खिलौना नहीं मोबाइल
बच्चों का मन बहलाने के लिये झुनझुने की तरह मोबाइल थमाने का जो फैशन शुरू हुआ है उसके घातक प्रभाव अब सामने आने लगे हैं। एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में इन आशंकाओं की पुष्टि ही हुई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कम उम्र के बच्चों को स्मार्टफोन दिये जाने से उनके युवा अवस्था में पहुंचने पर कई तरह के मानसिक विकार उभर रहे हैं। वैश्विक स्तर पर हुए इस सर्वेक्षण के निष्कर्ष गत सोमवार को सार्वजनिक किये गये हैं। सर्वेक्षण के निष्कर्षों में मोबाइल फोन तथा टैब के उपयोग के दुष्प्रभावों का जिक्र किया गया है। दुखद बात यह भी है कि छोटी उम्र में मोबाइल फोन के अधिक उपयोग से ऐसे बच्चों में वयस्क होने पर आत्महत्या जैसे घातक विचारों का प्रवाह देखा गया है। उनमें अपने यथार्थ से विमुख होने और दूसरों के प्रति आक्रामक व्यवहार का रुझान देखा गया है। यह सर्वेक्षण अमेरिका की एक गैर लाभकारी संस्था द्वारा दुनिया के करीब 28 हजार वयस्कों पर किया गया। करीब चालीस देशों में कराये गये सर्वे में चार हजार युवा भारत के भी शामिल थे। जिसमें मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े प्रभावों का विश्लेषण किया गया। सर्वेक्षण के निष्कर्षों पर आधारित तथ्यों के बाबत वैज्ञानिकों का कथन है कि छोटी उम्र में बच्चों को मोबाइल फोन दिये जाने से उनके वयस्क होने पर मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर ज्यादा बढ़ने की आशंका है। सर्वेक्षण में बताया कि छह वर्ष की उम्र में स्मार्टफोन का इस्तेमाल शुरू करने वाली 74 फीसदी वयस्क महिलाओं को गंभीर मानसिक स्वास्थ्य की चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसमें अवसाद भी शामिल है। इसी क्रम में दस वर्ष से स्मार्ट फोन का इस्तेमाल शुरू करने वाली वयस्कों में से 61 फीसदी और पंद्रह वर्ष से इस्तेमाल शुरू करने वाली युवतियों में 52 फीसदी में ये दुष्प्रभाव नजर आये। वहीं 18 वर्ष की होने पर स्मार्टफोन का प्रयोग करने वाली युवतियों द्वारा ऐसी चुनौती का सामना करने का प्रतिशत 46 फीसदी था।
कमोबेश युवकों में भी इसी तरह छह साल की उम्र से स्मार्टफोन का इस्तेमाल शुरू करने वालों का मानसिक दुष्प्रभावों का सामना करने वाला प्रतिशत 42 था। वहीं 18 साल से स्मार्टफोन इस्तेमाल शुरू करने वालों का प्रतिशत 36 फीसदी था। इस तरह कम उम्र में मोबाइल प्रयोग का संबंध सीधा मानसिक समस्याओं के बढ़ने के रूप में पाया गया। यानी छोटी उम्र में फोन के उपयोग से मानसिक दिक्कतों में अधिक वृद्धि हुई है। ऐसे लोगों में आत्महत्या की प्रवृत्ति के विचार आने, दूसरों के प्रति आक्रामकता, अपने जीवन की वास्तविकता से दूर होने तथा समाज से अलग आत्मकेंद्रित होने की प्रवृत्ति देखी गई है। वहीं बीते साल जारी आंकड़ों के अनुसार भारतीय परिवारों में दस से चौदह वर्ष के बच्चों में स्मार्टफोन के उपयोग का प्रतिशत 83 फीसदी था, जो वैश्विक स्तर पर उपयोग के औसत से सात फीसदी अधिक था। वैसे अभी यह अध्ययन विस्तार से होना बाकी है कि छोटी उम्र में फोन का इस्तेमाल शुरू करने से युवा अवस्था में बच्चों में मानसिक समस्याएं और व्यवहार में आक्रामकता क्यों पैदा हो रही है और इसके क्या समाधान हो सकते हैं। आंकड़े बता रहे हैं कि बच्चे पांच से आठ घंटे रोज ऑनलाइन रहते हैं। निस्संदेह बच्चे इससे पहले इस समय का उपयोग परिवार के लोगों और मित्रों के साथ व्यतीत करते थे। जाहिर है बच्चों में समाजीकरण की प्रक्रिया बाधित हुई है। जिसके चलते उनमें सामाजिक चुनौतियों से सामंजस्य बैठाने की क्षमता का ह्रास होता है और वे छोटी-छोटी चुनौतियों से हारने लगते हैं। जिससे उनके व्यवहार में आक्रामकता आती है और उनका मानसिक स्वास्थ्य बाधित होता है। इससे उनमें आत्महत्या जैसे विचार प्रभावी होने लगते हैं। निस्संदेह, यह एक गंभीर चुनौती है। सरकार व समाज को इस दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए। बच्चों को खेलों में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करने की जरूरत है। योग व मेडिटेशन इस समस्या में दवा का काम कर सकते हैं। जो उन्हें मानसिक रूप से मजबूत बनाने में सहायक होंगे।