है’। लेकिन भागवत का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कई अन्य ढंग से दिलचस्प है। यह विश्वसनीय रूप से कहा जा सकता है कि संघ के कार्यकर्ता, जो अक्सर चुनावों में पलड़ा झुकाने में भूमिका रखते हुए भाजपा की हार को जीत में बदल देते हैं, उन्होंने 2024 के आम चुनाव में भाजपा उम्मीदवारों के लिए वैसा उत्साहपूर्वक प्रचार नहीं किया, जैसा कि वे इससे पहले करते आए हैं - संसद में पार्टी के बहुमत में कमी का एक कारण यह भी रहा। और बाद में आरएसएस ने हरियाणा और महाराष्ट्र चुनावों में अपना रुख बदला और पूरी ताकत झोंकने का फैसला किया। निश्चित रूप से, भागवत को अपने अनुकूल पाकर भाजपा को कहीं अधिक बल मिला है।
गौरतलब है कि संघ प्रमुख की उक्त टिप्पणियां मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना द्वारा निचली अदालतों को मंदिर-मस्जिद विवाद को लेकर कोई नया मुकदमा स्वीकार न करने या मस्जिदों के नीचे मंदिर होने का पता लगाने को सर्वेक्षण की मांग करने वाली मौजूदा याचिकाओं पर आदेश पारित न करने का निर्देश देने के कुछ दिनों के भीतर आई हैं। खन्ना ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट 1991 के पूजा स्थल अधिनियम पर फिर से विवेचना के लिए दायर याचिकाओं पर अलग से सुनवाई कर रहा है, जिसमें कहा गया है कि किसी पूजा स्थल की जो भी यथास्थिति 15 अगस्त, 1947 को थी, वही कायम रहेगी। हाल-फिलहाल, जस्टिस खन्ना ने इस तमाम कानूनी कहा-सुनी पर रोक लगा दी है कि क्या मस्जिदें कभी मंदिर हुआ करती थीं। ठीक इसी घड़ी, कम-से-कम भागवत भी जोश में आए अपने लोगों को ठंडा करने की कोशिश कर रहे हैं –वे राम मंदिर तक ही संतुष्ट रहें, काशी या मथुरा को प्राप्त करने या संभल शाही मस्जिद या अजमेर शरीफ दरगाह के नीचे खुदाई करने की कोई ज़रूरत नहीं है।
बहुत संभव है कि भागवत हिंदू और मुस्लिम समूहों के बीच हुई मध्यस्थता की अंदरूनी कहानी जानते हों, जिसके परिणामस्वरूप 2019 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में राम जन्मभूमि के गर्भगृह वाली जगह सहित 2.77 एकड़ जमीन ‘हिंदू पक्ष’ को दे दी गई थी। भागवत शायद महीनों तक चले लेन-देन को जानते हों, मुसलमानों ने जो किया, उस पर हक क्यों छोड़ दिया और बदले में उनसे क्या-क्या वादा किया गया था।
सवाल यह है कि क्या यह सब मोहन भागवत को साल का सबसे प्रमुख व्यक्ति बनाता है? एक अनौपचारिक जनमत सर्वे ही बता पाएगा।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।