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ऋषिकर्म का धर्म

11:35 AM May 22, 2023 IST

दुनिया के किसी भी सभ्य समाज में मार्गदर्शक पेशों, कानून के रक्षकों और सेहत के संरक्षक चिकित्सकों से जनता की आस रहती है कि वे अपने पेशे के उच्च मानकों का पालन करें। वजह यह कि उनके दायित्व किसी वेतनभोगी व निर्धारित कार्यावधि के तय मापदंडों से परे माने जाते हैं। यही कारण है कि प्राचीन काल में गुरु की महिमा की अनंत गाथा हमारे पौराणिक आख्यानों तथा साहित्य में मिलती है। इसकी वजह यह भी थी कि गुरु लौकिक सुख की परवाह किये बिना शिष्य के सर्वांगीण विकास को अपना ध्येय मानता था। निस्संदेह, किसी भी पेशे के व्यक्ति का सम्मान इस बात पर निर्भर है कि वह निजी हितों के बजाय समाज के हितों को कितना महत्व देता है। समाज में शिक्षक, सैनिक, चिकित्सक, न्यायाधीश, पत्रकार, साहित्यकार को शेष व्यवसायों से जुड़े लोगों पर अधिमान दिया जाता रहा है। जिसके मूल में यही सोच काम करती है कि समाज के ये लोग अपनी सुख-सुविधाओं के बजाय समाज के व्यापक हितों को प्राथमिकता दें। नीर-क्षीर विवेक से अपने दायित्वों का निर्वहन करें। दरअसल, यह सम्मान समाज के इन नियामक पेशे से जुड़े लोगों को इनके गुरुतर दायित्व का बोध भी कराता है। निस्संदेह, सरकार व राजाश्रय से मिलने वाली सुख-सुविधाओं के विस्तार के साथ ऋषिकर्म की प्रतिष्ठा का क्षरण एक स्वाभाविक प्रतिफल है। यदि हम आज स्वतंत्रता संग्राम में आहुति देने वाले राजनेताओं, वकीलों, शिक्षकों, साहित्यकारों व पत्रकारों को आदर से याद करते हैं तो उसके मूल में उनके त्याग से गुरुतर सामाजिक दायित्वों का निर्वहन ही है।

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हाल ही की एक खबर के अनुसार एक विश्वविद्यालय के शिक्षकों की लंबी कोशिशों के बाद उनकी छुट्टियों को विस्तार मिला है। निस्संदेह, छुट्टी हर व्यक्ति की आकांक्षा है। भारत दुनिया के उन गिने-चुने देशों में शामिल है जहां साप्ताहिक अवकाश के अलावा तमाम पर्व-त्योहारों व राष्ट्र के नायकों की स्मृति में अवकाश की परंपरा है। सवाल यहां उच्च शिक्षा में अध्यापन की समय अवधि का भी है। जिसके मूल में सोच यही रही होगी कि अध्यापन को जीवंत बनाने के लिये अध्ययन, शोध और अनुसंधान को विस्तार देने के लिये पर्याप्त समय मिल सके। निस्संदेह, शिक्षा की गुणवत्ता हर व्यवस्था की प्राथमिकता होती है,ताकि देश की नयी पीढ़ी को समय की जरूरत के मुताबिक आधुनिक व व्यावहारिक शिक्षा मिल सके। उन संस्थानों में एक जिम्मेदार नागरिक के गुणों के साथ कौशल विकास का वातावरण मिल सके। पुराने समय में कहावत भी रही है कि एक शिक्षक का दायित्व एक घड़े की तरह शिष्य के व्यक्तित्व को आकार देना होता है। तेज भागती दुनिया में शिक्षा भी बहुत तेजी से बदलाव के दौर से गुजर रही है। हमें आज विद्यार्थी यानी भावी मानव संसाधन देश के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय जरूरतों के मुताबिक तैयार करने की जरूरत है। यह तभी संभव है जब उनके व्यक्तित्व निर्धारण में शिक्षक पर्याप्त समय देंगे। संक्रमणकाल के दौर से गुजरते समाज में अभिभावक भी वैसा ध्यान आमतौर पर नहीं दे पाते जैसा विद्यार्थी के जीवन को संवारने के लिये जरूरी है। ऐसे में गुरुजनों का दायित्व और अधिक बढ़ जाता है।

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