बेघरों का बसेरा
कोई भी ऋतु हो, जब भी मौसम का चरम नजर आता है गरीब को इससे मार खानी पड़ती है। जब ठंड आती है तो शीतलहर से गरीब मरता है। बारिश होती है तो निचले इलाके में रहने वाले गरीब बाढ़ का शिकार होते हैं। गर्मी होती है तो वे लू से मारे जाते हैं। साधनविहीन लोग ही मौसम के चरम का शिकार होते हैं। कायदे से मौसम नहीं, गरीबी मारती है। लेकिन सवाल उठता है कि जनकल्याण के सिद्धांतों पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्या सत्ताधीशों का दायित्व नहीं बनता कि वे राजनीतिक तमाशों से इतर अपनी जनता का ध्यान रखें? एक समय था कि राजा-महाराजा अपनी प्रजा का खुद ख्याल रखते थे। चौराहों पर अलाव जलाने की व्यवस्था होती थी। संवेदनशील राजा बाकायदा वेष बदलकर प्रजा के दुख-दर्द जानने निकलते थे। लेकिन ज्यों-ज्यों लोकतंत्र शिक्षित-विकसित होता गया, सत्ताधीशों की संवदेनशीलता कुंद होती चली गई। तभी शीत ऋतु की दस्तक के साथ ही अदालतों को सरकारों को अपना मूलभूत दायित्व याद दिलाना पड़ता है। बीते वीरवार को भी देश की शीर्ष अदालत ने दिल्ली के शहरी आश्रय बोर्ड यानी डीएएसआईबी को तलब किया कि दिल्ली में फिलहाल कितने आश्रयगृह हैं और वहां कितने लोगों को ठहराया जा सकता है। साथ ही आंकड़ा देने को कहा कि कितने लोग ऐसे हैं जिन्हें आश्रय की जरूरत है। निश्चित रूप से कड़ाके की ठंड में बीमार, लावारिस और मानसिक रूप से परेशान लोगों को संरक्षण देना प्रथम मानवीय कर्तव्य है।
वैसे, अदालत की यह बात तो दिल्ली को लेकर है, लेकिन ऐसे प्रयास पूरे देश में होने चाहिए। कहने को तो राज्यों में स्थानीय निकाय भी रैन बसेरे तैयार करते हैं। लेकिन वे न तो पर्याप्त होते हैं और न ही उनमें पूरी सुविधाएं होती है। रैन बसेरे बना भी लिए जाएं तो वहां सफाई का खास ध्यान नहीं रखा जाता। नशेड़ियों और अपराधियों की सक्रियता से बेसहारा लोग यहां आने से कतराते हैं। निश्चित रूप से रेन बसेरे बनाया जाना सार्थक कदम है, लेकिन उनमें सुविधाओं, सुरक्षा और सफाई को प्राथमिकता के आधार पर देखा जाना चाहिए। इन्हें गंदगी, अराजकता व असुरक्षा से बचाने के लिये स्वयं सेवी संगठनों की सक्रियता की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। कायदे से ये दायित्व सरकारी एजेंसियों का होना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नजर नहीं आता। दरअसल, केंद्र व राज्य सरकारों को निराश्रित लोगों के लिए मौसम के चरम आने पर एक स्थायी ढांचा उपलब्ध कराना चाहिए। जिसे तुरत-फुरत तैयार करके बेसहारा लोगों के लिये उपलब्ध कराया जाए। यूं तो देश में सामाजिक, व धार्मिक संगठन भी रेन बसेरा बनाते हैं,लेकिन यह सिर्फ खबरों की सुर्खियों में आने का जरिया मात्र नहीं होना चाहिए। यह सही मायनों में बेघरों का आश्रय होना चाहिए। साथ ही इनकी सुविधाओं की निगरानी निरंतर होनी चाहिए। दरअसल, इनके उद्घाटन समारोहों का जिस जोर-शोर से प्रचार किया जाता है, वैसा ध्यान इनके निरंतर सुचारु रूप से संचालन में नहीं होता। आज हर घर में ठंड से बचाव का अतिरिक्त सामान होता है। ऐसे ही हर व्यक्ति को मानवता के नाते जरूरतमंद लोगों की मदद करनी चाहिए।