उपाधि और व्याधि
सन् 1955 की बात है। राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद धर्मग्रन्थों तथा धार्मिक साहित्य के अनन्य प्रचारक ‘गीता प्रेस’ के संस्थापक भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार को देश के स्वाधीनता संग्राम एवं धार्मिक जागरण अभियान में अनूठे योगदान के लिए 'भारत रत्न' से अलंकृत कराना चाहते थे। राजेन्द्र बाबू ने गृहमंत्री गोविन्द बल्लभपंत को उनसे 'भारत रत्न' ग्रहण करने की स्वीकृति लेने का दायित्व सौंपा। पंत जी गोरखपुर गए तथा भाई जी से भेंट कर उन्हें राजेन्द्र बाबू का पत्र थमा दिया। भाई जी ने पत्र पढ़ा और विनम्रता के साथ कहा- ‘पंत जी मेरे हृदय में राजेन्द्र बाबू के प्रति अगाध श्रद्धा है किन्तु मैं उनका यह अनुरोध स्वीकार न कर पाऊंगा। मैं किसी भी उपाधि को अपने लिए व्याधि मानता हूं। इस व्याधि से बचने का मार्ग आप ही सुझाइए।' दिल्ली पहुंचने के बाद पंत जी ने राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को भाई जी की अस्वीकृति की सूचना दी। उन्होंने भाई जी को पत्र लिखा, ‘आज हमें यह अनुभव हुआ है कि वास्तव में आप तो इस उपाधि से बहुत ऊंचे हैं।’
प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी