दामाद के फूफा बनते ही फूं फां उड़न छू
विनय कुमार पाठक
एक समय था जब ससुराल के प्यार और सम्मान का कोई जवाब नहीं था। यह बात भी नहीं थी कि ससुराल में असीमित प्यार असीमित अवधि के लिए मिलता रहता था। पहली बार ससुराल जाने पर जो खातिर होती थी उसमें निश्चित रूप से उत्तरोत्तर ह्रास होता जाता था। और जो व्यक्ति ससुराल में ही बस जाता था उसे तो घर-जमाई कहकर न घर में इज्जत मिलती थी न ससुराल में। ससुराल में हर बार जाने से खातिरदारी में होने वाली कमी को ध्यान में रखकर ही शायद हेनरिक गौसेन ने सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम का प्रतिपादन किया था। उनके बाद अल्फ्रेड मार्शल और अन्य लोगों ने भी इस सिद्धान्त की व्याख्या की थी। यह बात अलग है कि कालांतर में ससुराल का जिक्र इस सिद्धांत में नहीं रह गया। इन्हीं बातों से प्रभावित होकर भोजीवूड या भोलिवूड में ‘ससुराल के दुलार जइसे आम के अचार’ शीर्षक से फिल्म भी बन चुकी है।
समय बीतने के साथ ससुराल में जाने वाला प्राणी दामाद से पदोन्नत होकर फूफा बन जाता था। फूफा की वह इज्जत नहीं रह जाती थी, ससुराल में क्योंकि उसका अपडेट वर्जन अर्थात् नया दामाद आ जाता था। फूफा जी भले ही राग अलापते रहें, नया नौ दिन और पुराना सौ दिन। या फिर कहते रहें कि पुराने चावल से ही पंथ पड़ता है। पर हकीकत यही है कि जैसे ही किसी की दामाद से फूफा श्रेणी में पदोन्नति हो जाती है, दामाद जी के रूप में मिली शक्तियां कम हो जाती हैं। उनका मान सिर्फ नाम भर का ही रह जाता है। यही कारण है कि फूफाजी फूत्कार अर्थात, फूंफां करते रहते हैं अपने सम्पूर्ण ससुराल-प्रवास के दौरान।
जिन सज्जनों को अभी भी ससुराल में अकूत प्यार-सम्मान मिल रहा है वे इस बात से जरूर नाराज होंगे। उनसे करबद्ध क्षमा याचित है। पर जमाना अब जरा ज्यादा ही बदल गया है। विगत में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं जो इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि अब ससुराल पहले जैसा नहीं रहा। अब फूफा बनने से पहले ही ससुराल में अलग तरह के व्यवहार से दुखी होकर लोग ससुराल तो क्या दुनिया को ही त्याग देने की फिराक में लगे रहते हैं। उनकी स्थिति ऐसी हो जाती है जैसी स्थिति पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश और सीरिया के अपदस्थ राष्ट्रपति की हो जाती है। ससुराल में पत्नी और पत्नी की माता की रंगदारी से त्रस्त व्यक्ति के दिल से सदा निकल ही जाती है, ‘ये दुनिया, ये महफिल मेरे काम की नहीं, मेरे काम की नहीं।’