कमजोर होता मजबूती देने वाला ‘फौलादी ढांचा’
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अपने हाथ में काफी शक्ति समेट ली है। राज्य और केंद्र, दोनों स्तरों पर, सिविल सेवाओं के सदस्यों की सापेक्षता में पुलिस ने काफी शक्ति पा ली है। यह ‘उपलब्धि’ उन्होंने राजनीतिक आकाओं के मनमाफिक औजार बनकर हासिल की है।
संजय बारू
महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे द्वारा खुद को गृह विभाग सौंपे जाने की मांग करने पर हैरानी नहीं होनी चाहिए। ठीक इसी तरह, इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं कि मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस यह महत्वपूर्ण महकमा अपने पास रखना चाहते हैं। देश भर में, योगी आदित्यनाथ से लेकर पिनाराई विजयन और ममता बनर्जी से लेकर चंद्रबाबू नायडू तक, हरेक मुख्यमंत्री ने गृह विभाग अपने पास रखा है।
आज राज्य और जिला स्तर के नेता तक को पता है कि प्रभावी राजनीतिक शक्ति दरअसल उसके हाथ में है जिसके अधीन कानून-व्यवस्था एवं खुफिया जानकारी जुटाने वाले विभाग होते हैं। एक समय था जब सरदार वल्लभभाई पटेल ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज के इस कथन को दोहराया था कि भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) देश का ‘स्टील फ्रेम’ (मजबूती देने वाला फौलादी ढांचा) है। लेकिन आज, देश भर में जिला स्तर पर भी, अधिकांश लोगों को मालूम है कि जिला कलेक्टर या मजिस्ट्रेट से अधिक शक्तिशाली पुलिस अधीक्षक है।
केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय में एक अलग कामकाजी माहौल है, जैसा कि पूर्व गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने एक बार मुझे समझाया था, जब उनके सहयोगी और तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति बनने का फैसला लिया, तो चिदंबरम ने नॉर्थ ब्लॉक के पूरबी विंग (गृह मंत्रालय) को छोड़कर पुनः पश्चिमी विंग (वित्त मंत्रालय) में जाने की इच्छा जताई। मैंने उनसे पूछा कि वह ऐसा क्यों करना चाहते हैं। आखिरकार, सरदार पटेल के दिनों से ही गृह विभाग को दूसरा सबसे अहम मंत्रालय माना जाता रहा है। वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने भी गृह मंत्रालय खुद को और वित्त मंत्री का कार्य यशवंत सिन्हा जैसे कनिष्ठ नेता को आवंटित करने को कहा। चिदम्बरम का जवाब तीखा और त्वरित था : ‘किसी संकट की स्थिति के अलावा गृह मंत्रालय में करने-धरने को कुछ विशेष नहीं होता। जबकि वित्त मंत्री का काम चौबीसों घंटे चलता है। मैं अभी भी युवा हूं। मुझे किसी प्रकार के सुस्त महकमे की जरूरत नहीं है।’
लेकिन जो चिदम्बरम ने नहीं बताया, वह यह है कि गृह मंत्री की असली शक्ति प्रमुख जांच एजेंसियों पर नियंत्रण में निहित है। हालांकि, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पद की सृजना होने के बाद, अधिकांश खुफिया एजेंसियों के प्रमुख सीधे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को और उसके माध्यम से प्रधानमंत्री को रिपोर्ट कर रहे हैं। दूसरी ओर, वित्त मंत्री के अधीन कुछ खुफिया एजेंसियां हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण प्रवर्तन निदेशालय है। आज, इनमें से कई एजेंसियां, जिनमें बाहरी भेदियों से निपटने वाली एजेंसियां भी शामिल हैं, समय-समय पर केंद्रीय गृह मंत्री को रिपोर्ट करती हैं, जिससे यह पद शक्तिशाली हो गया है।
राज्य स्तर पर, गृह मंत्रालय का नियंत्रण केवल कानून-व्यवस्था का प्रबंधन करने और खुफिया जानकारी हासिल करने तक ही सीमित नहीं है। सभी सिविल सेवाओं में पुलिस सबसे शक्तिशाली अंग बन गई है। भले ही केंद्र सरकार से जुड़े महकमों में नियुक्त आईएएस अधिकारियों का सामाजिक रुतबा अधिक माना जाता है, आर्थिक मंत्रालयों की अध्यक्षता करने वालों के अलावा दो शीर्ष पद- कैबिनेट सचिव और प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव की कुर्सी पर अभी भी उनका वर्चस्व है (हालांकि, पीएन हक्सर और ब्रजेश मिश्रा नियम के अपवाद थे) -लेकिन राज्यों की राजधानियों में उनका रोब-दाब प्रमुख पुलिस से नीचे है।
अपने तौर पर, भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) ने न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का कार्यालय पाया है बल्कि कई जांच एजेंसियों पर अपना नियंत्रण भी बढ़ाया है। साथ ही नौकरशाही प्रणाली के भीतर काफी शक्ति प्राप्त कर ली है। नौकरशाह ढांचे में, राज्य और केंद्रीय स्तर पर, आईएएस अधिकारियों की तुलना में आईपीएस अधिकारी कहीं अधिक शक्तिशाली बन गए हैं। आईएएस की तुलना में आईपीएस अधिकारी अधिक संख्या में राज्यपाल बने हैं। नई दिल्ली के सत्ता तंत्र में, यह सुनिश्चित करते हुए कि अन्य मंत्रालयों के तहत आती जांच एजेंसियों के प्रमुख भी केंद्रीय गृह मंत्री को रिपोर्ट करेंगे, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अपने हाथ में काफी शक्ति समेट ली है। राज्य और केंद्र, दोनों स्तरों पर, सिविल सेवाओं के अन्य सदस्यों की सापेक्षता में पुलिस ने काफी शक्ति पा ली है। यह ‘उपलब्धि’ उन्होंने राजनीतिक आकाओं के मनमाफिक औजार बनकर हासिल की है।
चार दशक पहले की एक सच्ची कहानी बताता हूं। उस समय मैं हैदराबाद विश्वविद्यालय के शिक्षक संकाय में कार्यरत था। मेरा एक छात्र अपनी मास्टर डिग्री पूरी करने के बाद डॉक्टरेट करना चाहता था। जबकि मुख्यमंत्री सचिवालय में गैर-आईएएस सचिव के पद पर तैनात उसके पिता चाहते थे कि बेटा सिविल सेवा परीक्षा दे और आईएएस अधिकारी बने। लेकिन पुत्र अपनी पसंद पर अड़ा हुआ था। इसलिए, पिता ने अपने बॉस और आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चेन्ना रेड्डी, जो कि तेलंगाना के एक दिग्गज और शक्तिशाली राजनेता थे, उनसे अनुरोध किया कि वे बेटे को ‘समझाएं’। रेड्डी ने लड़के को बुलाया और उसके मन की सुनी। उन्होंने पिता से कहा कि वे उन्हें अकेला छोड़ दें। युवक को अपने कमरे में बैठाकर, उन्होंने अपने प्रमुख सचिव, एक आईएएस अधिकारी, को बुलाया। अधिकारी अंदर आया, बैठा, मुख्यमंत्री की कही बातें नोट की और बाहर चला गया। फिर रेड्डी ने अपने सुरक्षा प्रमुख, एक आईपीएस अधिकारी, को बुला भेजा। वर्दीधारी वह अधिकारी अंदर आया, उसने मुख्यमंत्री को चुस्त सलामी दी और खड़ा रहा। रेड्डी ने उसे किसी चूक के बारे में डांटा। अधिकारी, जो अभी भी खड़ा था, उसने माफी मांगी, फिर से सलामी दी और जाने की अनुमति मांगी।
रेड्डी फिर उस युवक की ओर मुड़े और कहा : ‘कल, तुम्हारे एक प्रोफेसर मुझसे मिलने आए थे। उन्होंने नाना आरोपों से भरा एक ज्ञापन सौंपा। उन्होंने मुझे इस बारे में खूब सुनाया कि मेरी सरकार कितनी अयोग्य और भ्रष्ट है। मुझे उन्हें सुनना पड़ा। बल्कि, मैंने उन्हें एक कप चाय भी पिलाई। सो, आज, तुमने देखा कि अधिकारियों और मुख्यमंत्री के बीच व्यवहार कैसा रहता है। अगर तुम पीएचडी करोगे और एक प्रोफेसर बनोगे और किसी मुख्यमंत्री से मिलने जाओगे, तो तुम्हारे साथ उचित सम्मान से पेश आया जाएगा। अगर तुम आईएएस बनोगे, तो तुम्हें संभालने के लिए दिलचस्प जिम्मेदारियां मिल सकती हैं। यदि एक पुलिस अधिकारी बन गए, तो मेरे जैसे राजनेताओं को सलाम ठोकनी पड़ेगी। अब यह तुम तय करो कि कैसी ज़िंदगी चाहिए।’
लड़का दंग रह गया, जबकि उसके पिता मुख्यमंत्री के दिए इस छोटे से सबक से असंतुष्ट थे। वह युवक बाद में अमेरिका चला गया। जब मैंने यह किस्सा उसके मुंह से सुना, तो रेड्डी के लिए मेरा सम्मान एकाएक बढ़ गया। अपनी पीढ़ी की तरह वे भी अलग किस्म के राजनेता थे। आज की तरह वे लोग निर्लज्ज होकर सत्ता का इस्तेमाल नहीं करते थे।
तीस साल पहले, एनएन वोहरा, एक प्रतिष्ठित सिविल नौकरशाह, जिन्होंने केंद्रीय गृह सचिव, रक्षा सचिव और जम्मू और कश्मीर के राज्यपाल जैसे प्रतिष्ठित पदों पर कार्य किया, उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव द्वारा बनाई समिति के तहत एक रिपोर्ट दी। रिपोर्ट ‘पुलिस, राजनेता, अपराध सिंडिकेट और माफिया के बीच सांठ-गांठ’ की जांच पर आधारित थी। वर्ष 1993 की इस बेहद संवेदनशील रिपोर्ट का सारांश तो सार्वजनिक किया गया, लेकिन पूरी सामग्री नहीं। विडंबना है कि आज अपराधियों, राजनेताओं और पुलिस के बीच सांठ-गांठ एक सामान्य राष्ट्रव्यापी चलन है। वोहरा समिति की रिपोर्ट का मुख्य फोकस महाराष्ट्र पर केंद्रित था। कोई हैरानी नहीं कि उस सूबे में सत्ताधारी गठबंधन के भागीदारों के बीच गृह विभाग पाने को लेकर खींचतान बनी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।