खो-खो के सरताज
ब्रिटिश काल में भारत में तमाम ऐसे खेल पनपे जिन्होंने परंपरागत स्वदेशी खेलों को हाशिये पर डाल दिया। एक ओर जहां महंगे खर्च वाले खेलों को तरजीह दी गई, वहीं बिना खर्च के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य बढ़ाने वाले खेलों के प्रति हेय भाव जगाया। यही वजह है कि बाजार के खेल में हॉकी, शरीर सौष्ठव के कलात्मक खेल व खो-खो जैसा संपूर्णता का स्वास्थ्य देने वाला खेल अनदेखी का शिकार हुए। यह सुखद ही है कि भारत में पहली बार दुनिया में खो-खो की वैश्विक स्पर्धा हुई। जिसमें विश्व के दो दर्जन देशों के खिलाड़ियों ने भाग लिया। पिछले दिनों पंद्रह जनवरी से नई दिल्ली के इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में पहले खो-खो वर्ल्ड कप की शुरुआत हुई थी। जिसका समापन उन्नीस जनवरी को हुआ। भारतीय महिला व पुरुष टीम ने नेपाल को हराकर खिताबी जीत हासिल की। महिला टीम ने दक्षिणी अफ्रीका के खिलाफ बड़ी जीत से जिस विजय अभियान की शुरुआत की थी, उसका समापन नेपाल के खिलाफ शानदार जीत से हुआ। इस तरह अब भारत महिला व पुरुष वर्ग में पहली वर्ल्ड चैंपियन टीम बन गई है। रविवार को हुए फाइनल मैच में भारतीय खिलाड़ियों ने एक अरब चालीस करोड़ भारतीयों को खुश होने का अवसर दे दिया। लेकिन एक बात जरूर अखरती है कि इस वर्ल्ड चैंपियन टीम को कोई प्राइज मनी नहीं दी गई है। नई दिल्ली में आयोजित पहले खो-खो विश्व कप में महिला और पुरुष दोनों वर्ग में वर्ल्ड चैंपियन बनने पर केवल ट्राॅफी व खिलाड़ियों को मेडल ही दिए गए। भारतीय खो-खो फैडरेशन की दलील थी कि टैक्स कानून की जटिलताओं की वजह से कैश प्राइज नहीं दिए गए। कहा गया कि इससे विदेशी खिलाड़ियों को दिक्कत पैदा हो सकती थी। हालांकि, इस पहले खो-खो वर्ल्ड कप को पर्याप्त प्रायोजक भी मिले थे। ऐसे में पहली बार विश्व चैंपियन बनने वाले खिलाड़ियों को कैश प्राइज दिए जाने पर विचार किया जाना चाहिए था।
निश्चित रूप से इस स्वदेशी खेल के खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने और इसे लोकप्रिय बनाने के लिये विशेष प्रयास किये जाने चाहिए। निश्चय ही हाल के वर्षों में भारतीय खो-खो फेडरेशन यानी केकेएफआई ने श्रम-साध्य प्रयास किए हैं। यह भारतीय खेल दुनिया के अनेक देशों में नहीं खेला जाता। इसे लोकप्रिय बनाने के लिये न केवल दूसरे देशों को प्रेरित किया गया बल्कि भारत से वहां इस खेल को सिखाने के लिये कोच भी भेजे गए। इन देशों में खो-खो फेडरेशन बनाने में सहयोग किया गया। जिससे दुनिया के विभिन्न देशों में इस खेल के प्रति दिलचस्पी पैदा हुई। निश्चित रूप से खो-खो भारत में खेला जाने वाला ऐसा खेल है जिसको जीतने के लिये न केवल रणनीति की जरूरत होती है बल्कि मनुष्य के आदर्श गुणों चुस्ती-फुर्ती, गतिशीलता व सहनशक्ति की भी आवश्यकता होती है। जो इस खेल को लोकप्रिय बनाने में सहायक है। निस्संदेह, भारत में खो-खो लीग के प्रयासों से भी इस खेल को प्रोत्साहन मिला। बाकायदा इस खेल को लोकप्रिय बनाने के लिये सलमान खान को ब्रांड एंबेसडर बनाया गया। अब विश्व कप के आयोजन से इसकी वैश्विक लोकप्रियता को बढ़ावा मिलेगा। खो-खो फेडरेशन की कोशिश है कि आने वाले वर्षों में इसे एशियाड व ओलंपिक खेलों में शामिल किया जाए। इस अभियान में सलमान खान के साथ खेल सितारे नीरज चोपड़ा का भी सहयोग मिला है। निस्संदेह, इस खेल को वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय बनाने में हालिया विश्वकप की बड़ी भूमिका हो सकती है। विश्वास किया जाना चाहिए कि आने वाले वर्षों में भारत की मिट्टी से जुड़ा यह खेल वैश्विक स्तर पर लोकप्रियता हासिल करेगा। जरूरत इस बात की है कि इस खेल का प्रशिक्षण वैज्ञानिक तरीके से दिया जाए। खिलाड़ियों की शारीरिक व मानसिक शक्ति को मजबूत करने के लिये पर्याप्त सुविधाएं प्रदान की जाएं। तभी विश्व कप, साउथ एशियन गेम्स तथा एशियन चैंपियनशिप में मिली कामयाबी को भारतीय खिलाड़ी भविष्य में होने वाले एशियाड और ओलंपिक के मुकाबलों में दोहरा सकेंगे। भारतीय माटी से जुड़े इस खेल के लिये खिलाड़ियों की तलाश देश के आदिवासी, दूरदराज के क्षेत्रों व पर्वतीय इलाकों में की जाए। फिर उन्हें तराशकर विश्व स्तरीय खिलाड़ी तैयार किए जाएं।