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देश के लिए आत्मघाती है मुफ्त की संस्कृति

04:00 AM Jan 16, 2025 IST
देश के लिए आत्मघाती है मुफ्त की संस्कृति
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मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के चुनावों के बाद सबको लगता है कि अगर महिलाओं को लुभाना है, तो उन्हें अधिक पैसे देने की बात कहनी पड़ेगी। ऐसे में न तो कोई यह कहता है कि महिलाओं के करिअर के उत्थान के लिए क्या-क्या करेगा। उनकी नौकरियों के लिए क्या प्राथमिकताएं होंगी। उन्हें कैसे बढ़ाया जाएगा।

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क्षमा शर्मा

इन दिनों दिल्ली में चुनाव का बोलबाला है। लगता है कि चुनाव जैसी सुपरहिट फिल्म सलीम-जावेद की जोड़ी भी नहीं लिख सकती थी। जिसमें ड्रामा हो, इमोशन हो, नारे हों, नाच-गाना हो, गाली-गलौज हो, एक-दूसरे को सबसे बड़ा खलनायक साबित करने की प्रतियोगिता हो।
हर पार्टी अपने को जनता की सबसे बड़ी हितैषी दिखा रही है। इसमें भी तीन सेगमेंट प्रमुख हैं-दलित, पिछड़े और स्त्रियां। बढ़-चढ़कर घोषणाएं की जा रही हैं– ये ले लो, वह ले लो। दलित बच्चों के लिए विदेश में पढ़ने के लिए खास स्काॅलरशिप की घोषणा केजरीवाल ने की है तो स्त्रियों के लिए चुनाव जीतने के बाद इक्कीस सौ रुपये प्रतिमाह देने की घोषणा की जा रही है। स्त्रियों पर सबका फोकस है। कांग्रेस कह रही है कि वह यदि चुनाव जीती, तो महिलाओं को प्रतिमाह पच्चीस सौ रुपये देगी। फ्री-फ्री देने की होड़ लगी है। मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के चुनावों के बाद सबको लगता है कि अगर महिलाओं को लुभाना है, तो उन्हें अधिक पैसे देने की बात कहनी पड़ेगी। ऐसे में न तो कोई यह कहता है कि महिलाओं के करिअर के उत्थान के लिए क्या-क्या करेगा। उनकी नौकरियों के लिए क्या प्राथमिकताएं होंगी। उन्हें कैसे बढ़ाया जाएगा। देशभर की अड़तालीस करोड़ महिला वोटर्स के जीवन में क्या-क्या आफतें हैं, कौन-कौन से आंधी-तूफान झेलकर वे जिंदा रहती हैं, इन पर शायद किसी का ध्यान ही नहीं है।
अपने देश की आबादी एक अरब, चालीस करोड़ है। हो सकता है कि अब कुछ और बढ़ गई हो। इनमें 2024 के आंकड़ों के अनुसार मात्र आठ करोड़, बासठ लाख टैक्स देने वाले हैं। इनमें भी सबसे बड़ी संख्या नौकरीपेशा लोगों की है। आबादी के हिसाब से यह संख्या कितनी मामूली है। कहा जाता है कि देश के विकास के लिए लोगों की आय पर टैक्स लगाया जाता है। जिस तरह से आय बढ़ती जाती है, टैक्स बढ़ता जाता है। लेकिन बड़े उद्योगपतियों पर शायद ये शर्तें लागू नहीं होतीं, क्योंकि माना जाता है कि वे रोजगार का सृजन करते हैं, इसलिए उन्हें अतिरिक्त सुविधाएं दी जाती हैं। यहीं से यह बात सोचनी पड़ती है कि जब आयकर देने वाले इतने कम हैं, तो किस हिसाब से इतने कम संसाधनों में देश का चौतरफा विकास हो सकता है। फिर जो भी विकास होता है उसमें कोई भी आयकर दाता के सहयोग को रेखांकित नहीं करता, बल्कि जिस दल के कार्यकाल में कोई पुल बनता है या कुछ और होता है तो उसका सेहरा वह अपने ही सिर बांधता है।
ऐसे में चुनाव के वक्त मुफ्त यह और मुफ्त वह देने के लिए पैसे कहां से आएंगे, यह कोई नहीं बताता। सरकारें कटोरा लेकर विश्व बैंक और आईएमएफ के सामने खड़ी रहती हैं। और पैसे को तमाम ऐसे कार्यों में लगाने के मुकाबले जहां से लोगों को रोजगार मिल सके, वे आत्मनिर्भर हो सकें, वोट लेने के लिए कुछ न कुछ देने की घोषणाएं करती रहती हैं।
दलों को यह मालूम है कि अपने देश में लोगों का लालच जितना बढ़ाओ, वह बढ़ता ही जाता है। यदि आपने आज एक रुपया बिना कुछ किए दिया है, तो कल जब तक डेढ़ रुपया देने की बात नहीं की जाएगी तो लोग कहेंगे- नया क्या दिया। एक रुपया तो पहले से ही मिल रहा है। फिर एक बार जो सुविधा आप किसी को भी मुफ्त में दे दें, वह उसे अपना अधिकार मान लेता है। कभी उसे वापस नहीं लिया जा सकता। यदि कोई दल ऐसा करने की कोशिश करे, तो चुनाव में उसकी हार पक्की हो जाती है। अब गांवों में बहुत से लोग काम नहीं करना चाहते। उन्हें लगता है कि सरकार मुफ्त में अनाज दे रही है। तरह-तरह की पेंशन मिल रही हैं। लड़कियों की शादी के लिए पैसा मिल रहा है, तो काम क्यों करें। किसी भी देश के विकास के लिए सबसे खतरनाक होता है कि लोगों को लालची बना दिया जाए। उन्हें अपने श्रम के मुकाबले बहुत कुछ मुफ्त में देने का भरोसा दिला दिया जाए। यही अपने देश में हो रहा है।
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने मुफ्त की रेवडि़यों पर तंज कसते हुए कहा था कि राज्य सरकारों के पास फ्री की रेवडि़यां देने को तो बहुत कुछ है, लेकिन जजों की तनख्वाह बढ़ाने के लिए पैसे नहीं हैं। यानी उच्चतम न्यायालय में भी बहुत से न्यायाधीश इसके पक्ष में नहीं हैं। तब क्यों नहीं इस मुफ्तवाद को रोका जाता है।
इस मुफ्त की संस्कृति ने सोवियत संघ जैसी महाशक्ति को उखाड़ फेंका। पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों में समाजवाद खत्म हो गया। वैनेजुएला जैसी तरक्की पसंद आर्थिकी नष्ट हो गई। एक समय में वैनेजुएला दुनिया के अमीर और ताकतवर देशों में गिना जाता था। लेकिन आज वहां बेहद महंगाई है। नौकरियां नहीं हैं। गरीबी बढ़ती जा रही है। मगर हमारे देश के नेताओं ने वोट के लालच में इन देशों की बदहाली से कोई सबक नहीं सीखा। सीखें भी क्यों। जब तक देश डूबेगा, ये तो निकल चुके होंगे।
हमारे शरीर के अंगों के बारे में कहा जाता है कि जिनका इस्तेमाल करना हम छोड़ देते हैं, वे धीरे-धीरे बीमार हो जाते हैं। प्रकृति उनका विकास बंद कर देती है। यही हाल हमारे मस्तिष्क और हाथ-पांवों का है। अगर हम दिमाग का इस्तेमाल कम कर दें, तो धीरे-धीरे दिमाग कुंद हो जाएगा। अगर हम हाथ-पांव से काम करना छोड़ दें, तो एक दिन वे हमारा साथ छोड़ देंगे। परिश्रम का भी यही हाल है। अगर आप मेहनत करना बंद कर दें, तो एक दिन ऐसा आएगा कि कोई काम नहीं कर पाएंगे। यहां तक कि भोजन भी नहीं पचा पाएंगे। तरह-तरह से दिए गए लालच ऐसा ही करते हैं।
अपने देश में तो अरसे से यह कहा जाता है कि नौकरी कौन-सी अच्छी है। अच्छी नौकरी माने वह, जिसमें कुछ काम न करना पड़े और पैसे भरपूर मिलें। पैसे और काम का सम्बंध न जाने क्यों हमारे यहां जोड़ा ही नहीं गया। जबकि देखा जाए तो किसान अगर अपने खेतों में मेहनत न करे तो कुछ नहीं उगा सकता। नई पीढ़ी के वे लोग जिन्होंने अपने परिवार के लोगों को हाड़-तोड़ परिश्रम करते देखा है, उनमें से बहुत से इसलिए काम नहीं करना चाहते, क्योंकि उन्हें लगता है कि जब सरकार सब कुछ यों ही दे रही है, तो क्यों शरीर को कष्ट दिया जाए। वे सरकारें ही अच्छी मानी जाती हैं, जो लोगों से काम करने को नहीं कहतीं, मुफ्त में ही सब कुछ देती रहती हैं। यह एक चिंताजनक स्थिति है। जो लोग काम नहीं कर सकते, बुजुर्ग हैं, जिनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं, असमर्थ हैं, बेरोजगार हैं, सरकारें उनकी मदद जरूर करें, मगर सभी को रेवडि़यां बांटें, यह ठीक नहीं है।

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लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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