फिल्मी जेल में भी हीरो का जलवा
हेमंत पाल
जेल जीवन पर हिंदी में गंभीर फिल्म इक्का-दुक्का ही बनी! अधिकांश फिल्मों में जेल को फेंसी आइटम की तरह ही दिखाया जाता रहा। कभी नायक को जेल में बंद गुंडे पीटते हैं, कभी वह अपने आपको बेगुनाह साबित करने जेल तोड़कर भाग जाता है। कैदियों को जेल में पत्थर तोड़ते दिखाया जाता है, तो कभी वे कोरस स्वर में गाना गाने लगते हैं। फिल्म इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो जेल जीवन को सबसे पहले 1947 में आई फिल्म ‘जेल यात्रा’ में दिखाया गया था। गजानन जागीरदार के निर्देशन में बनी इस फिल्म में राज कपूर और कामिनी कौशल ने मुख्य भूमिका की थी। ‘जेल यात्रा’ नाम से 1981 में भी एक फिल्म बनी, पर वह ज्यादा सफल नहीं हुई। सोहराब मोदी ने भी ‘जेलर’ नाम से 1958 में फिल्म बनाई, जो उनकी ही 1938 में इसी नाम से बनी फिल्म का रीमेक थी। अब मशहूर अभिनेता रजनीकांत ने अपनी नई फिल्म का नाम ‘जेलर’ रखा है।
कैदियों का सुधार
इसी तरह की एक फिल्म 1957 में वी शांताराम ने ‘दो आंखें बारह हाथ’ बनाई थी। यह फिल्म कैदियों के सुधार पर बनी अभी तक की सबसे अच्छी फिल्म मानी जाती है जो सच्ची घटना पर आधारित थी। अंग्रेजी शासनकाल में पुणे के पास की औंध रियासत में वहां के प्रगतिशील शासक ने एक आयरिश मनोवैज्ञानिक को जेल में बंद खतरनाक अपराधियों को खुली जेल में रखकर उन्हें सुधारने का प्रयोग करने की इजाजत दी थी। वी शांताराम ने उसी घटना को ‘दो आंखें बारह हाथ’ का आधार बनाया।
महिला कैदियों के हालात
जेल को केन्द्र में रखकर हिन्दी सिनेमाकारों ने कुछ क्लासिक फिल्में भी दी हैं। ‘बंदिनी’ (1963 में) बिमल रॉय की अनमोल धरोहर है। इस फिल्म में नूतन और धर्मेन्द्र की भूमिका थी। बिमल रॉय ने ‘बंदिनी’ बनाकर जेल में महिला बंदियों की मानसिक हालत और उनके तन्हाई भरे जीवन की कहानी कही थी।
‘काला पानी’, ‘गंगाजल’
राज खोसला के निर्देशन में 1958 में बनी फिल्म ‘काला पानी’ में देव आनंद एक ऐसी लड़ाई लड़ते हैं, जिसमें एक निरपराध पिता को जेल के सीखचों से निकालने के लिए एक बेटा कानून से लड़ता है। इसी तरह प्रकाश झा की फिल्म ‘गंगाजल’ में भी बिहार की भागलपुर जेल में कैदियों की आंखें फोड़ने वाली सच्ची घटना का चित्रण था। जबकि, संजय दत्त की बायोपिक ‘संजू’ में जेल की गंदगी को घृणित अंदाज़ में दिखाया गया था। सलमान खान भी चार फिल्मों में जेल के सीन कर चुके हैं। 2014 की फिल्म ‘जय हो’ में सलमान को एक नेता को मारने के जुर्म में जेल हो जाती है। ‘बजरंगी भाईजान’ में सलमान को पाकिस्तान की जेल में बंद किया जाता है। फिल्म चोर मचाए शोर, सरबजीत, कैदी, कैदी नंबर 911, हवालात और छोटे मियां-बड़े मियां जैसी कई फ़िल्मों में जेल को दर्शाया गया है।
‘जेल’ में भीड़
2009 में मधुर भंडारकर ने काफी रिसर्च के बाद फिल्म ‘जेल’ बनाई, जो सच के काफी करीब थी। यह कहानी मध्यम वर्ग के उस नौजवान की थी, जो किसी कारण से जेल में फंस जाता है। पूरी कहानी भीड़ भरी जेल में उसके अनुभवों को दिखाते हुए आगे बढ़ती है। 2017 में रंजीत तिवारी के निर्देशन में एक कैदी के जीवन पर सच्ची घटना पर बनी ‘लखनऊ सेंट्रल’ में कैदी की मनोदशा को बारीकी से दिखाने की कोशिश हुई थी। वहीं 2017 में आयी फिल्म डैडी, लखनऊ सेंट्रल और फिर दाऊद इब्राहिम की बहन पर बनी फिल्म ‘हसीना पारकर’ में भी जेलों को फिर से जिज्ञासा का विषय बनाया गया था। साल 1986 में आई सुभाष घई की फिल्म ‘कर्मा’ की मूल कहानी भी जेल पर थी।
फिल्मी कहानियां और हकीकत!
जेल हमेशा ही फिल्मकारों के लिए रोचक व सदाबहार विषय रहा है और दर्शकों के लिए यह रहस्यमय सच है। फिल्मकारों के लिए जेल सदाबहार विषय रहा है। वे इस बात से आश्वस्त रहते हैं कि जेल की कहानी जनता को खींचती है और दर्शकों को भी बांधने में सफल होती है। जेलों के अंदर के हालात को बड़े परदे पर उतारने का एक बड़ा मकसद बॉक्स ऑफिस पर कमाई करना ही रहा है। लेकिन, फिल्म के सेट और असली जेल में बहुत फर्क है। जरूरी नहीं कि ऐसी फिल्में जेल जीवन की वास्तविकता दिखाती हों! इन फिल्मों का मकसद जेल में भी नायक का नायकत्व कायम रखना होता है! यदि ऐसा नहीं होता तो ‘कालिया’ (1981) में अमिताभ बच्चन जेल में ये डायलॉग नहीं बोलते ‘हम जहां खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है। वैसे तो धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक फिल्मों में भी बंदीगृह दिखाने की परंपरा बरसों से रही है। हालांकि अब वो समय भी नहीं रहा, जब लोग फिल्मों से प्रेरणा लेकर कोई अच्छा काम करते थे या खुद बदल जाते थे! अब ऐसा कुछ नहीं होता।