गिलाफ़
तौक़ीर चुगताई
लोगों के सिरों के नीचे सिरहाना न हो तो उन्हें नींद नहीं आती, पर मेरी बांहों में सिरहाना न हो तो मुझे नींद नहीं आती। नींद क्या होती है, दिनभर की थकान से भागकर, रात की झोली में पनाह और सारे झमेलों को बिसरा कर अंधेरे की बांहों में छिप जाने का नाम, पर कभी-कभी यूं भी होता है कि रात और अंधेरा मिलकर भी नींद को ठग नहीं सकते।
बारह बरस बाद मां की छाती और पिता की गलबांही भी अपनी नहीं रहती। गलती तो मेरी अपनी थी जो मां की छाती और पिता की गलबांही छिन जाने के बाद एक रात उसके पास सो गई। शादी वाले घर में इतने बिस्तर तो होते नहीं कि हर कोई अपने सिर तले अलग सिरहाना रख सके। ढेर सारी लड़कियों और लड़कों के साथ विवाह के गीत गाती और ढोलक बजाती मैं भी थककर उस बड़े-से कमरे में सो गई थी जहां दूसरे लोग भी बारी-बारी से सोते चले गए थे।
रात का न जाने कौन-सा पहर था जब मुझे प्यास लगी और मेरी आंख खुल गई। मुझे यूं लगा जैसे मेरे सिर के नीचे सिरहाने जैसी कोई शै हो। वह सिरहाना तो नहीं था, पर ऐसा लगता था जैसे ऐसे सिरहाने के साथ बरसों से मेरे सिर का वास्ता रह चुका हो। मैं हौले-से उठकर घड़े की ओर चल दी। वह कैसे बेख़बर होकर सोया पड़ा है। मैंने पानी पिया, पर मेरी प्यास न बुझी। मैंने दूसरा गिलास भी भरकर पी लिया।
लौटकर आई तो वह बेख़बर-सा वैसे ही सोया पड़ा था और आसपास और भी बहुत सारे लोग सोये पड़े थे। मैं आकर उसके पास लेट गई, पर नींद नहीं आ रही थी। आहिस्ता-आहिस्ता मेरा सिर उसकी बांह की तरफ खिसकने लगा और कुछ देर बाद उसकी बांह मेरे सिर के नीचे थी। मैं करवट बदलकर उसके और करीब हो गई। यूं लगा मानो मेरे नाक के करीब भीगी हुई मेहंदी की कटोरी रखी हो और उसकी सुगंधि मेरे शरीर को मदहोश कर रही हो।
दूसरी बार जब मेरी आंख खुली तो मेरा सिर उसकी बांह से बढ़कर कंधे पर पहुंच गया था। मैं अचानक उठ खड़ी हुई थी। इस बार तो वह भी उठकर बैठ गया। मैंने फिर उठकर पानी पिया और जब लौटकर आई, वह हैरान-परेशान-सा हुआ बैठा था।
‘क्या हुआ?’ मैंने पूछा।
‘प्यास लगी है।’
‘मैं लाती हूं पानी तेरे लिए।’
पानी पीने के बाद वह लेट गया। मैं गिलास रखकर आई और लेट गई। हम एक-दूजे के साथ बातें करना चाहते थे, पर समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बातें करें। कितनी ही देर एक-दूसरे को आंखों से टटोटले रहे। आखि़र उसने अपनी बांह लंबी कर दी और मेरा सिर भी जैसे उसकी बांह की ही प्रतीक्षा कर रहा था।
‘तू कहां से आया है?’ मैंने उससे पूछा।
‘पिंडी से।’
‘पिंडी तो बहुत दूर है।’
‘चकवाल भी तो दूर ही है न।’
‘हां, दूर तो है पर अब कहां रह गया।’ मैंने धीमे-से कहा। मुझे फिर नींद आने लगी थी। अब्बा को मरे दो साल हो चले थे और उसकी गलबांही को छिने कितने ही साल हो गए थे, पर लगता था जैसे आज अब्बा फिर जिन्दा हो गया हो।
हर लड़के के अंदर कोई लड़की हो या न हो, पर लड़की के अंदर एक लड़का छिपा होता है। वह कभी पिता और कभी यार बन जाता है, पर आखि़र में दोनों कहीं चले जाते हैं। दूसरे दिन वह भी चला गया था और मेरी नींदों को भी जैसे संग ले गया था, अगवा कर के। विवाह खत्म हो गया था और दूसरी रात जैसे काले बादलों की भांति चढ़ी आती थी। जब सोने का समय हुआ तो मैंने मां से कहा, ‘बेबे, आज मैं तेरे साथ सोऊंगी।’
‘क्यों? ख़ैर सल्ला है, तू कोई बच्ची तो नहीं है न। मैं तो विवाह के सयापे कर-कर टूटी पड़ी हूं। तेरे मामा के बेटे की शादी ने तो मेरे बदन को जैसे चूर चूर कर छोड़ा है।’ बेबे ने कहा।
मैंने सिरहाना उठाया और चुपचाप ज़मीन पर बिछी दरी पर लेट गई, पर नींद नहीं आ रही थी। मेरा सिर कोई सिरहाना और नाक कोई सुगंध खोज रहा था। मैंने सिरहाने को बांहों में भर लिया और हौले-हौले नींद में डूबती चली गई। सवेरे जब अम्मा ने मुझे उठाया तो सिरहाना मेरी बांहों में दबा हुआ था और सिर ज़मीन पर। एकदम मेरी चीख निकल गई।
‘बेबे… उफ्फ! मेरी गर्दन…।’
‘बेटी, सिरहाना सिर के नीचे रखने के लिए होता है। तू इसको बांहों में कसकर सो गई थी। गर्दन ने तो अकड़ना ही था। और देख, तूने सिरहाने का गिलाफ़ भी फाड़ दिया है।’
अब तक तो मुझे भी पता लग गया था कि कौन-सी चीज़ सिर के नीचे रखते हैं और किसे गलबांही डालते हैं, पर मारे दर्द के मैं चुप्पी लगा गई। दिल में सोचा, यदि वह न मिलता तो अच्छा था। अभी और न जाने क्या-क्या होगा। वह दूर का हमारा रिश्तेदार था, पर इससे पहले कभी नहीं आया था। ख़ालदा ममेरी बता रही थी कि उसके मां-बाप मर चुके थे। बस, एक बड़ी बहन थी और एक वह आप। वह पिंडी के राजा बाज़ार में आटे की चक्की पर काम करता था।
दो-तीन दिन यूं ही बीत गए। एक दिन मामी का संदेशा आया कि सारी लड़कियां मिलकर विवाह के बाद वाले कामों को संभालें। मैले कपड़े और बर्तन धोये जा रहे थे। घर की दूसरी वस्तुओं को उनकी अपनी जगह पर रखा जा रहा था। मैं हाथ धोने के लिए गुसलखाने में चली गई तो यूं महसूस हुआ जैसे कोई जानी-पहचानी सुगंध अंदर तैर रही हो। मैंने जल्दी से दरवाज़ा बंद किया और कुंडी लगाकर उस सुगंध को ढूंढ़ना शुरू कर दिया। बड़े-से गुसलखाने में दीवार पर टंगे हैंगर के साथ बहुत सारे मैले कपड़े टंगे हुए थे।
मैं एक-एक कपड़े को सूंघती रही। कुर्ते, सलवारें, धोतियां, बनियानें और न जाने क्या-क्या! अचानक एक जोड़े की सुगंध ने मुझे यूं कीलित किया कि मैंने आगे बढ़कर उसको बांहों में भर लिया और पता नहीं कितनी देर तक ज्यों-की-त्यों खड़ी रही। मुझे होश तब आया जब दरवाज़े पर बाहर से ठकठक हुई।
‘री अब बाहर भी आ जा। मर तो नहीं गई अंदर?’ यह ख़ालदा की आवाज़ थी। मैं दरवाज़ा खोलकर बाहर आ गई। फिर न जाने कितनी बार बहाना बनाकर गुसलखाने में गई और बाहर निकली।
बहुत सारे कपड़े धोने के बाद मामी ने ख़ालदा से कहा, ‘जा, गुसलखाने में से बाकी के मैले कपड़े भी निकाल ला। वो भी धो लें। ख़ालदा सारे कपड़े उठाकर बाहर ले आई और कहने लगी, ‘हाय-हाय! बेबे, सलमान भाई अपनी कमीज़ और सलवार तो यहीं भूल गया है। अब पता नहीं कब आएगा वो।’
‘उस बेचारे ने अब क्या आना है। मजदूरी करे या लोगों को मिलता फिरे। उसके कपड़े एकतरफ रख दे। दूसरे कपड़ों के साथ मिलाकर थेगली चादर बना लेंगे या किसी बालक के कपड़े बन जाएंगे।’
मुझे पता नहीं क्या हुआ, फुर्ती के साथ उठी, सलमान के कपड़े यूं पकड़े जैसे मेरे से कोई छीन लेगा और मामी से कहा, ‘ये कपड़े मैं लेकर जाऊंगी।’
‘तू क्या करेगी इनका?’ मामी ने हैरान होकर पूछा।
‘मेरे सिरहाने का गिलाफ़ फट गया है। इनका गिलाफ़ बनाऊंगी।’ और कपड़ों को बगल में दबाकर मैं अपने घर की ओर चल दी।
अनुवाद : सुभाष नीरव