गहन वन का ईश्वर
वह आश्चर्य से वीरेश को देखे जा रही थी। उसकी आंखों के सामने फिर से पति अतनु मंडल का चेहरा घूम गया। वही आंखें, वही डीलडौल। भूल नहीं पायी थी उसे। परंतु अब वह जीवित कहां है? उसे तो दो वर्ष पहले बाघ अपना शिकार बना चुका है। क्यों है ऐसी भावना? वह बार-बार अपने मन को समझाने का प्रयत्न करती है।
शक्ति पुरकाइत
दो दिन पूर्व ही वनदेवी का मेला संपन्न हुआ। उसका नजारा अभी तक आंखों के समक्ष है। हर वर्ष बैशाख के अंतिम सप्ताह में इस वनप्रांत में मेला जुड़ता चला आ रहा है। यहां के लोगों की धारणा है कि वनदेवी की पूजा-अर्चना करने पर वह उन सबकी रक्षा करती है। यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है। वन से लकड़ियां काट करके लाना, शहद-संग्रह यही इन वनवासियों की रोजी-रोटी है। जब पुरुष घने वन की ओर चले जाते हैं तो इनकी पत्नियों में यही आशंका बनी रहती है कि इनमें से शायद कुछ वापस नहीं आ पाएंगे। यही सोचकर इनमें से कई औरतें बांहों में शंख से बनी चूड़ी शांखा नहीं पहनतीं और न मांग में सिंदूर भरतीं। अपनी अश्रुपूरित आंखों से बस वन की ओर आंखें गड़ाए रहती हैं। घर का मालिक कब लौटेगा इसी आस में। इस गांव की अधिकतर महिलाएं विधवा हैं। किसी के पति को वन में बाघ ने मार डाला तो कोई छोटी नाव में मछली पकड़ने नदी में गया और मगरमच्छ का शिकार बना। इन विधवाओं का निस्संग जीवन नदी और वन की ओर निहारते ही व्यतीत होता है। केतकी का जीवन भी कुछ ऐसा ही था। दो वर्ष पहले उसका पति अतनु मंडल जब लकड़ी काटने वन की ओर जा रहा था, थोड़ी दूर पर ही उसे बाघ ने मार डाला।
घर लौटकर केतकी ने लकड़ियों का एक गट्ठर आंगन में रखा और उस राह की ओर देखने लगी, जिधर से उसका पति अंतिम बार जंगल की ओर गया था और फिर वापस लाया गया तो लहूलुहान। कुछ दूर जाने पर उसने स्वयं अपनी आंखों से बाघ को उस पर झपटते देखा था। उस दिन बाघ और मानव की लड़ाई बहुत देर तक चली थी और अंततः उसका पति बुरी तरह घायल हो गया था। गांव वालों को जब यह समाचार मिला तो सबके सब दौड़े चले आए थे। उनका शोर सुनकर बाघ घने वन की ओर भाग गया था। लोगों ने अतनु को रक्तरंजित पड़ा देखा। वे उसे लेकर गांव के अस्पताल में पहुंचे, परंतु उसे बचाया नहीं जा सका। अतनु की मृत्यु हो चुकी है, इस वाकये को केतकी सहजता से स्वीकार नहीं कर पायी। उस समय वह आठ महीने के गर्भ से थी। कई सपने जन्म ले रहे थे तब। वे सब के सब टूट गए। पति के मरने की खबर ने जैसे उसका सर्वस्व छीन लिया। मृत अतनु को अस्पताल से घर लाया गया और उस दिन शाम को नदी किनारे उसकी चिता धू-धू कर जल उठी थी।
गांव का नाम सीतापुर है। इसके बगल से गुजरती है एक टेढ़ी-मेढ़ी संकरी नदी मातला। पास ही है विशाल वनप्रांतर। इस वन में न जाने कितने पुरुष बाघों का शिकार बने, उसकी कोई गिनती नहीं। बाघ और मगरमच्छ का शिकार बनना यहां आए दिनों की यंत्रणा है। अक्सर यह खबर फैली रहती है कि आज गांव में बाघ विचर रहा है, किसी के मिट्टी के घर में तो किसी के गौशाला में। कभी-कभी वह धीरे से गाय की रस्सी दांतों से काटकर चुपके से उसे अपने साथ ले जाता है। केतकी अब तक यही सब देखती आ रही है। देखा है उसने अपने पति अतनु के चौड़े वक्ष का साहस। वह कब उसके चौड़े वक्ष पर माथा टिकाए अपना घर छोड़कर भाग आई थी, याद नहीं। प्रेम के वशीभूत उसका हाथ थामे अपनी गृहस्थी बसा ली थी परंतु वह छोटा-सा प्रेमपगा घर-संसार जंगल में कहीं विलुप्त हो गया। आंखों में आंसू जज्ब किए अब वह अपना जीवन ज्यों-त्यों गुजार रही थी। सिर्फ वही अकेले नहीं, इस सुंदर वन की कई विधवाओं के जीवन में ज्वार आने के पहले ही भाटा का उछाल आ जाता है। निस्संग जीवन उनके अकेलेपन को कचोटता रहता तो इनमें से कुछ जीवन साथी तलाश लेतीं। कोई छिपकर तो कोई खुलेआम। केतकी की उम्र ही क्या थी। सिरहाने को आंसुओं से भींगोकर अपना जीवन एक नन्ही-सी जान और बूढ़ी सास के साथ गुजारे जा रही थी।
‘केतकी भाभी, भागो। बाघ आया हुआ है।’ छोटी नाव पर लकड़ी का बोझ रखते हुए अचानक उसने एक परिचित कंठस्वर सुना। केतकी ने पीछे मुड़कर उस ओर देखा जिधर से आवाज आई थी। यह आवाज वीरेश की थी। उसने दूर एक दूसरी छोटी नाव की ओर नजर दौड़ायी। अवश्य ही कोई विपदा आन पड़ी है। निश्चय ही जंगल की ओर से कोई बाघ आया है। तभी तो वीरेश इस कदर चीख रहा है।
केतकी ने फिर से वह आवाज सुनी, ‘केतकी भाभी, भागो वहां से। बाघ तुम्हारी तरफ ही आ रहा है।’
सुनते ही वह चौंक उठी। जंगल की ओर के आती राह पर बाघ की एक झलक उसे दिखाई दी। देखते हुए ही वह समझ गई कि पास ही कहीं वह झाड़ियों में छिपा हुआ है। पहले तो वह डर से कांप उठी परंतु दूसरे ही पल साहस जुटाते हुए मन ही मन कहा, डरने से कुछ नहीं होगा। जैसे भी हो उसे बाघ से अपने आप को बचाना ही होगा। घर में प्रतीक्षारत है उसका बिन बाप का बेटा। वह भी नहीं रही तो उसका सहारा कौन होगा? जैसे भी हो, उसे जीवित रहना ही पड़ेगा।
वीरेश का स्वर धीरे-धीरे उसके करीब आता गया। वह भी अपनी नाव लेकर उसकी ओर बढ़ गई। फिर देखा पीले रंग का धारीदार बाघ उसकी ओर बढ़ा चला आ रहा है। इसके पहले कि वह केतकी की देह पर झपट्टा मारता, वह लोहे की कुल्हाड़ी लिए नदी में कूद पड़ी। वीरेश ने एक डुबकी लगायी और कुल्हाड़ी निकालकर सख्ती से उसे थामे ऊंची आवाज में बोल उठा, ‘भाभी, नाव पर चली आओ। बाघ आ गया है। मैं देखता हूं उसे।’
वीरेश के भीगे बदन को एकटक देखती रही वह कमसिन विधवा केतकी। बरस दर बरस नाव पर पतवार के सहारे उसकी युवावस्था बीतती चली गई थी। कितने दिन बीत गए, किसने रखा हिसाब। आज जैसे केतकी के सामने वनदेवता स्वयं आ खड़े हुए हों। पानी में भीगा उसका शरीर सौष्ठव देखकर केतकी को अतनु की याद हो आई। वीरेश नहीं, जैसे उसके सामने खड़ा हो उसका पति अतनु जिसे बार-बार भुलाने का वह प्रयास करती आ रही थी। इस समय भी अतनु का चेहरा उसकी आंखों के सामने तैरने लगा। वह भयातुर होकर वीरेश से चिपक गई।
वीरेश ने केतकी से अपने आपको छुड़ाने का प्रयत्न किया। लोक-लज्जा का भय है उसे। किसी ने देख लिया तो विपदा आन पड़ेगी। लोग उन्हें चरित्रहीन समझेंगे। पूरे गांव में उसकी किरकिरी होगी। वह गांववालों को अपना चेहरा नहीं दिखा पाएगा। लोग उसे दुत्कारेंगे, थूकेंगे उस पर। लोग कहेंगे कि अकेली मुसीबतजदा को देखते ही लार टपकने लगी। वहीं दूसरी ओर केतकी को भी न जाने क्या-क्या सुनना पड़ेगा। हो सकता है, उन दोनों को गांव से ही निकाल दिया जाए। उस समय यही सब सोचे जा रहा था वह।
तभी उसने देखा कि बाघ ने केतकी पर छलांग लगा दी है। उसके हिंस्र नुकीले पंजों से केतकी के वस्त्र फट गए। वह भय से बुत बनी खड़ी रही। मुंह से आवाज तक नहीं निकली। उसने सिर्फ यही देखा कि वीरेश कुल्हाड़ी थामे बाघ की पीठ पर सवार हो गया है और उसकी गर्दन पर एक भरपूर वार किया है। साथ ही साथ नदी का रंग लाल हो उठा। उस समय पश्चिम का सूरज अस्तांचल हो रहा था। उसकी लाल आभा और खून का रंग नदी के जल में समाकर एकाकार हो उठा। कुल्हाड़ी की चोट से बाघ जख्मी होकर तड़प रहा था और कीचड़सना वीरेश उसके पास खड़ा था।
अपने सारे शरीर पर फैले खून को वीरेश ने नदी के जल में धोया। जैसे वह अपने पाप को धोकर पवित्र हो गया हो। एक जीव को बचाने के लिए दूसरे जीव की हत्या करनी ही पड़ती है। उसे भरोसा है कि ईश्वर ने उसे माफ कर दिया है। उसने एक राहत भरी उसांस छोड़ी और उठ खड़ा हुआ। देखा कि कम उम्र की विधवा केतकी नाव पर अचेतावस्था में पड़ी हुई है। उसके शरीर का भीगा कपड़ा नदी के जल में बह गया है। मद्धम हवा में नाव डोलने लगी। वीरेश के हाथों में थमी कुल्हाड़ी छिटकते ही एक तेज आवाज हुई जिसे सुनते ही केतकी की चेतना लौटी। नाव पर अस्त-व्यस्त पड़ी उसने अपने आप को संभाला। वह भय से अभी भी कांपे जा रही थी। गौर किया कि अंधेरा घिरने ही वाला है। थोड़ी ही देर में सारा वन सियारों के क्रंदन से भर जाएगा। अब जैसे भी हो उसे लकड़ियों का गट्ठर लेकर तेजी से घर लौटना पड़ेगा। घर में प्रतीक्षारत उसकी सास बेटे को संभालते-संभालते बेकल हुई जा रही होगी या फिर हो सकता है कि मां-मां की पुकार से थककर बेटा वहीं भूमि पर सो गया होगा। उस पर गांव वालों की अनर्गल बातें।
वह आश्चर्य से वीरेश को देखे जा रही थी। उसकी आंखों के सामने फिर से पति अतनु मंडल का चेहरा घूम गया। वही आंखें, वही डीलडौल। भूल नहीं पायी थी उसे। परंतु अब वह जीवित कहां है? उसे तो दो वर्ष पहले बाघ अपना शिकार बना चुका है। क्यों है ऐसी भावना? वह बार-बार अपने मन को समझाने का प्रयत्न करती है।
‘भाभी जी, शाम होने को आई है। आपको घर लौटना चाहिए। मेरा यह गमछा अपने शरीर से लपेट लीजिए।’
वीरेश का स्वर कान में पड़ते ही उसे ख्याल आया कि उसके वस्त्र फुट चुके हैं। वह वीरेश के दिए गमछे से अपना शरीर ढक लेती है।
अंधकार में वीरेश की नाव डोलते हुए दूर निकल जाती है। अश्रुपूरित नेत्रों से केतकी उस ओर कुछ देर तक देखती रही। एक असहाय विधवा का निस्संग जीवन घने वन के ईश्वर की ओर...
मूल बांग्ला से अनुवाद : रतन चंद ‘रत्नेश’