निश्छल समर्पण का सुख
महान दार्शनिक सुकरात यूनान के गांवों का दौरा कर रहे थे उन्हें रास्ते में विभिन्न गांवों के लोग मिले। वे एक गांव में पहुंचे तो वहां अकाल ग्रस्त इलाके के ग्रामीण संसाधनों की कमी से जूझ रहे थे। एक ग्रामीण ने कहा कि महोदय हम सामर्थ्य न होते हुए आसपास के लोगों के लिए मदद जुटा रहे हैं। लेकिन इसके लिए हमें क्या मिलेगा? हम क्यों परेशान हो रहे हैं? तब सुकरात ने पास में कुएं से पानी खींचते हुए कहा कि जिस प्रकार यह रस्सी प्यासों को लगातार पानी पिलाते हुए कुएं की कनेर से रगड़ खाकर घिस जाती है और अंततः टूट जाती है, लेकिन फिर भी अपना ऋषि कर्म नहीं भूलती है। यह प्यासों के लिए समर्पित रहती है। उसी प्रकार वृक्ष अपने फल नहीं खाते, नदी पानी नहीं पीती। लेकिन वे परमार्थ सुख प्राप्त करते हैं। उसी तरह तुम्हें भी दूसरों के लिए निश्छल भाव से स्वयं को अर्पित कर अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। वहां उपस्थित सभी ग्रामीण उनसे प्रेरणा लेते हुए अकाल पीड़ितों की मदद में जुट गए।
प्रस्तुति : संदीप भारद्वाज