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जलवायु बदलावों की गति थामने को जरूरी गंभीर पहल

04:00 AM Dec 10, 2024 IST
जलवायु बदलावों की गति थामने को जरूरी गंभीर पहल
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अभिषेक कुमार सिंह

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दुनिया में ऐसा मानने वाले बहुत लोग हैं कि जलवायु परिवर्तन यानी क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वॉर्मिंग सिर्फ हवा-हवाई बातें हैं। इनका हौवा खड़ा करके कुछ पर्यावरणवादी संगठन और गरीब देश धन ऐंठते हैं। हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए दोबारा निर्वाचित डोनाल्ड ट्रंप तो ऐसे ही तर्क देकर जलवायु परिवर्तन थामने वाली पेरिस संधि से बाहर भी हो चुके हैं। इसके अलावा कुछ लोग मानते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग का कई बार सकारात्मक असर भी होता है। इसका एक उदाहरण उत्तराखंड में सामने आया, जहां तेजी से बढ़ते एक हिमनद यानी ग्लेशियर का पता चला है। भारत-चीन सीमा के नजदीक नीति घाटी में पाया गया यह हिमनद 48 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला है। हाल तक उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और सिक्किम आदि में हिमनदों के पिघलने, सिकुड़ने और गायब हो जाने की खबरें आती रही हैं। तेजी से बढ़ते ग्लेशियर की सूचना से जलवायु परिवर्तन से जुड़े वे सवाल फिर उठ खड़े हुए हैं कि कहीं सच में ऐसी आपदाओं का फर्जी डर तो नहीं दिखाया जा रहा है। या फिर नुकसान करने की बजाय यह परिवर्तन पृथ्वी के वातावरण में संतुलन बनाने के लिए तो नहीं होता है।
उत्तराखंड में सामने आए हिमनद का पता देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों ने उपग्रही आंकड़ों और अन्य तकनीकों के जरिए लगाया है। क्या ऐसा जलवायु परिवर्तन के सकारात्मक प्रभावों से हुआ है- इसके जवाब में इन भूवैज्ञानिकों का मत है कि यह विचित्र घटना पर्यावरणीय असंतुलन यानी हाइड्रोलॉजिकल इंबैलेंस का परिणाम है जिसकी वजह से बर्फ की परतें कमजोर हो जाती हैं और वे अस्थिर होकर बड़े इलाके में फैल जाती हैं। बाढ़, सूखे, चक्रवात, भीषण गर्मी या सर्दी समेत तमाम तरह के मौसमी असंतुलन भी जलवायु परिवर्तन की अराजकताओं के नतीजे में पैदा होते हैं। बीते वर्षों में भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर कई यूरोपीय देशों ने जैसी भीषण गर्मी और बाढ़ की त्रासदियां झेली हैं, उनमें यह असंतुलन दिखाई दे रहा है। इन्हीं घटनाओं के मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुतारेस बयान दे चुके हैं कि हमारी पृथ्वी गंभीर किस्म की जलवायु अराजकता की ओर बढ़ रही है।
जलवायु संकटों पर निगाह डालें तो बीते कुछ वर्षों में दुनिया में काफी उथल-पुथल हो गई। हाल के चार वर्षों में कोरोना वायरस के कारण लगे प्रतिबंधों का धरती की जलवायु पर सकारात्मक असर हुआ था। तब उम्मीद की जाने लगी थी कि इन सार्थक तब्दीलियों से सबक लेते हुए पटरी पर लौट रही अर्थव्यवस्थाएं विकास का ऐसा रास्ता चुनेंगी, जिसमें धरती के सुंदर भविष्य की परिकल्पनाएं साकार हो जाएंगी। लेकिन पहले तो अमेरिका-चीन के बीच तनातनी ने माहौल बिगाड़ा व बाद में रूस-यूक्रेन जंग ने। विशेषज्ञों का दावा है कि पिछले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (ग्लासगो) में जिन बातों को लेकर सहमति बनी थी, उन्हीं की दिशा में बहुत धीमी प्रगति हुई। दूसरी वजह वित्तीय संकट और ऊर्जा के वैश्विक विकल्पों के सीमित होने की घटनाओं से बनी। ये घटनाएं न होतीं तो संभवतः जलवायु परिवर्तन लक्ष्य हासिल करने की राह आसान होती।
विकास बनाम पर्यावरण संकट के रिश्तों की बात करें तो तय है, जैसी धरती हमें सदियों पहले मिली थी, वह हमेशा वैसी नहीं रह सकती। विकास की कुछ कीमत पर्यावरण को अदा करनी ही थी। लेकिन धरती और इसकी आबोहवा औद्योगिक क्रांति के डेढ़ सौ बरस में ही इतना ज्यादा बदल गयी कि वैसा कुछ पृथ्वी पर जीवन के विकास के हजारों साल में कभी नहीं हुआ। चार दशक पहले जिनेवा मेंआयोजित पहले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन से मिलती है, जिसमें जुटे विज्ञानियों ने पहली बार जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहे मौसमी बदलावों पर औपचारिक रूप से चिंता जताई थी। हाल के वर्षों में जलवायु विशेषज्ञ कह रहे हैं कि अब अगर जल्द ही जलवायु परिवर्तन से निपटने की कोई ठोस कार्ययोजना नहीं बनाई गई तो इंसान नामक प्रजाति के विलुप्त होने का खतरा हो सकता है क्योंकि क्लाइमेट इमरजेंसी का वक्त आ पहुंचा है। इसका अंदाजा वर्ष 2022 में पाकिस्तान में विनाशकारी बाढ़ व यूरोप के कई देशों में ऐतिहासिक गर्मी पड़ने से नदियों के सूखने से लगता है। जलवायु परिवर्तनों के बदलावों को कई वैज्ञानिक अध्ययनों में दर्ज किया गया है।
ब्रिटेन विश्व में ऐसा पहला देश है जिसने पांच साल पहले 1 मई, 2019 को लंदन में हुए एक आंदोलन के बाद प्रस्ताव पारित करते हुए देश में सांकेतिक तौर पर जलवायु आपातकाल घोषित किया था। मई 2019 में ही आयरलैंड ऐसा करने वाला दूसरा देश बना था जिसकी संसद ने ‘जलवायु आपातकाल’ घोषित कर दिया था। साथ ही संसद से आह्वान किया था कि आयरिश सरकार जांच करके पता लगाए कि उसकी कौन सी नीतियों के कारण जैव-विवधता को नुकसान पहुंच रहा है और भरपाई के लिए क्या बदलाव किए जाएं। जलवायु आपातकाल लगाने के फैसले के पीछे लंदन में हुए जिस आंदोलन की भूमिका है, उसे वहां जिस समूह ने चलाया था उसका लक्ष्य साल 2025 तक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन सीमा शून्य पर लाने और जैवविविधता के नुकसान को समाप्त करना है। दरअसल पृथ्वी का हम इंसानों ने बेदर्दी से दोहन किया है। रिपोर्टों के मुताबिक, पृथ्वी के वायुमंडल में पहले से ज्यादा जहरीली गैसें और गर्मी घुल गई है। कोई अपवाद छोड़ दें तो इस गर्मी के चलते गंगोत्री और अंटार्कटिका जैसे ग्लेशियर तेजी से पिछल रहे हैं। तितलियों, मधुमक्खियों, मेंढक व मछली प्रजातियों, चिड़ियों, दुर्लभ सरीसृपों और अन्य जीव-जंतुओं की सैकड़ों किस्में हमेशा के लिए विलुप्त हो गई हैं। जंगल खत्म हो गए हैं, पानी का अकाल पड़ रहा है। कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों की मात्रा काफी ज्यादा बढ़ गई है जिससे सांस लेना दूभर हो गया है। नदियों से भी आस टूट रही है। नदियों के अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है।
चार-पांच दशकों में धरती की सेहत में कोई सुधार नहीं हुआ, जबकि आह्वान कई बार किए जा चुके हैं। अरबों-खरबों के खर्च के बावजूद वे कोशिशें रंग लाती नहीं दिखीं, जिन पर अमल होने से धरती माता के स्वास्थ्य में उल्लेखनीय सुधार आ जाना चाहिए था।

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