दुख हरे प्रेम का विस्तार
प्राचीन काल में सुंदर नगरी की महारानी प्रमोदिनी अपनी इकलौती पुत्री कुसुमलता से अगाध प्रेम करती थी। लेकिन उसका असमय निधन हो गया। महारानी को पुत्री खोने का ऐसा आघात लगा कि वह अपनी सुध-बुध खो बैठी। अपने हृदय का दुख लेकर वह अक्सर श्मशान चली जाती और बेटी की याद में विलाप करती रहती। एक दिन, वहां से गुजर रहे एक संत ने महारानी को पुत्री वियोग में विलाप करते देखा। उन्होंने स्थानीय लोगों से स्त्री के दुख के बारे में पूछा। लोगों ने महारानी के दुख की जानकारी दी। फिर संत विलाप करती महारानी के पास जाकर बोले, ‘बेटी, मृत्यु जीवन का अटल सत्य है। जो आया है, उसे एक दिन जाना ही है। शोक और मोह में डूबे रहने से न तो जाने वाला लौट सकता है और न ही बेटी की आत्मा को शांति मिलेगी। अपनी पुत्री के लिए जो प्रेम तुम्हारे हृदय में था, उसे केवल निजता तक सीमित क्यों रखना? इस प्रेम को विस्तार देकर अपनी प्रजा को समर्पित करो।’ संत के इन शब्दों ने महारानी का हृदय परिवर्तन कर दिया। फिर धीरे-धीरे रानी ने अपने मातृत्व प्रेम को प्रजा के प्रति समर्पित कर दिया।
प्रस्तुति : डॉ. मधुसूदन शर्मा