परीक्षा की कसौटी
आजकल परीक्षा परिणामों का वक्त है। केंद्रीय व राज्य शिक्षा बोर्डों के परीक्षा परिणामों का दौर जारी है। हर साल पुराने शीर्षकों की अखबारों में पुनरावृत्ति होती है। फिर लड़कियों ने बाजी मारी। इस बार भी लड़के पिछड़े। फलां श्रमिक व कामगार का बेटा अव्वल आया। कमोबेश ऐसा हर साल ही दोहराया जाता है। संभव है कभी इन श्रेणियों व प्रतिशत को तय करने का मकसद स्वस्थ प्रतियोगिता विकसित करना रहा होगा। वक्त बदला है, इंटरनेट व मोबाइल संस्कृति के दौर में बच्चे अब सब कुछ फटाफट चाहते हैं। बाजार की शक्तियों ने मुनाफे के हथकंडों से समाज में उम्मीदों का उफान पैदा किया है। अब अपनी क्षमताओं और परिस्थितियों का संज्ञान लिये बिना सफलता फटाफट चाहिए। जब ये आसमानी आकांक्षाएं पूरी नहीं होती तो आत्मघात की राह पर चल पड़ते हैं। यही वजह है कि परीक्षा परिणामों की आपाधापी के बीच दिल्ली से लेकर देश के दूरदराज के इलाकों में आत्महत्या की खबरें आने लगती हैं। इस बार भी आई। देश के कोने-कोने से ऐसी खबरें हर साल आती हैं। लेकिन यह मुद्दा कभी राजनेताओं के लिये चुनावी मुद्दा नहीं बनता। इस स्थिति के लिये समाज भी कम जिम्मेदार नहीं है। ऐसे माता-पिताओं की संख्या भी कम नहीं जो अपने जीवन की असफलता का बोझ बच्चों पर डाल कर अप्रत्याशित की उम्मीद करते हैं। एक स्कूल की एक कक्षा का हर विद्यार्थी अपने में अलग होता है। उसकी शिक्षा ग्रहण करने, लिखने, पढ़ने और गुनने की क्षमता अलग-अलग होती है। जिसमें उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि,परिवेश व परवरिश की अलग से भूमिका होती है। फिर आज के इंटरनेट व मोबाइल संस्कृति के दौर में भटकाव के तमाम खतरे हैं। दरअसल, आज एक छात्र को शिक्षक व अभिभावकों के इतर पढ़ाने वाले तमाम ऐसे माध्यम हैं जो सिर्फ व्यावसायिक उद्देश्य के लिये बच्चों को भ्रमित करते हैं। वहीं स्कूल-कालेजों का स्तर, शिक्षकों की गुणवत्ता और भाषा माध्यम भी फर्क डालता है। केंद्रीय शिक्षा बोर्डों का पाठ्यक्रम, परीक्षा प्रणाली और उदारता पूर्वक नंबर देना, राज्यों के शिक्षा बोर्डों से बिल्कुल भिन्न है।
बहरहाल, हम छात्र-छात्राओं को मानसिक रूप से तैयार नहीं कर पाते कि परीक्षा में कम नंबर लाना और असफल होना जीवन का अंत नहीं है। यह कोशिश न तो अभिभावकों की तरफ से होती नजर आती है और न ही शिक्षकों की तरफ से। निस्संदेह, जीवन एक दरवाजा बंद होने पर संभावना के कई द्वार खोल देता है। हमें याद करना चाहिए कि देश-दुनिया में कई ऐसे छात्र हुए जो परंपरागत शिक्षा माध्यम में कुछ खास नहीं कर पाये,लेकिन जीवन में उन्होंने शिखर की सफलता हासिल की। हमारे सत्ताधीशों को इस दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए कि एनबीसी के आंकड़ों में आत्महत्या करने वालों में छात्रों का प्रतिशत निरंतर बढ़ा है। केवल स्कूल-कॉलेजों के छात्र ही नहीं- आईआईटी, एनआईटी और आईआईएम के छात्रों में भी आत्महत्या करने वालों का प्रतिशत बढ़ा है। हम मंथन करें कि किसी नाकामी को छात्र जीवन का अंत क्यों समझने लगते हैं। यह भी कि क्यों अंकों के प्रतिशत को जीवन का लक्ष्य मान लिया जाता है। जबकि वो तो एक माध्यम मात्र है। हमें उन बच्चों पर ध्यान देने की सख्त जरूरत होती है जो हताशा-निराशा से गुजर रहे होते हैं। देश के नीति-नियंताओं को सोचना चाहिए कि पिछले दिनों दिल्ली में सीबीएसई के नतीजे आने के बाद चार छात्रों ने आत्महत्या कर ली। ऐसी ही खबरें देश के शेष भागों से भी आती हैं। हम छात्रों को समझाने में विफल रहते हैं कि जीवन की कामयाबी सिर्फ प्रतिशत के खेल में निहित नहीं है। यह समस्या कमजोर सामाजिक पृष्ठभूमि वाले बच्चों को ज्यादा झेलनी पड़ती है। जबकि अंतिम रूप से ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता कि किसी को अपना जीवन खत्म करना पड़े। हम व्यवस्थागत दोषों को दूर करने के अलावा उन सामाजिक धारणाओं का भी उन्मूलन करें जो बच्चों में हीन ग्रंथि विकसित करती है। हमें बच्चों को बताना चाहिए कि कोई असफलता ही कालांतर सफलता का नया मार्ग प्रशस्त करती है। जरूरत तो विद्यार्थियों को मानसिक संबल देने की ही है। जिसके लिये बेहतर मनोवैज्ञानिक सलाह भी जरूरी है।