पॉक्सो एक्ट और महिलाओं की सुरक्षा पर सवाल
सरकार को भी मौजूदा कानूनों की समीक्षा करनी चाहिए ताकि इस प्रकार की विवादास्पद व्याख्याओं की कोई गुंजाइश न रहे और यौन अपराधों के पीड़ितों को न्याय मिल सके।
डॉ. सुधीर कुमार
बीते दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा सुनाया गया एक फैसला महिलाओं की सुरक्षा के संबंध में एक गंभीर बहस का केंद्र बन गया है। यह निर्णय ऐसे समय में आया है जब देश में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की संख्या चिंताजनक रूप से बढ़ रही है। इसके प्रति कानूनी समुदाय व नागरिक समाज में तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्र ने कासगंज जिले के एक मामले में कहा कि किसी महिला के स्तनों को पकड़ना, उसके पायजामे की डोरी तोड़ना और उसे पुलिया के नीचे खींचने का प्रयास करना बलात्कार या बलात्कार के प्रयास की श्रेणी में नहीं आता है। यह फैसला पॉक्सो एक्ट के तहत 11 साल की पीड़िता से जुड़े मामले में सुनाया गया था।
न्यायाधीश ने बलात्कार के प्रयास के आरोप को खारिज करते हुए, इसे भारतीय दंड संहिता की धारा 354-बी के तहत “वस्त्र उतारने के इरादे से हमला” और पॉक्सो एक्ट की धारा 9/10 के तहत “गंभीर यौन हमला” माना। न्यायालय का मानना है कि इस मामले में किए गए कृत्य बलात्कार के प्रयास की कानूनी परिभाषा को पूरी तरह से संतुष्ट नहीं करते हैं, लेकिन गंभीर यौन हमले की श्रेणी में आते हैं। इस निर्णय के कानूनी विश्लेषण पर विचार करें तो, यह स्पष्ट होता है कि न्यायालय ने अपराध की तैयारी और वास्तविक प्रयास के बीच स्थापित कानूनी सिद्धांत का पालन करने का प्रयास किया है। भारतीय दंड संहिता के तहत, किसी भी अपराध के लिए केवल ‘प्रयास’ ही दंडनीय है, जबकि केवल ‘तैयारी’ को अपराध नहीं माना जाता है। इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने आरोपियों के खिलाफ पॉक्सो एक्ट की धारा 9/10 के तहत ‘गंभीर यौन हमला’ के अपराध को बरकरार रखा है, जो यह दर्शाता है कि न्यायालय ने कथित अपराध की गंभीरता को पूरी तरह से अनदेखा नहीं किया है। कुछ कानूनी विशेषज्ञ यह तर्क दे सकते हैं कि न्यायालय का कर्तव्य कानून को उसके अक्षरों के अनुसार लागू करना है, भले ही इसके सामाजिक परिणाम विवादास्पद क्यों न हों।
उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने पहले के कई निर्णयों में यौन इरादे से किसी नाबालिग के अंगों को छूने को भी यौन हमला माना है। 19 नवंबर, 2021 के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में बॉम्बे हाईकोर्ट के नागपुर पीठ के एक फैसले को पलटते हुए यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि किसी नाबालिग के यौन अंगों को छूना या यौन इरादे से शारीरिक संपर्क से जुड़ा कोई भी कृत्य पॉक्सो एक्ट की धारा 7 के तहत यौन हमला माना जाएगा, जिसमें इरादे को प्रमुखता दी गई थी। । इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘स्किन से स्किन’ संपर्क की आवश्यकता से अधिक यौन इरादे को महत्व दिया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का वर्तमान निर्णय इस पूर्ववर्ती फैसले से स्पष्ट रूप से भिन्न प्रतीत होता है।
मध्य प्रदेश सरकार बनाम महेंद्र उर्फ गोलू के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बलात्कार के प्रयास के आरोपी की दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए ‘तैयारी’ और ‘प्रयास’ के बीच का अंतर समझाया था, जिसमें यह माना गया था कि अभियुक्त के कृत्य ‘तैयारी’ से आगे बढ़कर अपराध के निकट थे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय इस व्याख्या से भी कुछ हद तक भिन्न प्रतीत होता है। इस अदालती निर्णय का मौजूदा कानूनों पर संभावित प्रभाव भी महत्वपूर्ण है। पॉक्सो एक्ट के संदर्भ में, इस निर्णय से बच्चों को यौन अपराधों से सुरक्षा प्रदान करने के अधिनियम के मूल उद्देश्य पर ही सवाल उठ सकते हैं। यदि इस प्रकार के कृत्यों को बलात्कार के प्रयास के रूप में नहीं माना जाता है, तो यह कानून के प्रभावी कार्यान्वयन को कमजोर कर सकता है। इसी प्रकार, यह निर्णय आईपीसी की धारा 376 (बलात्कार) और धारा 354 (शील भंग करने के इरादे से हमला) के बीच की रेखा को भी धुंधला कर सकता है, खासकर जब यौन उत्पीड़न की गंभीरता का आकलन किया जा रहा हो, परिणामस्वरूप पॉक्सो एक्ट के तहत यौन अपराधों की एक संकुचित व्याख्या हो सकती है, जिससे बच्चों की सुरक्षा का कानूनी ढांचा कमजोर हो सकता है।
इस न्यायिक फैसले के सामाजिक-राजनीतिक परिणाम व्यापक हो सकते हैं। इससे समाज में महिलाओं की सुरक्षा के प्रति गलत संदेश जा सकता है, जिससे यौन अपराधों को गंभीरता से न लेने की प्रवृत्ति बढ़ सकती है। इससे महिला अधिकार कार्यकर्ताओं और नागरिक समाज समूहों के विरोध के सुर मजबूत हो सकते हैं। राजनीतिक स्तर पर, मौजूदा कानूनों में संशोधन या नए कानून बनाने की मांग उठ सकती है, ताकि कानूनी अस्पष्टताओं को दूर किया जा सके और महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। सार्वजनिक विमर्श में मांग उठी है कि सर्वोच्च न्यायालय को इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए ताकि कानूनी स्पष्टता बनी रहे और महिलाओं तथा बच्चों के अधिकारों की प्रभावी ढंग से रक्षा की जा सके। इसके अतिरिक्त, सरकार को भी मौजूदा कानूनों की समीक्षा करनी चाहिए ताकि इस प्रकार की विवादास्पद व्याख्याओं की कोई गुंजाइश न रहे और यौन अपराधों के पीड़ितों को न्याय मिल सके। यह अनिवार्य है कि एक मजबूत कानूनी ढांचा स्थापित किया जाए जो महिलाओं और बच्चों को यौन हिंसा से प्रभावी ढंग से बचा सके।
लेखक कुरुक्षेत्र वि.वि. के विधि विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं।