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कट्टरपंथियों के वर्चस्व से बढ़ी वैश्विक चिंताएं

04:00 AM Dec 28, 2024 IST

अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद जिस तरह से दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में इस्लामिक चरमपंथ का उभार हो रहा है, उसे देखते हुए सीरिया की सत्ता पर काबिज एचटीएस लोकतांत्रिक व्यवस्था के मार्ग पर आगे बढ़ेगा, यह संदेहास्पद ही है।

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डॉ. एन.के. सोमानी

पिछले दिनों मिडल ईस्ट के सीरिया में जो तख्तापलट की घटना हुई उसके बाद अरब स्प्रिंग फिर चर्चा के केन्द्र में आ गया है। अरब स्प्रिंग या क्रांति के दौरान मध्यपूर्व में दशकों से सत्ता के केन्द्र में रहे शाही परिवारों व सैन्यशासकों को रुख्सत होना पड़ा था। सैन्य शासकों की ज्यादतियों और तानाशाही के खिलाफ ट‍्यूनीशिया में जो चिंगारी सुलगी उसने अरब गणतंत्र की कई बड़ी शक्तियों को अपनी जद में ले लिया था। मिस्र के हुस्नी मुबारक हो या लीबिया के कर्नल गद्दाफी- इन तनाशाही शासकों को या तो देश छोड़कर भागना पड़ा या मौत के घाट उतार दिए गए। यमन के अली अब्दुल्ला सालेह के साथ भी ऐसा ही हुआ। तानाशाहों की सत्ता किस तरह से कुछ ही क्षणों में भरभराकर गिर जाती है, उस वक्त दुनिया ने देखा था। रूस और ईरान जैसी बड़ी ताकतों के साथ मिल जाने के कारण उस वक्त सीरिया का ‘प्रेसिडेंशियल पैलेस’ विद्रोहियों की पहंुच से बच गया था। अब जिस ढंग से सीरिया में तानाशाह राष्ट्रपति बशर-अल-असद को देश छोड़कर भागना पड़ा है उसे देखकर अरब स्प्रिंग की याद ताजा हो जाती हैै।
तख्तापलट के बाद विद्रोही गुट हयात तहरीर अल-शाम (एचटीएस) के नेता मोहम्मद अल-जुलानी ने मोहम्मद अल-बशीर को कार्यवाहक सरकार का मुखिया नियुक्त करते हुए जन सहमति से सरकार बनाने की बात कही है। उन्होंने अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देने का वादा किया है। लेकिन साथ में उन्होंने यह भी कहा है कि शासन इस्लामिक सिद्धातों पर आधारित होगा। इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) की वजह से सीरिया पहले से ही काफी खराब स्थिति में है। अब जुलानी की जिस तरह से इस्लामिक सिद्धांतों के आधार पर शासन चलाने की योजना है उससे वैश्विक समुदाय की चिंता बढ़ गई है। खासतौर से ईरान की।
तख्तापलट के बाद जिस तरह से विद्रोही गुट के लड़ाकों की ओर से असद समर्थकों पर अत्याचार की तस्वीरें सामने आ रही हैं, उसे देखते हुए यह सवाल उठने लगा है कि कहीं सीरिया फिर से आईएसआईएस की गिरफ्त में तो नहीं आ जाएगा। यह सवाल इसलिए भी अहम हो जाता है क्योंकि एचटीएस अलकायदा की कोख से ही निकला हुआ आतंकी संगठन है। सीरिया में शासन व्यवस्था का स्वरूप कैसा होगा यह देखना भी काफी दिलचस्प होगा। एचटीएस नेतृत्व वाले समूह में तुर्किये की समर्थन वाली सीरिया राष्ट्रीय सेना अर्थात‍् एसडीएफ के शामिल होने की बात भी कही जा रही है। अगर ऐसा होता है तो सीरिया की पूरी व्यवस्था एचटीएस, कुर्द, एसडीएफ और स्थानीय मिलिशिया समूहों में बंटी हुई दिखाई देगी।
ऐसे में अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित और परस्पर विपरीत हितों के लिए संघर्षरत इन गुटों के बीच एकता और शांति की बात करना हाथी को सूई के छेद से निकालने के बराबर होगा। ऐसे में सीरिया और उसकी अवाम का भविष्य क्या होगा, यह प्रश्न भी कौतूहल बढ़ा रहा है। पूरे घटनाक्रम का सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि क्रांति के दौरान रूस और ईरान जैसे देशों द्वारा राष्ट्रपति बशर-अल-असद और उनके समर्थकों को जो हथियार दिए गए थे, उनका क्या होगा। हथियारों का यह जखीरा सीरिया की सत्ता पर काबिज चरमपंथी गुटों के हाथ लग गया तो इसका उपयोग वह कब, कहां और किस रूप में करेंगे, यह प्रश्न सीरियाई अवाम के लिए जितना चिंताजनक है, उससे कहीं अधिक विश्व समुदाय के लिए भी है।
कुल 3.35 करोड़ की आबादी वाला सीरिया आर्थिक व भू-राजनीतिक दृष्टि से पश्चिम एशिया का अत्यंत महत्वपूर्ण देश है। इसकी सीमाएं इराक, तुर्कीये, जॉर्डन, लेबनान व इस्राइल जैसे देशों से लगती हैं। सीरिया पर नियंत्रण अहम व्यापार मार्गों, ऊर्जा गलियारों तक पहुंच प्रदान करता है। पश्चिमी एशिया में वह रूस का सबसे भरोसेमंद पार्टनर रहा है। ऐसे में सवाल यह भी उठ रहा है कि अचानक असद की सत्ता का अंत कैसे हो गया।
दरअसल, अरब स्प्रिंग के दौरान जब सीरिया में बशर-अल-असद के खिलाफ प्रदर्शनाें का सिलसिला शुरू हुआ तो उस वक्त रूस और ईरान की मदद से असद उसे कुचलने मेें कामयाब हो गये थे। लेकिन अब स्थिति पूरी तरह से बदल चुकी है। रूस और ईरान दोनों ही अपनी-अपनी समस्याओं में उलझे हुए हैं। पुतिन यूक्रेन को निपटाने में व्यस्त हैं। अली खामेनेई इस्राइली मोर्चे पर डटे हुए हैं। रणनीतिक हित और भू-राजनीतिक स्थितियां भी दोनों नेताओं के हाथ बांधेेे हुए हैं। रूस को लगता है कि यूक्रेन युद्ध अब अपने अंतिम चरण में है। ऐसे में वह यूक्रेन के अधिक से अधिक भू-भाग पर कब्जा करना चाहता है ताकि संघर्ष विराम की स्थिति में वह उसे अपने पास रख सके। इस रणनीतिक हित के कारण वह अपनी पूरी सैन्य क्षमता के साथ यूक्रेन के मोर्चे पर डटे रहना चाहता है। दशकों तक असद की ढाल बने रहने वाला ईरान भी हमास और हिजबुल्ला के सर्वोच्च कमांडरों के मारे जाने के बाद खौफ की स्थिति में है। अमेरिका और इस्राइली हमले के अंदेशे के चलते वह सीरिया में सीधे हस्तक्षेप से बच रहा है। लब्बोलुआब यह कि 2011 जैसी स्थिति अब नहीं थी। ऐसे में रूस और ईरान की नाक का बाल बने असद अकेले पड़ गए थे। विद्रोही गुटों ने हालात का फायदा उठाया और दमिश्क पर चढ़ाई कर दी।
हालांकि, पिछले कई वर्षों से असद की शिया सरकार और विभिन्न चरमपंथी गुटों के बीच संघर्ष चल रहा था। लेकिन जिस नाटकीय ढंग से असद सरकार का पतन हुआ और जिस तरह से वहां की फौज ने बिना लड़े ही हथियार डाले हैं, उस पर भी सवाल उठ रहे हैं। अब असद सरकार के पतन के बाद जिस तरह से इस्राइली सेनाओं द्वारा गोलान के पहाड़ी रास्तों से सीरिया के अंदर हमले करने के समाचार आ रहे हैं, उससे शक की सूई मोसाद (इस्राइल की खुफिया एजेंसी) की ओर भी घूम रही है। पश्चिम एशिया में इस्राइल ही एक ऐसा देश है जिसे असद सरकार के पतन का सबसे बड़ा लाभकारी पक्ष कहा जा रहा है। वह शुरू से ही यहां सीमाओं के विस्तार और बफर जोन के निर्माण की नीति में जुटा हुआ है। सीरियाई सेना की क्षमता को कुंद करना उसका इसी नीति का हिस्सा हो सकता है।
हालांकि, असद सरकार के पतन के बाद अब दुनिया के कई ताकतवर देश वहां हालात सामान्य बनाने की कोशिशों में लगे हुए हैं लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद जिस तरह से दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में इस्लामिक चरमपंथ का उभार हो रहा है, उसे देखते हुए सीरिया की सत्ता पर काबिज एचटीएस लोकतांत्रिक व्यवस्था के मार्ग पर आगे बढ़ेगा, यह संदेहास्पद ही है।

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लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के प्राध्यापक हैं।

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