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ताकि नोट अग्नि व शस्त्रों से सुरक्षित रहें

04:00 AM Mar 27, 2025 IST
ताकि नोट अग्नि व शस्त्रों से सुरक्षित रहें
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ऋषभ जैन

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अफसर सिंह ने कहा, तेरी ऊंची शान है मौला मेरी मर्जी मान ले मौला मुझ को भी तो लिफ्ट करा दे, ढेर सारे नोट दिला दे। प्रार्थना मंजूर हुई। अफसर सिंह का घर नोटों से भर गया। तिजोरी में नोट, सोफे के अंदर नोट, पलंग में नोट। हर कहीं नोट ही नोट। एक दिन अफसर सिंह के घर छापा पड़ गया। अफसर सिंह दुखी भये पर क्या करते। जो मांगा था वो तो दिया था भगवान जी ने।
साहब चंद ने अफसर सिंह की गलती पकड़ ली। उसने मांगा, हे भगवान! न केवल ढेर सारे नोट देना बल्कि उन्हें ठिकाने भी आप ही लगवाना। नौकरी भी ऐसी देना कि छापा-वापा डालने पर रोक रहे। साहब चंद की इच्छा भी पूरी होना शुरू हुई। उनके घर भी नोटों की बारिश होने लगी। कमरे के कमरे भर गये नोटों से। एक दिन अचानक घर में आग लग गयी। फायर ब्रिगेेड वाले आये तो असल आग तो फैलने से थम गयी, पर नोटों के समुंदर की खबर आग की तरह फैल गयी। फिर होना क्या था, साहब चंद के नोट जब्त हो गये, ट्रांसफर हो गया और जांच बैठ गयी सो अलग। साहब चंद बहुत दुखी हुए। उन्होंने भगवान से कहा आपने मेरे साथ धोखा किया? मैंने तो नोटों को ठिकाने लगाने का वरदान भी मांगा था। भगवान ने कहा ठिकाने ही तो लगा रहा था। तूने फायर ब्रिगेड काहे बुलाई?
देश के सारे अफसर सिंह, साहब चंद, हाकिम कुमार इन घटनाओं से चिंतित हुए। उन्होंने सम्मिलित प्रार्थना की। हे ईश्वर! नोट तो दबा के चाहिए हमें। अनुरोध यह है कि वे सभी नैनं छिंदंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावक: के साथ-साथ नैनं छिनंति छापा: के गुणधर्म वाले होने चाहिए। यानी उनके अर्जित नोटों को कोई आग जला न सके, कोई तलवार से लूट न सके और कोई छापा छीन न सके।
भगवान को बात कुछ सुनी-सुनी सी लगी। फिर उन्हें स्मरण आया, ऐसा कुछ तो उन्होंने द्वापरयुग में आत्मा के विषय में बताया था। ‘ओह, तो ये लोग अपनी अंतरात्मा को नोटों से एक्सचेंज करने के चक्कर में हैं’, उन्हें पूरी बात समझ आयी। बेचारी अंतरात्मा। अगले महाभारत में कोई अर्जुन पूछेगा तो छिंदंति नोटाणि- दहति नोटाणि भी जोड़ना होगा आत्मा के बारे में यानी हे पार्थ‍! शस्त्र, अग्नि से बाल-बांका नहीं होता पर नोटों से मरती देखी गयी हैं अंतरात्माएं।‌ भगवान विचलित थे ये सोचते। लेकिन ऐसे प्रवचनों की नौबत आई ही नहीं उसके बाद। महाभारत तो आगे भी खूब हुए पर दुर्योधन और दुर्योधन के बीच। अब न कोई अर्जुन था न कोई ‘न कांक्षे विजयं कृष्ण...’ पूछता था। सब की आकांक्षा बस एक थी- नोट।

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