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ऊंची बनी अटारियां

04:00 AM Jun 08, 2025 IST
डॉ. राजेंद्र कनोजिया
ऊंची बनी अटारियां,
ख़ाली पड़े मकान,
दिल का कोना न भरे–
क्या सोना, क्या धान?
मिल कर दिल की बात कह,
उसकी भी तो मान,
आंखों से जो कह सके–
फिर क्या कहे ज़ुबान?
मेरे सुख को देख कर
देहरी हुई उदास,
रिश्तों की गंभीरता–
है कुदरत का ज्ञान।
हर चेहरे में ग़ैर है,
थोड़ी-सी मुस्कान,
अचरज से है देखता–
सच का बिका मकान।
भूख चुरा कर ले गई,
बचपन के सब खेल।
रोटी के आगे झुकी,
बचपन की मुस्कान।
मेरे आगे है खड़ा–
मेरा कोई रूप,
मेरी जेब में ढूंढ़ता
वो अपनी पहचान।
छाया से छाया मिली,
छूटा सब अभिमान।
पवन उड़ा कर ले गई
ऊंची उड़ी पतंग,
डोर कटी तो ढूंढ़ती–
कौन तुम्हारे संग?
अकेला
मैं – पिता हूं,
और अकेला।
साथ में परिवार के रिश्ते बहुत हैं,
व्यस्त हैं सब...
और मैं – अकेला।
रिश्ते, चेहरे, नाम–
सब हैं।
मैं – पिता हूं,
और अकेला।
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