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ट्रंप काल में बढ़ेगी चीन की वैश्विक भूमिका

04:00 AM Jan 18, 2025 IST
ट्रंप काल में बढ़ेगी चीन की वैश्विक भूमिका
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भू-राजनीति सदा ही सत्ता को लेकर रही है, लेकिन अब यह नियमों से बेलगाम हुई सत्ता विस्तार में बदलने लगी है। यह बात दक्षिण चीन सागर, गाजा का नरसंहार, तिब्बत में ब्रह्मपुत्र के ऊपर एक विशाल नया बांध और तीसरी दुनिया के सीधे संघर्ष से बचने वाले देशों को प्रभावित करने वाले आर्थिक प्रतिबंधों के मामले में एकदम सच दिखाई देती है।

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टीएन निनान

अब जबकि डोनाल्ड ट्रंप एक बार फिर अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में पदभार ग्रहण करने जा रहे हैं, ऐसे में दुनिया मौलिक परिवर्तन के बीच फंस गई है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे शक्तिशाली देश भी अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता सीमित बनाए रखने के लिए तैयार थे, जिसमें वे अधिकांशतः वैश्विक नियमों और सहकारी कार्रवाई का पालन करने के लिए सहमत थे। ऐसे नियम कई विषयों पर बनाए गए थे। केवल व्यापार और शुल्क ही नहीं, बल्कि परमाणु अस्त्र, समुद्रीय कानून और राष्ट्रीय सीमाओं की पवित्रता पर भी।
आज दो कारणों से यह बदलने लगा है। पहला है चीन का उद‍्भव और उसके साथ-साथ हो रहा वैश्विक शक्ति संतुलन में बदलाव। चीन कोई यथास्थितिवादी शक्ति नहीं है, इसलिए वह उलट-फेर कर चीजों को बदलना चाहता है और अमेरिका को चुनौती देने को बेकरार है। दूसरा है शक्ति-संपन्न राष्ट्रों में शासकों के रूप में अधियानक बनने पर उतारू लोगों का उदय : व्लादिमीर पुतिन, शी जिनपिंग और अब डोनाल्ड ट्रम्प।
इन दो घटनाक्रमों ने कुछ ऐसा फिर से जिंदा कर दिया है जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद लगभग मर चुका था, यानी महाशक्तियों द्वारा किए गए युद्ध, जिनका उद्देश्य नया इलाका हासिल करना है। इराक पर अमेरिकी युद्ध एक तरह से पूर्व-चेतावनी थी। तीन साल पहले पुतिन ने यूक्रेन पर चढ़ाई कर दी। ऐसा लगता है कि शी जिनपिंग ताइवान पर चीनी हमले की तैयारी कर रहे हैं। अब ट्रंप पनामा नहर और ग्रीनलैंड को हासिल करने के लिए बल प्रयोग की धमकी दे रहे हैं।
अब बहुपक्षीय कार्रवाई करने की बजाय एकतरफा अभियान को प्राथमिकता दी जाने लगी है। संयुक्त राष्ट्र और विश्व व्यापार संगठन की घटती भूमिका एवं उपयोगिता के बीच जलवायु परिवर्तन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए निर्धारित कार्रवाइयों का सिरे न चढ़ना चिंतनीय है। भू-राजनीति सदा ही सत्ता को लेकर रही है, लेकिन अब यह नियमों से बेलगाम हुई सत्ता विस्तार में बदलने लगी है। यह बात दक्षिण चीन सागर, गाजा का नरसंहार, तिब्बत में ब्रह्मपुत्र के ऊपर एक विशाल नया बांध और तीसरी दुनिया के सीधे संघर्ष से बचने वाले देशों को प्रभावित करने वाले आर्थिक प्रतिबंधों के मामले में एकदम सच दिखाई देती है।
इस सबके मूल में मानसिकता में आया बदलाव है, जो परस्पर निर्भरता और व्यापारिक नेटवर्क को लाभप्रद रूप में न देखकर इन्हें कमजोरी के तौर पर लेती है। इसलिए हम आधी सदी से भी ज़्यादा पुरानी व्यापार उदारीकरण की परंपरा से परे हटते दिख रहे हैं। इसके लिए, वैश्वीकरण गया भाड़ में, ‘सबसे पहले मेरे देश का हित’ वाली नीति अपनाना है। नेटवर्क वाली अर्थव्यवस्था छोड़ दो, आत्मनिर्भरता अपनाओ। मंडी के फायदे से बाहर निकलो, राष्ट्रीय व्यापारिक सुरक्षा पहले। कोई एक सदी पहले, जब इस सूत्र को आजमाया गया था, तो यह तरीका कारगर साबित नहीं हुआ था, लेकिन लगता नहीं कि इतिहास से मिले सबक बहुत ज़्यादा देर तक असरदार रहे।
शायद सबसे महत्वपूर्ण बदलाव यह है कि अतीत में नियम-निर्माण का बहुत बड़ा स्रोत यानी संयुक्त राज्य अमेरिका, अब धरती का सबसे अविश्वसनीय देश बन गया है। फाइनेंशियल टाइम्स के एक स्तंभकार ने अपने लेख में पूछा है ः ‘क्या अमेरिका एक बेलगाम देश बन गया है’। कोई नहीं जानता कि यह आगे क्या करने जा रहा है, और तो और इसके सहयोगी भी नहीं। यह सब दुनिया को कहीं ज़्यादा अशांत जगह बनाएगा, जहां पहले से बहुत सी अनिश्चितताएं और जोखिम व्याप्त हैं।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से जो सहकारी एजेंडे बनाए गए थे, वे पश्चिमी प्रतिमान की प्रधानता के कारण संभव हुए थे। ये कानून एवं समझौते पहले से मौजूद सत्ता संरचनाओं को दर्शाते थे और जिन्हें युद्ध से उभरे सबसे शक्तिशाली देश द्वारा लागू किया गया थे। अगर यह विश्व व्यवस्था, जैसा कि बताया जा रहा है, यदि अब टूट रही है, तो हमें मूल कारण पर वापस जाना होगा : चीन के उदय से पश्चिम के लिए बनता खतरा, एक अभूतपूर्व गति और पैमाने पर। पश्चिमी प्रतिक्रिया - इस धारणा से प्रेरित है कि चीन ने स्वीकृत व्यापार नियमों का पालन नहीं किया, पश्चिम के औद्योगिकीकरण को नुकसान पहुंचाने के लिए व्यवस्थित रूप से काम किया। पश्चिमी प्रौद्योगिकियों को भी चुराया है– लिहाजा उस पर व्यापार प्रतिबंध, बढ़ाया टैरिफ, प्रौद्योगिकी तकनीक देने से इनकार इत्यादि अनेक अन्य उपाय किए जाएं।
लेकिन शायद यह करने में बहुत देर कर दी। चीन की औद्योगिक श्रेष्ठता को कोई चुनौती नहीं दे पाएगा। पिछले साल इसने अमेरिका से 12.6 गुणा अधिक स्टील, 22 गुणा अधिक सीमेंट और तीन गुणा अधिक कारें बनाईं- जिनके इलेक्ट्रिक मॉडलों के साथ यह अब कार बाजार में जापानी और जर्मनी के वर्चस्व को पछाड़ने की हैसियत में आ चुका है। सकल वैश्विक जलपोत उत्पादन में चीनी शिपयार्ड का हिस्सा आधे से अधिक है। 2030 तक, चीन का विनिर्माण क्षेत्र समूची पश्चिमी दुनिया के कुल उत्पादन से अधिक होने का अनुमान है।
ये शक्तियां केवल तभी तक उपयोगी हैं यदि चीन अपनी पहुंच विश्व बाजारों तक जारी रख पाए, जिसे घटाने की उत्तरोत्तर कोशिशें की जा रही हैं। फिर भी चीन ने 2024 में रिकॉर्ड व्यापार अधिशेष का आनंद लिया, और ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था बनने के कगार पर है। कुछ क्षेत्रों में यह तकनीक के मामले में पश्चिमी मुल्कों से आगे निकल गया है। लेकिन अब चीनी अर्थव्यवस्था को गंभीर ढांचागत समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
वास्तविकता जिससे निपटा जाना चाहिए वह यह है कि पश्चिम मुल्क जितना अधिक खतरा महसूस कर रहे हैं, उतनी ही जल्दी वे अपने उन नियमों को तज रहे हैं जिनका इस्तेमाल कर उन्होंने कभी खेल किया था। नई दुनिया में, हर देश अपने हित पर केंद्रित है, और इसके लिए शक्ति प्रयोग जायज मानता है। हकीकत है कि हर देश अपना रक्षा बजट बढ़ा रहा है, हम उम्मीद करें कि इससे संघर्ष न बढ़े। भले ही इसे टाला जा सकता है, लेकिन पुरानी दुनिया वापस नहीं आएगी। लेकिन क्या नई दुनिया नए नियमों के लिए सहमत हो सकती है?
जिस प्रकार चीज़ें चल रही हैं, इससे पहले कि मुल्क वार्ता के लिए राज़ी हों, वैश्विक शक्ति धुरी में बदलाव के लिए खेल होकर रहेगा– तब जाकर, महाशक्तियां आक्रामकता या आक्रामक मुद्रा के माध्यम से अपनी-अपनी हदों की आजमाइश करेंगी। एक नया तरीका निकलकर आ सकता है। यह यदि यह मान भी लिया जाए कि पश्चिमी प्रशांत महासागरीय क्षेत्र से चीन अमेरिका को पछाड़ने में कामयाब हो जाए, तो भी उसे पूरी तरह वहां से खदेड़ नहीं पाएगा, और रूस को वह मिल जाएगा जो वह चाहता है : अपने प्रभुत्व क्षेत्र वाला आसपास का इलाका। यह एक स्थिर व्यवस्था होगी या नहीं, यह इन मुख्य प्रश्नों के उत्तरों पर निर्भर करेगा : मौजूदा शासकों की जगह कौन लेगा, क्या महाशक्तियां जीने और जीने देने के सिद्धांत पर सहमत होंगी और मध्यम दर्जे की शक्तियों की भूमिका क्या रहेगी।
हमें सुरक्षा परिषद जैसी वर्तमान वैश्विक संस्थाओं में सुधार पर ध्यान देना होगा। आदर्श रूप से, परिषद को वीटो को समाप्त कर देना चाहिए और यूरोपीय संघ और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक में प्रचलित मतदान आधारित व्यवस्था को अपनाना चाहिए। इससे आज के वीटो शक्ति संपन्न मुल्क अंतर्राष्ट्रीय राय के प्रति अधिक संवेदनशील बनेंगे। व्यापार जगत में, बुरी तरह हावी वैश्विक व्यापार नियमों की तुलना में बहुपक्षीय व्यवस्थाएं बनने की संभावना तब अधिक होगी। अफ्रीकी महाद्वीप के गरीब देशों के लिए वैश्विक समझौता जरूरी है। चाहे तो, इस मामले में मध्यम दर्जे की शक्तियां कतर से सीख ले सकती हैं और चीजों में सुधार लाने को मध्यस्थता की भूमिका निभा सकती हैं।

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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