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दिलों को छूते थे शाद के किरदार

12:35 PM May 20, 2023 IST

भीम राज गर्ग

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पंजाबी सिनेमा को अपने अस्तित्व के तीन दशक बाद हरविंदर सिंह उर्फ़ बूटा सिंह ‘शाद’ के रूप में प्रथम सिख हीरो मिला था। बराड़ प्रोडक्शंस, बॉम्बे की फिल्म ‘कुल्ली यार दी’ (1969), उनके उपन्यास ‘अधी रात पहर दा तड़का’ पर आधारित थी। इस फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर शानदार रिस्पॉन्स मिला और उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनकी अधिकतर फिल्में : कोरा बदन (1974), मित्तर प्यारे नूं (1975) और लाली (1998) स्व-रचित साहित्यिक कृतियों पर केंद्रित थीं।

पंजाबी सिनेमा में अनुपम योगदान

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बूटा सिंह ‘शाद’ एक निर्भीक शख्सियत थे। उनके अनुभवों से जो भी सपने उभरे, वे कालांतर उनकी साहित्यिक रचनाओं और फिल्मों में प्रतिबिंबित हुए। पंजाबी फिल्म उद्योग में कोई भी उनके योगदान, रचनात्मकता और विश्वसनीयता के तुल्य नहीं। दुर्लभ विशिष्टताओं वाले लेखक बूटा सिंह ‘शाद’ ने 24 पंजाबी उपन्यास और छह लघु कथाओं की रचना की, जिन्हें पाठकों का अपार स्नेह मिला।

शिक्षा के बाद लेखन-अध्यापन का दौर

बूटा सिंह बराड़ उर्फ ‘शाद’ का जन्म 12 नवंबर 1943 को गांव दानसिंह वाला (बठिंडा) के एक जट्ट सिख संता सिंह के घर में हुआ था। गांव से मैट्रिक करने के पश्चात उन्होंने राजिंदरा कॉलेज बठिंडा से ग्रेजुएशन किया। बाद में देहरादून से अंग्रेजी (साहित्य) में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की। इसी दौरान ‘शाद’ ने समाचारपत्र/ पत्रिकाओं के लिए कहानियां और उपन्यास भी लिखे। उन्होंने गुरु काशी कॉलेज, तलवंडी साबो सहित कई शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन कार्य किया।

‘कुल्ली यार दी’ से डेब्यू

शिक्षण कैरियर के दौरान उन्हें सिनेमा से लगाव हो गया था। एक लेखक के रूप में उनकी लोकप्रियता, उन्हें स्वप्न-नगरी मुंबई ले आई। एक निर्माता, लेखक और हीरो के रूप में उनकी पहली फिल्म ‘कुल्ली यार दी’ (1969) थी। पंजाबी फिल्म में प्रथम सिख नायक हरविंदर होने का खूब प्रचार-प्रसार किया गया और फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर सफलता अर्जित की। उन्होंने फिल्म में कई नवोदित कलाकारों सरूप परिंदा, मोहम्मद सादिक ‘रामपुरी’, रंजीत कौर और गुरचरण सिंह पोहली को प्रस्तुत किया था। हरिंदर ने हिट धार्मिक फिल्म ‘मित्तर प्यारे नूं’ (1975) में मीना राय के सम्मुख रणजीत सिंह की भूमिका निभाई थी, जबकि फिल्म सच्चा मेरा रूप है (1976) में उन्होंने एक अध्यापक का चरित्र निभाया था। बलबीर टांडा नॉर्वे द्वारा निर्मित पंजाबी फिल्म ‘वैरी’ (1992) में उन्होंने रविंदर मान को नयी नायिका के रूप में पेश किया था।

हिंदी फिल्मों में ‘कोरा बदन’ से एंट्री

अपनी पहली हिंदी फिल्म ‘कोरा बदन’ (1974) में उन्होंने महेश का किरदार निभाया था। प्रस्तोता बलबीर टांडा नार्वे की फिल्म ‘पहला पहला प्यार’ (1994) में तब्बू को बतौर एक नायिका प्रस्तुत किया था। उनकी कुछ महत्वपूर्ण/हिट फिल्में हैं : कोरा बदन, सैदां जोगन(पंजाबी), सच्चा मेरा रूप है(पंजाबी), मित्तर प्यारे नू (पंजाबी), गिद्दा (पंजाबी), निशान, स्मगलर, पहला पहला प्यार, लाली (पंजाबी), हिम्मत और मेहनत, इंसाफ़ की देवी, कसम वर्दी की और जंग ही जंग। उन्होंने पंजाबी फिल्मों में अपनी निर्देशन कला के जौहर भी दिखाए। उन्होंने फिल्म ‘पहला पहला प्यार में’ कैमरामैन मनमोहन सिंह को निर्देशक के रूप में ब्रेक दिया था।

साहित्य सृजन को प्रतिबद्ध

शाद की शुरुआती प्रकाशित कहानी ‘मोरनी’ बहुत लोकप्रिय हुई थी जिसके कारण उन्हें बूटा सिंह ‘शाद’ मोरनीवाला के नाम से भी जाना जाता था। स्वप्नद्रष्टा ‘शाद’ साहित्य सृजन को एक प्रतिबद्ध कार्य मानते थे। उनकी साहित्यिक कृतियों में जीवन की सच्चाई का बेबाक चित्रण किया गया है। उनके उपन्यासों के तेजतर्रार पात्रों का पाठकों से गहरा नाता जुड़ जाता था। पंजाबी उपन्यास लेखकों में, ‘शाद’ का विस्तृत पाठक वर्ग द्वारा प्रदत्त एक विशिष्ट व पृथक अस्तित्व रहा है। बूटा सिंह ‘शाद’ प्रायः अपने लेखन कार्य में डूबे रहते थे। एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि जब भी वे कोई उपन्यास लिखना शुरू करते हैं तो कुछ ही दिनों में उसे पूरा कर देते। उन्होंने अपने चर्चित उपन्यासों ‘कुत्तियां वाले सरदार’ और ‘रोही दा फुल्ल’ को तो केवल चार दिनों में ही लिख डाला था। उनके कुछ पंजाबी उपन्यास हैं : अधी रात पहर दा तड़का, रोही दा फुल्ल, दरिया समुंदरों डूंगे, मेरी मेहंदी दा रंग उदास, मुल्ल विकदा सज्जन। वहीं ‘कुत्तियां वाले सरदार’ उनकी बेहतरीन रचना कही जा सकती है।

सिनेमा से जुड़ी संस्थाओं में भी योगदान

वर्सोवा में समुद्र तट पर स्थित बूटा सिंह ‘शाद’ की कुल्ली (फ्लैट) में बहुत से फ़िल्मी सितारे टीना मुनीम, दिलजीत कौर आदि मेहमान रह चुके हैं। बूटा सिंह ‘शाद’ ने पंजाबी साहित्य के साथ-साथ भारतीय फिल्म उद्योग में भी एक अहम योगदान दिया है। वे एक बार के लिए भारतीय चलचित्र निर्माता संघ (आईएमपीपीए) के उपाध्यक्ष बने और 18 वर्षों तक वे कार्यकारी समिति के सदस्य रहे। उन्होंने 7 वर्षों तक सेंसर बोर्ड के सदस्य के रूप में अपनी सेवाएं प्रदान की। अंतिम दिनों में उन्हें अपने महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट ‘खालसा’ के अधूरा रहने का ग़म सताता रहा। बूटा सिंह ‘शाद’ अंतिम वर्षों में अपने भाई के घर गांव कुम्थलां (ऐलनाबाद) सिरसा, हरियाणा में रह रहे थे, यहीं उन्होंने चंद दिन पूर्व अंतिम सांस ली।

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