ब्रेन ट्यूमर अंग शिथिल फिर भी नेट बायें हाथ का खेल
नरेन्द्र जेठी/ निस
नरवाना, 25 दिसंबर
अगर दिल में जज्बा हो तो जिंदगी की हर जंग जीती जा सकती है। कुछ ऐसा ही कर दिखाया है नरवाना के सिद्धार्थ भारद्वाज ने। उन्होंने ब्रेन ट्यूमर जैसी घातक बीमारी को हराकर बुलंद हौसले का परिचय देते हुए एमए अंग्रेजी करते ही अंग्रेजी विषय में राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) भी उत्तीर्ण कर ली है। अध्यापक माता-पिता की इकलौती संतान सिद्धार्थ जब कक्षा नौवीं में थे, तो उन्हें ब्रेन ट्यूमर का पता चला। देखते ही देखते उनके दायें हाथ और पांव ने काम करना बंद कर दिया। जीवन में अंधेरा छा गया। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। परिवार ने होम्योपैथिक इलाज कराने का निर्णय लिया। सिद्धार्थ के पिता संजय भारद्वाज के अनुसार, चंडीगढ़ के डाॅक्टर आरके त्रिगोत्रा उनके जीवन में फरिश्ता बन कर आये। वहीं, नरवाना के एमडी पब्लिक स्कूल और आर्य वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय के शिक्षकों ने पूरा हौसला बढ़ाया। सिद्धार्थ ने बायें हाथ से लिखना शुरू कर दिया और बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में 94 प्रतिशत अंक लाकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। केएम राजकीय महाविद्यालय से 67 प्रतिशत अंकों के साथ बीए की डिग्री हासिल की। यहां शिक्षकों ने न केवल उनका हौसला बढ़ाया, बल्कि मार्गदर्शन भी किया। वह सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी प्रतिगिताओं के भी विजेता रहे। इस समय तक उनकी बीमारी भी पूरी तरह ठीक हो चुकी थी। उन्होंने अंग्रेजी विषय में एमए भी 67 प्रतिशत अंकों के साथ आरके एसडी काॅलेज कैथल से उत्तीर्ण की। इसके साथ ही बिना किसी कोचिंग के नेट की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली।
सिद्धार्थ के पिता संजय भारद्वाज और मां रश्मि भारद्वाज इसे परमात्मा का चमत्कार मानते हैं। सिद्धार्थ अपनी उपलब्धि का श्रेय दादा, दादी, चाचा, चाची, बुआ को देते हैं और कहते हैं कि वह अपने सभी शिक्षकों के सदा ऋणी रहेंगे। डॉक्टर त्रिगोत्रा, प्रोफेसर रमेश और मानव मित्र मंडल को वह अपना रोल मॉडल मानते हैं।
प्रोफेसर बनने की है चाह
सिद्धार्थ कहते हैं कि अब बीमारी को बहुत पीछे छोड़ चुका हूं। परिवार और शिक्षकों ने बीमारी को उन पर हावी नहीं होने दिया। उनका सपना प्रोफेसर बनने का है। वह अंग्रेजी में पीएचडी भी करना चाहते हैं। सिद्धार्थ की माता रश्मि भारद्वाज अंग्रेजी की प्राध्यापिका हैं और पिता संजय भारद्वाज इतिहास के प्राध्यापक हैं। पुत्र की बीमारी के दौरान पांच साल वे मानसिक परेशानियों से गुजरे। वे मानते हैं कि परिवार के सहयोग के साथ-साथ लोगों की दुआओं का असर उन्हें उस हालात से बाहर लाया।