त्रिगुणावतार से लेकर 24 गुरुओं तक की यात्रा
दत्तात्रेय जयंती मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है। उन्हें त्रिगुणावतार और गुरु-प्रेमी देवता के रूप में जाना जाता है। दत्तात्रेय के जीवन में विभिन्न तत्वों और जीवों से जो ज्ञान प्राप्त हुआ, उसमें उनके 24 गुरुओं के सिद्धांतों का समावेश था, जो उनके अद्भुत दृष्टिकोण का आधार बने।
चेतनादित्य आलोक
हिंदू पंचांग के अनुसार मार्गशीर्ष महीने की पूर्णिमा तिथि को भगवान दत्तात्रेय का अवतरण होने के कारण प्रत्येक वर्ष इस तिथि को ‘दत्तात्रेय जयंती’ मनाई जाती है। वैसे, दत्तात्रेय जयंती को दत्त जयंती, दत्तात्रेय पूर्णिमा एवं दत्त पूर्णिमा जैसे नामों से भी जाना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान दत्तात्रेय भगवान श्रीहरि विष्णु के कुल 24 अवतारों में से छठे अवतार हैं। ये सप्तऋषियों में से एक महर्षि अत्रि और देवी अनुसूइया के पुत्र हैं। शास्त्रों में देवी अनसूइया को सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता स्त्री बताया गया है। बता दें कि वनवास के दौरान माता सीता ने उनसे मिलकर आशीर्वाद ग्रहण किया था और पातिव्रत्य धर्म की शिक्षा भी ली थी।
संपूर्ण भारत में पूजित
भारत के दक्षिणी राज्यों में निवास करने वाले प्रसिद्ध ‘दत्त संप्रदाय’ के लोग भगवान दत्तात्रेय को ही अपना प्रमुख आराध्य मानकर इनका पूजन-अर्चन, आराधन आदि करते हैं। हालांकि, कर्नाटक के गुलबर्गा के पास स्थित गणगपुर, महाराष्ट्र के कोल्हापुर स्थित नरसिम्हा वाड़ी, काकीनाड़ा के पास आंध्र प्रदेश के पीथापुरम, सांगली, औदुम्बर तथा सौराष्ट्र के गिरनार स्थित भगवान दत्तात्रेय के अत्यंत सुंदर एवं प्रसिद्ध मंदिरों समेत देश भर के सभी सनातनी मंदिरों में इनका जन्मोत्सव बड़ी ही धूम-धाम से मनाया जाता है।
त्रिगुणावतार
भगवान दत्तात्रेय त्रिगुणावतार अर्थात् त्रिदेवों के अंशावतार हैं। इनका जन्म भगवान ब्रह्मा, श्रीविष्णु और महेश यानी शिव के दिव्य स्वरूप से हुआ था। इनमें त्रिदेवों के तीनों रूप समाहित होने के कारण इन्हें ‘कलियुग का देवता’ माना जाता है। गाय और कुत्ते इनकी सवारी हैं। इसीलिए तस्वीर में इनके पीछे एक गाय और आगे चार कुत्ते दिखाई देते हैं। पुराणों के अनुसार इनका स्वरूप तीन मुखों और छह भुजाओं वाला यानी ‘त्रिदेवमय’ है। भगवान दत्तात्रेय के तीन मुख क्रमशः भगवान ब्रह्मा, श्रीहरि विष्णु और शिव के रूपों को दर्शाते हैं। ये अपनी छहों भुजाओं में त्रिदेवों से प्राप्त कमंडल, माला, शंख, चक्र, त्रिशूल और डमरू धारण किए हुए हैं।
भक्त वत्सल
भगवान दत्तात्रेय एक समधर्मी देवता हैं। ये भक्तों पर शीघ्र कृपा करने वाले ‘भक्त वत्सल’ माने जाते हैं। शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार ये भक्तों द्वारा स्मरण करने मात्र से ही प्रसन्न होकर कृपा कर देते हैं। भगवान दत्तात्रेय की इसी महिमा के कारण इन्हें ‘स्मृतिगामी’ एवं ‘स्मृतिमात्रानुगन्ता’ के रूप में भी जाना और पूजा जाता है।
ईश्वर-गुरु रूप समाहित
श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित है कि महर्षि अत्रि द्वारा जगत के पालनहार भगवान श्रीहरि विष्णु को पुत्र के रूप में प्राप्त करने की अभिलाषा प्रकट करने के बाद एक दिन भगवान ने स्वयं प्रकट होकर महर्षि से कहा- ‘मैंने स्वयं को आपको दिया।’ इसी देने के भाव की प्रधानता के कारण ये ‘दत्त’ एवं महर्षि अत्रि के ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण ‘आत्रेय’ यानी ‘दत्तात्रेय’ कहलाए। भगवान दत्तात्रेय में ईश्वर एवं गुरु दोनों रूप समाहित होने के कारण इन्हें ‘श्री गुरुदेवदत्त’ भी कहा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान दत्तात्रेय आजन्म ब्रह्मचारी, अवधूत एवं दिगम्बर रहे। ये अपनी बहुज्ञता के कारण पौराणिक इतिहास में भी विख्यात् हैं। ये सर्वव्यापी तो हैं ही, साथ ही, सिद्धों के परमाचार्य भी हैं।
जिससे सीखा, वो गुरु
भगवान दत्तात्रेय का मानना था कि हमें जीवन में जिस किसी से भी ज्ञान, विवेक अथवा कोई शिक्षा प्राप्त हो, उसे अपना गुरु स्वीकार कर लेना चाहिए। अपने विश्वास को प्रामाणिक स्वरूप प्रदान कर दुनिया भर के लोगों को प्रेरित करने के उद्देश्य से इन्होंने स्वयं जिससे भी जो कुछ सीखा उसे अपने गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया। इस प्रकार, इन्होंने अपने 24 गुरु घोषित रूप में स्वीकार किए, जिनमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, समुद्र, चन्द्रमा एवं सूर्य जैसे आठ प्रकृति के तत्व तथा सर्प, मकड़ी, झींगुर, पतंगा, भौंरा, मधुमक्खी, मछली, कौआ, कबूतर, हिरण, अजगर एवं हाथी सहित 12 जीव-जंतु शामिल हैं। इनके अतिरिक्त बालक, लोहार, कन्या एवं पिंगला नामक वेश्या जैसे विशिष्ट प्राणियों को भी इन्होंने अपना गुरु बनाया। इसी प्रकार दत्तगुरु ने चराचर में मौजूद प्रत्येक वस्तु में ईश्वर के अस्तित्व को देखने के लिए चौबीस गुरु बनाए।
नित्य भ्रमणशील
भगवान दत्तात्रेय आजीवन नित्य-निरंतर भ्रमण करते रहे। ये प्रतिदिन स्नान करने वाराणसी, माथे पर चंदन लगाने प्रयाग और भिक्षा मांगने महाराष्ट्र के कोल्हापुर जाते थे। इसी प्रकार, पान ग्रहण करने महाराष्ट्र के मराठवाड़ा जिलांतर्गत राक्षसभुवन तथा प्रवचन और कीर्तन करने बिहार के नैमिषारण्य जाते थे। वहीं, रात्रि में शयन करने ये माहुरगढ़ और योग करने गिरनार जाते। इनके कंधे पर सदैव ही एक झोली रहती थी, जिसमें ये भिक्षा मांगकर इकट्ठा करते जाते थे। दरअसल, दत्त संप्रदाय में झोली को मधुमक्खी का प्रतीक मानते हैं। जिस प्रकार, मधुमक्खियां एक जगह से दूसरी जगह जा-जाकर शहद इकट्ठा करती हैं, वैसे ही दत्त संन्यासी घर-घर जाकर भिक्षा मांगकर झोली में इकट्ठा करते हैं।
जयंती का महत्व
भगवान दत्तात्रेय जयंती से सात दिन पहले ‘श्री गुरुचरित्र’ का पाठ एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान होता है, जो उत्सव के शुरू होने का प्रतीक है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को जन्मोत्सव का आयोजन भक्तगण प्रायः आनंद के वातावरण में करते हैं। मान्यता है कि इस दिन पृथ्वी पर ‘दत्त तत्व’ सामान्य से 1000 गुना अधिक कार्यरत रहने के कारण भगवान दत्तात्रेय की उपासनादि करने से सर्वाधिक लाभ मिलता है। इस अवसर पर कहीं-कहीं दत्त-यज्ञ का आयोजन भी किया जाता है। जन्मोत्सव में ‘श्री गुरुदेव दत्त’ का अधिक-से-अधिक जप करना चाहिए। मार्गशीर्ष महीने की पूर्णिमा को भगवान दत्तात्रेय के निमित्त व्रत रखने एवं उनके दर्शन, पूजन-अर्चन आदि करने से भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और संकट शीघ्र दूर हो जाते हैं। विशेष रूप से विद्यार्थियों के लिए ‘श्रीदत्तात्रेय कवच’ का पाठ तथा ‘दत्त’ नाम का जाप करना अत्यंत लाभकारी माना गया है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार दत्तात्रेय भगवान गंगा स्नान के लिए आए थे, इसलिए गंगा के तट पर ‘दत्त पादुका’ की पूजा की जाती है।