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किसानों को विवशता की हद से मुक्त कराएं

04:00 AM Jul 09, 2025 IST
किसानों को विवशता की हद से मुक्त कराएं
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बरसों पहले एक फिल्म आयी थी ‘मदर इंडिया’ इसमें नायिका को अम्बादास की तरह ही हल खींचते हुए दिखाया गया था। बचपन में देखी फिल्म का वह दृश्य आज भी आंखों में आंसू ला देता है। उम्मीद ही की जा सकती है कि उस फिल्म की यह पुनरावृत्ति–अम्बादास का हल जोतना–कहीं न कहीं ज़िम्मेदारी का भाव जगायेगी।

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विश्वनाथ सचदेव

हाल ही में सोशल मीडिया पर एक छोटा-सा वीडियो वायरल हुआ था। आपने भी देखा होगा एक बूढ़ा किसान बैल बनकर अपने खेत को जोत रहा है। उसे कितनी ताकत लगानी पड़ रही है इस काम में, इसका अहसास उसके चेहरे को देखकर अनायास ही हो जाता है। उसके पीछे से टेका देने का काम उसकी बूढ़ी पत्नी कर रही है। यह चित्र लगभग 70 वर्षीय किसान अम्बादास पवार और उसकी पत्नी का है। चार बीघा जमीन है दोनों के पास। पर हल चलाने के लिए बैल खरीदना उसके बस की बात नहीं है। इसलिए वह खुद बैल बन गया है!
ज्ञातव्य है कि यह दृश्य उस महाराष्ट्र का है जिसकी गणना देश के विकसित राज्यों में होती है। ज्ञातव्य यह भी है कि देश में किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं में महाराष्ट्र के किसानों की संख्या सर्वाधिक है- पिछले तीन महीनों में अर्थात‍् अप्रैल, मई, जून, 2025 में महाराष्ट्र में 767 किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा है! पिछले दस सालों में यह आंकड़ा औसतन प्रतिदिन दस आत्महत्याओं का पड़ता है। पचपन साल पहले देश में हरित क्रांति हुई थी। यह एक सच्चाई है। कृषि क्षेत्र में हमारे कृषि वैज्ञानिकों और हमारे किसानों ने 1970 में इस सच्चाई को साकार किया था। लेकिन यह सच्चाई जितनी मीठी है, उतनी ही कड़वी यह सच्चाई भी है कि हरित क्रांति के बावजूद हमारे किसानों की हताशा के फलस्वरूप देश में होने वाली आत्महत्याओं की संख्या लगातार डरावनी बनी हुई है। किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं का यह शर्मनाक सिलसिला हरित क्रांति के चार-पांच साल बाद ही शुरू हो गया था!
इसका कारण खोजने की आवश्यकता नहीं है, यह एक खुला रहस्य है कि कृषि क्षेत्र में विकास के सारे दावों के बावजूद अधिसंख्य किसान अभावों की जिंदगी ही जी रहे हैं। इस दौरान बड़े-बड़े दावे हुए हैं किसानों के विकास के। करोड़ों-करोड़ों रुपया कथित ‘खुशहाल किसानों’ की तस्वीर दिखाते विज्ञापनों पर खर्च हो रहा है; हर किसान का बैंक खाता होने का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि विज्ञापनों की सच्चाई और स्थिति की भयावहता कुछ और ही वर्णन कर रही है। यदि हमारा अन्नदाता सचमुच समृद्ध होता जा रहा है तो फिर देश की अस्सी करोड़ आबादी मुफ्त अनाज लेने के लिए विवश क्यों है? इस मुफ्त अनाज को भले ही कुछ भी नाम दिया जाये, पर हकीकत यही है कि सरकार के सारे दावों और वादों के बावजूद देश का औसत किसान आज भी ऋण में पैदा होता है, ऋण में जीता है और ऋण में ही मरने के लिए शापित है। यह शाप कब दूर होगा?
किसानों की दुर्दशा के जो कारण बताये जाते हैं, उनमें सबसे पहला स्थान ऋण का ही है। साहूकारों से, बैंकों से और अन्य सरकारी एजेंसियों से हमारा किसान ऋण लेता है। और यह ऋण समाप्त होने का नाम ही नहीं लेता! जिन्हें ऋण मिल जाता है, उनकी जिंदगी उसे चुकाने में ही कट जाती है। यहीं इस बात को भी रेखांकित किया जाना ज़रूरी है कि भारत का किसान उन उद्योगपतियों की तुलना में कहीं अधिक ईमानदार है जो बैंकों से अरबों का ऋण लेते हैं और या तो स्वयं को दिवालिया घोषित कर देते हैं या फिर विदेश में कहीं ऐसी जगह पर बस जाते हैं जहां से उन्हें भारत प्रत्यर्पित करना आसान नहीं होता। अरबों-खरबों के इन देनदारों को इस बात से भी कोई अंतर नहीं पड़ता कि दुनिया उन्हें बेईमान कह रही है। उनकी तुलना में हमारा किसान कहीं अधिक शर्मदार है। ऋण न चुका पाने की स्थिति में वह शर्म से गड़ जाता है। आंख नहीं उठती उसकी। राजेश रेड्डी का एक ‘शे’र’ है, शाम को जिस वक्त खाली हाथ घर जाता हूं मैं/ मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूं मैं’। यह ‘मैं’ भारत का वह किसान भी हो सकता है जो शाम को खाली हाथ घर जाने के लिए विवश है। वह मजदूर भी हो सकता है जो बच्चों की मुस्कुराहट को ही भूल जाता है। निराशा उसके दिमाग में पलने लगती है और हताशा हर शाम उसके चेहरे पर दिखाई देने लगती है। और फिर... किसी एक दिन यह हताशा और निराशा, आत्महत्या बनकर दुनिया के सामने आ जाती है। इसमें थोड़ा-सा हिस्सा उस शर्म का भी होता है जो ऋण न चुका पाने की किसान की पीड़ा से उपजती है।
आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं है। किसी सवाल का जवाब भी नहीं है। मदद के लिए किसी हताश व्यक्ति का अंतिम चीत्कार ही कहा जा सकता है इसे। लेकिन यह कतई ज़रूरी नहीं है कि स्थितियां इस मोड़ तक पहुंचने दी जाएं। स्थितियों को बदलने का एक रास्ता लातूर के किसान अम्बादास और उनकी पत्नी ने दिखाया है। यह सही है कि बैल बनकर खेत जोतना समस्या का समाधान नहीं है। इसे विवशता की पराकाष्ठा के रूप में ही स्वीकारा जा सकता है। नहीं आनी चाहिए ऐसी नौबत कि किसी बूढ़े अम्बादास को अपना खेत जोतने के लिए बैल बनना पड़े। लेकिन इसे मनुष्य की कुछ भी कर सकने की क्षमता के रूप में भी देखा जा सकता है। कोई अम्बादास यह भूमिका निभाने के लिए विवश हो यह स्वयं उसके लिए नहीं, उस समाज और व्यवस्था के लिए भी शर्म की बात है जिसमें अम्बादास जी रहा है।
अम्बादास की विवश्ाता के लिए उस व्यवस्था को जवाब देना होगा जिसमें वह जी रहा है। बैल बने किसान की मदद के लिए कोई सोनू निगम आगे आया है, यह बात कुछ दिलासा देने वाली है। सोनू निगम ने अम्बादास के बैंक खाते का नंबर मांगा है, ताकि बैल खरीदने की राशि भेजी जा सके। यह किसी एक अम्बादास की समस्या का आंशिक हल हो सकता है, पर सवाल लाखों अम्बादासों का है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2022 में भारत में कृषि-क्षेत्र से जुड़े लगभग ग्यारह हज़ार किसानों और कृषि मज़दूरों ने आत्महत्या की थी। सन‍् 2014 में यह संख्या 5650 आंकी गयी थी। इन आत्महत्याओं के लिए मानसून की असफलता, कीमतों में वृद्धि, ऋण का बोझ आदि को उत्तरदायी बताया जा रहा है। राजधानी दिल्ली के दरवाजे पर हज़ारों किसानों का साल भर तक प्रदर्शन करते रहना सारी दुनिया ने देखा था। तब कृषि-कानूनों को वापस लेकर एक तरह से किसानों की मांगों को उचित ही ठहराया गया था। वे मांगें अभी भी पूरी नहीं हुईं।
इस बीच देश के अलग-अलग हिस्सों में किसान अपनी मांगें मंगवाने के लिए प्रदर्शन करते रहे हैं। हैरानी की बात तो यह है कि न तो साल भर के धरने ने सरकार को कुछ सार्थक करने की प्रेरणा दी और न ही किसानों की आत्महत्याएं सरकार के लिए किसी प्रकार की चेतावनी बन रही हैं। शायद अम्बादास के बैल बनने की विवशता से सरकार की नींद खुले।
बरसों पहले एक फिल्म आयी थी ‘मदर इंडिया’ इसमें नायिका को अम्बादास की तरह ही हल खींचते हुए दिखाया गया था। बचपन में देखी फिल्म का वह दृश्य आज भी आंखों में आंसू ला देता है। उम्मीद ही की जा सकती है कि उस फिल्म की यह पुनरावृत्ति–अम्बादास का हल जोतना–कहीं न कहीं ज़िम्मेदारी का भाव जगायेगी; आत्महत्या के लिए विवश किसानों के लिए कहीं कोई आंख नम होगी। पिछले पचपन साल से चल रहा आत्महत्याओं का यह सिलसिला हर कीमत पर बंद होना चाहिए। यह मामला राष्ट्रीय शर्म का है, पर ‘शर्म उनको मगर नहीं आती’ जिन्हें आनी चाहिए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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