For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

जरूरत है मृत्युदंड पर पुनर्विचार की

04:00 AM Jan 04, 2025 IST
जरूरत है मृत्युदंड पर पुनर्विचार की
USA-EXECUTIONS/
Advertisement

हमारे यहां व्यवस्था को सुधारने के बजाय मृत्युदंड और ज्यादा देने की मांग की जा रही है। देशभर की अदालतों को आपराधिक मामलों में सुनवाई और अपीलों के निपटारे में तेजी लाने की जरूरत है ताकि फैसले पर जल्दी पहुंचा जा सके। तभी जघन्य अपराध करने वालों को यह संदेश मिलेगा कि उन्हें सजा जल्द मिल जाएगी।

Advertisement

न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर

Advertisement

यमन में मृत्युदंड की सज़ा सुनाई भारतीय महिला को बचाने के यत्नों के दौरान हमें यह सोचना चाहिए कि क्या हम को कठोरतम दंड यानी फांसी की सजा देना जारी रखना चाहिए। निमिशा प्रिया नामक नर्स को हत्या का दोषी पाया गया है। उस पर इल्जाम है कि उसने कथित तौर पर पीड़ित (जो कि उसे जानता था) को जेल में मुलाकात के दौरान नशे का इंजेक्शन लगाया था। उसके मृत्यु दंड को रोकने के प्रयास अब तक विफल रहे हैं। एक अंतिम मौका यही बचा था कि मृतक के परिवार को ‘खून की कीमत’ की पेशकश करना और माफी मांगना। ‘खून-माफी’ की यह राशि 40,000 डॉलर (लगभग 34 लाख रुपये) आंकी गई है। यह रकम पूरी तो नहीं लेकिन इसका बड़ा हिस्सा नर्स के परिवार द्वारा एक वकील के पास जमा करवा दिया गया है। ऐसा लगता है कि वित्तीय मुआवजे की पेशकश को मान लिया गया है। अब केवल क्षमा-दान का बेसब्री से इंतजार है। हमारी सरकार परिवार की सहायता के लिए हर संभव प्रयास कर रही है।
पर हम तो हमेशा से यही कहते आए हैं कि ‘कानून को अपना काम करने दें’, और इस महिला के मामले में भी यही लागू है। तो फिर हमारी सरकार उसकी मौत की सजा टालने के लिए मदद क्यों कर रही है? क्या इसलिए कि सरकार का मानना है कि वह दोषी नहीं है या उसे निष्पक्ष सुनवाई नहीं मिली? क्या इसलिए कि वह एक भारतीय है और सरकार एक भारतीय नागरिक की जान बचाने के लिए हरसंभव प्रयास करेगी? क्या इसलिए कि सरकार को लगता है कि सज़ा बहुत कठोर है? कारण चाहे जो भी हो, मदद प्रदान करने के लिए सरकार की सराहना की जानी चाहिए।
लेकिन इस मामले से सरकार को हमारी कानून की किताबों में मृत्युदंड की आवश्यकता पर विचार करना बनता है। आखिरकार, जब हम किसी व्यक्ति को फांसी देते हैं, तब भी तो हम एक भारतीय नागरिक की जान ले रहे होते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उस भारतीय को हमारे अपने देश में फांसी दी जाए या विदेशी धरती पर। यह भी सच है कि हमारी अदालतें मृत्युदंड देने में सतर्क और बेहद सावधान रहती हैं -वे ऐसा दुर्लभतम मामलों में ही करती हैं। लेकिन क्या अभियोजन पक्ष के लिए मृत्युदंड की मांग करने से बचना उचित नहीं होगा? किसी व्यक्ति को फांसी देने से क्या उद्देश्य पूरा हो जाता है?
मृत्युदंड पर चर्चा करने पर सामान्य उत्तर यही आता है कि जघन्यतम अपराधों के विरुद्ध ऐसा एक निवारक डर होना जरूरी है। दुर्भाग्य से, इस तर्क का समर्थन करने के पक्ष में कोई सुबूत नहीं है। अमेरिका में मृत्युदंड की सज़ा सुनाए गए लोगों की संख्या बहुत ज़्यादा है, उनमें से बहुत बड़ी संख्या का मृत्युदंड क्रियान्वित किया भी जाता है। लेकिन क्या इससे वहां के स्कूलों में हत्या करने या सामूहिक गोलीबारी करने या हाल ही में न्यू ऑरलियन्स में हुए नरसंहार जैसे अपराध होना रुक गए?
दूसरी ओर, ऐसा लगता है कि जिन मुल्कों में मृत्युदंड का प्रावधान हटाया गया है, वहां जघन्य अपराधों के मामलों में वृद्धि नहीं हुई है। फ्रांस ने 1981 में यह विकल्प चुना था, चार दशक से अधिक समय बीतने के बाद, इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि वहां जघन्य जुर्म की संख्या बढ़ी है। जिम्बाब्वे, जिसने पिछले साल दिसंबर में मृत्युदंड पर रोक लगाने के लिए संयुक्त राष्ट्र में पेश हुए प्रस्ताव पर मतदान में अनुपस्थिति दर्ज करवाई थी, ने भी मृत्युदंड को समाप्त कर दिया है। अब देखना यह है कि इस निर्णय का प्रभाव क्या रहेगा।
हमारे देश में प्रति वर्ष बलात्कार और हत्या के हज़ारों मामले दर्ज किए जाते हैं। हमारे यहां आतंकवादी हमलों के भी अनेक मामले हैं। मेरा मानना है कि जघन्य अपराधों से जुड़े इन तमाम मामलों में यदि जांच प्रक्रिया तेजी से पूरी कर ली जाए और एक साल के अंदर मुकदमे की सुनवाई पूरी हो जाए, तो काफी हद तक न्याय मिल जाएगा। इसके वास्ते, जहां हमारी पुलिस को अपराधों की जांच करने के लिए उच्च प्रशिक्षित होने की जरूरत है वहीं हमारे अभियोजन पक्ष और अभियोजकों को भी ठोस और वैज्ञानिक सुबूतों से पूरी तरह लैस होना होगा।
हाल ही में एक अखबार में छपी एक खबर के अनुसार एक मामले में 49 में से 48 गवाह मुकर गए। यह हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली के बारे में क्या बताता है? सिर्फ इतना कि इसमें बड़े पैमाने पर बदलाव की जरूरत है। लेकिन, हो यह रहा है कि हमारे यहां व्यवस्था को सुधारने के बजाय सबसे कठोरतम सज़ा यानी मृत्युदंड और ज्यादा देने की मांग की जा रही है। इससे व्यवस्था को सुधारने में मदद नहीं मिलेगी। देश भर की अदालतों को आपराधिक मामलों में सुनवाई और अपीलों के निपटारे में तेजी लाने की जरूरत है ताकि फैसले पर जल्दी पहुंचा जा सके। तभी जघन्य या अन्य अपराध करने वालों को यह संदेश मिलेगा कि उन्हें सज़ा जल्द मिल जाएगी और जेल काटनी पड़ेगी।
कुछ अदालतों ने यह विचार करना शुरू कर दिया है कि जरूरी नहीं किसी व्यक्ति को फांसी पर लटकाना सबसे अच्छा समाधान है। हाल के दिनों में ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें अदालतों ने मौत की सजा सुनाने की बजाय दोषी को 20-25 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई है। कुछ मामलों में, बिना किसी राहत के इतनी लंबी जेलबंदी की सजा दी गई है। कुछ केस ऐसे भी रहे, जिनमें दोषी को आजीवन कैद की सजा सुनाई गई है। क्या यह तरीका मौत की सजा जितना कठोर या उससे बढ़िया नहीं? कई देश ऐसा सोचने लगे हैं। मत भूलें कि अबू सलेम को पुर्तगाल से इस शर्त पर प्रत्यर्पित किया गया था कि भारत में उसे मृत्युदंड नहीं दिया जाएगा।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि मृत्युदंड का उन्मूलन एक बहुत ही विवादास्पद और पेचीदा विषय है, खासकर बलात्कार, हत्या, बच्चों के यौन शोषण और आतंकी हमलों जैसे जघन्यतम मामलों में। फिर भी, हमें इस विषय पर विस्तार से चर्चा करने और किसी तरह की नीति या आम सहमति बनाने की आवश्यकता है, अन्यथा, मृत्युदंड एक जुए का खेल बनकर रह जाएगा। इस बीच, आइए यमन की महिला के लिए प्रार्थना करें।

लेखक सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश हैं।

Advertisement
Advertisement