उत्तराखंड में यू.सी.सी़
उत्तराखंड समान नागरिक संहिता को लागू करने वाला देश का पहला राज्य होगा। सोमवार को मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की अध्यक्षता में कैबिनेट ने समान नागरिक संहिता नियमावली 2025 को मंजूरी दे दी है। इसके तहत विवाह, विवाह विच्छेद, उत्तराधिकार, लिव इन रिलेशन आदि के प्रावधान शामिल किए गए हैं। सरकार का दावा है कि यूसीसी के कुशल क्रियान्वयन के लिये अत्याधुनिक तकनीक आधारित व्यवस्थाएं लागू की गई हैं। जिसके लिए नागरिकों व अधिकारियों के लिये ऑनलाइन पोर्टल तैयार किए गए हैं। यूसीसी के अंतर्गत विभिन्न पंजीकरण मसलन विवाह, तलाक, विवाह शून्यता, लिव इन रिलेशन, वसीयत आदि होंगे। सरकार ने त्वरित पंजीकरण के लिये अलग शुल्क भी निर्धारित किए हैं। सरकार का दावा है कि लिव इन रिलेशन के पंजीकरण व समाप्ति की प्रक्रिया को सरल बनाया गया है। एक साथी की ओर से समाप्ति के आवेदन पर दूसरे की पुष्टि अनिवार्य होगी। उल्लेखनीय है कि समान नागरिक संहिता के वेबपोर्टल के उपयोग की शुरुआत फिलहाल सरकार की मॉक ड्रिल का हिस्सा होगा। निस्संदेह, देश में पहली बार समान नागरिक संहिता को लागू करना उत्तराखंड सरकार का ऐतिहासिक कदम है। जो सभी धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों को मानकीकृत करने के लक्ष्य को निर्धारित कर राज्य में समानता और न्याय की राह में कदम बढ़ाता है। हालांकि, कानून के विशेषज्ञ कुछ खमियों की ओर भी इशारा करते हैं। फाइलों में यह कोड एक साहसिक दृष्टिकोण को दर्शाता है। मसलन विवाह व लिव इन संबंधों का अनिवार्य पंजीकरण, बहुविवाह और निकाह हलाला पर प्रतिबंध और बच्चों के लिये समान विरासत अधिकार देता है, चाहे उनके माता-पिता की वैवाहिक स्थिति कुछ भी हो। दूसरे शब्दों में स्त्री के अधिकारों को संरक्षण प्रदान करके समतामूलक समाज की स्थापना का वायदा करता है। एक मायने में यह लैंगिक न्याय और प्रगतिशील सोच व आधुनिक मूल्यों का प्रतीक है। लेकिन जब हम इसके प्रावधानों का गहराई से मूल्यांकन करते हैं तो कई तरह की विसंगतियां सामने आती हैं।
दरअसल,कई मुद्दों पर व्यापक विमर्श की कमी को लेकर भी सवाल उठते हैं। कुछ लोग समलैंगिक विवाहों की स्वीकार्यता के प्रश्न का जिक्र करते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यूसीसी के प्रावधानों में गोद लेने के कानूनों पर खामोशी क्यों है? सवाल यह है कि क्या ये प्रयास व्यापक सुधारों को अंजाम दे पाएंगे? या फिर ये महज पैचवर्क की कवायद मात्र है? सरकार की दलील है कि सांस्कृतिक रूप से संवेदनशीलता को ध्यान रखते हुए अनुसूचित जनजातियों को इसमें छूट दी गई है। सवाल उठाये जा रहे हैं कि क्या इससे समान नागरिक संहिता के आदर्श लक्ष्यों की पूर्ति होती है? इसको लेकर एकरूपता के सवाल उठाते हुए कहा जा रहा है कि क्या यूसीसी का सार इसे सभी पर समान रूप से लागू करना नहीं है? आलोचकों का कहना है कि इस मुद्दे पर पर्याप्त विधायी बहस नहीं हो पायी है। यह भी कि इस गंभीर मुद्दे पर सर्वसम्माति बनाने के लिये वास्तविक प्रयास नहीं हुए। बजाय इसके इसे जल्दीबाजी में अंजाम दिया गया। विपक्षी लोगों का कहना है कि इस गंभीर मुद्दे पर लोगों की सक्रिय भागीदारी होनी चाहिए थी और सभी लोगों की आवाजें पर्याप्त रूप से सुनी जानी चाहिए थीं। यदि ऐसा नहीं हो पाया है तो इसे हम कैसे सब लोगों का कानून कह सकते हैं? कुछ लोगों की दलील है कि कुछ प्रावधान नैतिक पुलिसिंग के करीब हैं। दंड के साथ लिव इन संबंधों का अनिवार्य पंजीकरण निष्पक्षता सुनिश्चित करने की तुलना में अनुरूपता को लागू करने का प्रयास अधिक लगता है। कुछ का कहना है कि इसमें उत्तराधिकार को लेकर औपनिवेशिक युगीन अपरिवर्तित कानूनों की छाया नजर आती है। तो क्या समान नागरिक संहिता एक सुधारवादी प्रकाश स्तंभ की भूमिका निभा पाएगा? निस्संदेह, यह पहला कदम उठाने के लिये उत्तराखंड सरकार को श्रेय दिया जा सकता है। लेकिन समान नागरिक संहिता की मुहिम की आगे की राह अधिक साहस और रचनात्मकता की मांग करती है। यदि इस पहल से राष्ट्र को प्रेरित करना है, तो इसे प्रगतिशीलता से आगे बढ़ना चाहिए। सही मायनों में इसे भारत के आधुनिक, बहुलवादी लोकाचार को प्रतिबिंबित करना चाहिए।