चांदनी चौक : खास जुड़ाव रहा गणतंत्र दिवस परेड से
दिल्ली ही नहीं, देश का पहला सबसे आलीशान बाज़ार चांदनी चौक 2021 की गणतंत्र दिवस परेड की झांकी में भी दिखाई दिया था। चांदनी चौक वाक़ई ख़ास है क्योंकि लाल किले के साथ ही बना, और यहीं देश का पहला घंटा घर खड़ा हुआ और उसी पर 15 अगस्त 1947 को तिरंगा फहराया गया। साल 1950 से 2000 तक गणतंत्र दिवस परेड भी चांदनी चौक की सड़कों से ही गुज़रकर लाल क़िले पर ठहरती थी।
अमिताभ स.
वर्ष 2021 की गणतंत्र दिवस परेड में दिल्ली वालों के दिलों में बसा चांदनी चौक की झांकी आकर्षण का केंद्र रही थी। क्योंकि चांदनी चौक मुगल बादशाहत से अंग्रेज़ी हुकूमत से होते- होते आज़ाद भारत की भी शान है। साल 1950 से 2000 तक गणतंत्र दिवस की परेड राष्ट्रपति भवन से शुरू हो कर, राजपथ (अब कर्तव्य पथ) पर राष्ट्रपति की सलामी के बाद कनॉट प्लेस से अजमेरी गेट से नया बाजार, लाहौरी गेट से खारी बावली और फिर फतेहपुरी मस्जिद होते-होते चांदनी चौक में पहुंचती थी। इनमें टैंक, रॉकेट और युद्ध के अत्याधुनिक साज-सामानों के साथ राज्यों-मंत्रालयों की झांकियां होती थीं। अपना हुनर दिखाते सेना के जवान भी गुजरते थे। देशभक्ति के नारे गूंजते थे। परेड लाल क़िले पर जाकर संपन्न होती थी। यह सिलसिला साल 2000 तक जारी रहा। अगले सालों में सुरक्षा कारणों से परेड का रास्ता बदला गया। अब परेड बहादुरशाह जफर मार्ग और दरियागंज के नेताजी सुभाष मार्ग होते हुए सीधे लाल क़िले पहुंचने लगी। हालांकि अब भी कई दिनों तक झांकियां वहीं खड़ी रहती हैं, ताकि देशवासी आ कर देख सकें।
सौंदर्यीकरण के बाद का नजारा
सन1639 से 1648 के आसपास बनने के क़रीब पौने चार सौ साल बाद चांदनी चौक की नई बदली ख़ूबसूरती हाल के सालों में फिर देखने को मिली है। सौंदर्यीकरण के बाद लाल किले से फतेहपुरी मस्जिद तक क़रीब 1.3 किलोमीटर लंबी ऐतिहासिक सड़क पर चलते-चलते राहगीर थक जाएं, तो बैठने-सुस्ताने के लिए लाल पत्थर के नक़्क़ाशीदार चबूतरे बने हैं। यूं भी, चांदनी चौक पर गौरी शंकर मंदिर, सेंट्रल बैप्टिस्ट चर्च, शीशगंज गुरुद्वारा और फतेहपुरी मस्जिद हर धर्म के धार्मिक स्थल हैं। साइकिल मार्केट, भागीरथ पैलेस, दरीबा कलां, फ़व्वारा चौक, नई सड़क, बल्लीमारन, फतेहपुरी वगैरह इसके साथ विविध बाज़ार जुड़ते हैं। चांदनी चौक बदलता रहा है। हालिया सौंदर्यीकरण से पहले 1990 के दशक में, तत्कालीन सांसद के प्रयासों से चांदनी चौक की खोई शान लौटाने की कोशिश भी की गई। उन्होंने अपने सांसद कार्यकाल में चांदनी चौक के बीचोंबीच दो दफ़ा ‘चौदहवीं का चांद’ नाम से उत्सव आयोजित किए। सड़क और दोनों ओर की इमारतों को रंग-रोगन कर चमकाया। मेन बाज़ार में रंगारंग कार्यक्रम आयोजित किए गए।
पुरानी दिल्ली का दिल
चांदनी चौक पुरानी दिल्ली का दिल है। लाल क़िले के पश्चिम या कहें लाहौर दरवाज़े के सामने है चांदनी चौक। मुगलिया दौर के बाद हाल के सालों में एक बार फिर इसकी शानो-शौकत लौटी है। भीड़भाड़ नहीं घटी, पैदल चलना बेशक आसान हुआ है। शाही शान तो बरकरार रहेगी ही। हेरिटेज जानकार और ‘दिल्ली 14 हिस्टॉरिकल वॉक्स‘ की लेखिका स्वप्ना लिडल कहती हैं- लाल क़िले से फ़व्वारे तक सड़क को देख हेरिटेज प्रेमी गदगद हैं। इससे शीशगंज गुरुद्वारे से लालकिले के स्पष्ट दीदार होने लगे हैं।
अशर्फी बाजार ऐसे बना चांदनी चौक
शाहजहांनाबाद यानी मुगल बादशाह शाहजहां के शहर का सबसे अहम हिस्सा था चांदनी चौक। सन् 1648 में लालकिला बनाने के बाद ही शाहजहां ने शहर बसाने पर गौर किया। उस ज़माने में, शायद बाजार को चौक नाम से ज्यादा पुकारा जाता था। कहा जाता है, 17वीं सदी में, मुगल बादशाह शाहजहां की बेटी शहजादी जहांआरा ने मनीचेंज मार्केट बनवाई थी,अशर्फी बाजार। जिसके बीचोंबीच तालाब या नहर बहती थी। पूर्णिमा की रात चांद की परछाई तालाब में पड़ती और बाजार चांदनी की रोशनी से दमक उठता। बस इसी से बाजार का नामकरण हो गया चांदनी चौक।
कई बदलावों से गुजरा ये इलाका
बीते 375 सालों में शाहजहांनाबाद कई बदलावों का गवाह रहा है। सबसे पहला बदलाव 1857 में आया, जब आज़ादी की पहली जंग को दबाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने लोगों पर दमनकारी आक्रमण किए। नवाबों की शानदार हवेलियों पर धुंधले बादल छाने लगे। उनमें ज्यादा आबादी बसने लगी। दिल्ली के पहले लखपति लाला छुन्नामल की हवेली भी चांदनी चौक के बीचोंबीच है। इसमें दिल्ली की पहली कार आई, पहली बिजली लाइन पड़ी और पहली बार टेलीफोन की घंटी बजी। रेल के आगमन के साथ पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन बनाने के लिए उत्तरी शाहजहांनाबाद की कई गलियों और हवेलियों को कुर्बान होना पड़ा। और आज शाहजहांनाबाद घनी आबादी वाला इलाका बनकर उभरा है। यहां सालों-साल ट्राम भी दौड़ती रही। अब दो मेट्रो लाइनों और चांदनी चौक व लालक़िला नाम के दो मेट्रो स्टेशनों से जुड़ा है। चांदनी चौक के मोती, कुमार, मैजिस्टिक और जुलबी चारों सिनेमाघर अर्से से बंद हो चुके हैं, लेकिन यहीं बीते साल ओमेक्स चौक मॉल चालू हुआ है।
सबसे पहला घंटाघर
बताया जाता है कि देश का सबसे पहला घंटाघर चांदनी चौक के बीचोंबीच बना था, सन् 1870 में। लेकिन कुछ हिस्से खुद-ब-खुद गिरने के बाद 1950 के दशक में पूरी तरह हटा दिया गया। इसकी लोकेशन दिल्ली का ऐन सेंटर माना जाता है। अन्य शहरों में इसके बाद ही घंटाघर बने। सबसे फेमस 128 फुट ऊंचा चांदनी चौक का घंटाघर तब 28,000 रुपये में दिल्ली म्युनिसिपेलिटी ने बनवाया था। इसे नॉर्थब्रूक क्लॉक टॉवर के नाम से जानते थे। 15 अगस्त 1947 से घंटाघर के ऊपर तिरंगा फहराया गया। और तो और, मृत्यु के तीन साल बाद महात्मा गांधी की देश और राजधानी में संभवत: पहली आदमकद प्रतिमा राजधानी के चांदनी चौक के टाउन हॉल के पीछे कंपनी बाग में 1952 में लगी थी। टाउन हाल की इमारत खुद तो डेढ़-पौने दो सदी से ज्यादा पुरानी है, और बीते डेढ़ दशक से खाली पड़ी है, लेकिन अभी तक न दिल्ली म्यूजियम बन सका है, न हेरिटेज होटल। साल- दो साल में चर्चाएं ज़ोर पकड़ती हैं, फिर टांय-टांय फिस। कामना कीजिए कि चांदनी चौक की शाही शान यूं ही सलामत रहे।