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आस्था, परंपरा और स्वास्थ्य का वैश्विक वृक्ष

04:00 AM Jul 11, 2025 IST
आस्था  परंपरा और  स्वास्थ्य का वैश्विक वृक्ष
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जैतून के पत्तों के ताज को आलिव व्रीथ कहा जाता है। पुराने समय में ओलम्पिक खेलों में केवल एक विजेता को आलिव व्रीथ पहनाई जाती थी। आलिव व्रीथ विजय और शन्ति का प्रतीक माना जाता है।

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डॉ. इरफाना बेगम
शांति, सम्मान और समानता के लिये गठित संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के नीले में झण्डे जैतून की दो शाखों से विश्व का नक्शा घिरा हुआ है जो वैश्विक शान्ति का प्रतीक माना जाता है। वहीं कबूतर के मुंह में जैतून की शाख को भी विश्व शान्ति का प्रतीक माना जाता है। बाइबिल के सन्दर्भ में माना जाता है कि कबूतर ने नूह के पास जैतून की एक शाखा लाकर जलप्रलय समाप्त होने के संकेत दिया था। भारतीय संस्कृति धर्मों और संप्रदायों का एक गुलदस्ता होने के कारण धर्म में जैतून विभिन्न धर्मों के अनुयायी अपनी आस्था के अनुसार इसका उपयोग करते हैं। इसका उपयोग अलग-अलग रूपों में लगभग सभी धर्मो में पवित्रता, शान्ति और स्वास्थय वर्धक के तौर पर किया जाता है।
जैतून के तेल के उपयोग सबसे पहले धार्मिक अनुष्ठानों मूर्तिपूजक समारोहों से हुई है। प्राचीन मिस्र, ग्रीस और रोम के पुजारी अपने बलिदान और देवताओं को चढ़ाने में जैतून के तेल का इस्तेमाल करते थे। निर्गमन के अनुसार भगवान ने मूसा को बताया कि यह एक पवित्र अभिषेक तेल है। यह ईसाई धर्म में चार सबसे महत्वपूर्ण प्रतीकों में से एक है। साथ ही कुरान की कई सूरः और हदीस के नजरिये से इसके फल और तेल स्वास्थ्यवर्धक माना गया है। हिन्दू पौराणिक कथा के अनुसार जैतून का तेल लक्ष्मी से जुड़ा है जो धन और समृद्धि का प्रतीक है। इस प्रकार देखा जाये तो जैतून और इसका तेल आस्था के तौर पर सभी धर्मों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। अंतर्राष्ट्रीय जैतून परिषद द्वारा संकलित इतिहास के अनुसार, 12वीं सहस्राब्दी ईसा पूर्व के पत्तों में पाए गए जैतून के सबसे पुराने जीवाश्म साक्ष्य इटली के मोंगार्डिनो के अतिरिक्त शुरुआती अभिलेख उत्तरी अफ्रीकी जीवाश्म पैलियोलिथिक काल में मिले अन्य स्थानों के साक्ष्यों से इन पेड़ों का भूमध्यसागरीय बेसिन का मूल निवासी होना पता चलता है।
जैतून के पत्तों के ताज को आलिव व्रीथ कहा जाता है। पुराने समय में ओलम्पिक खेलों में केवल एक विजेता को आलिव व्रीथ पहनाई जाती थी। आलिव व्रीथ विजय और शन्ति का प्रतीक माना जाता है। 2004 के ग्रीस, एथेंस में आयोजित ग्रीष्मकालीन ओलंपिक में आलिव व्रीथ को आखिरी बार इस्तेमाल किया और भारत की ओर से इसे पहनने वाले अन्तिम खिलाड़ी कैप्टन राजवर्धन सिंह राठौड़ रहे हैं जिन्होंने 2004 के ओलम्पिक में शूटिंग में रजत पदक हासिल किया था। लेकिन ओलंपिक के लिए शांति और खेलों की सार्वभौमिकता का प्रतीक बनाने के लिए 2021 में पेरिस में ओलंपिक हाउस के बगीचे में एक जैतून का पेड़ लगाया गया था।
ओलियेसी कुल के इस पेड़ की सौ से भी अधिक प्रजातियां हैं, जिनमें से भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली प्रजाती जलपाई या सीलोन श्रीलंका की मूल प्रजाती है जिसका वैज्ञानिक नाम एलियसेकार्पस सेराटस है। केवल कुछ जैतून प्रजातियां ही पेड़ पर मीठी होती हैं। ओलेरोपिन नामक यौगिक के कारण यह कच्चा खाने मे कडवा लगते हैं। इसलिये प्रारंभिक मानव सभ्यताओं ने इसे सीधे खाने के स्थान पर ईंधन, दवा मरहम और धार्मिक अनुष्ठानों, योद्धाओं और अन्य लोगों के लिए अभिषेक के रूप में इस्तेमाल करना शरू किया। वर्ष 2017 में जर्नल ऑफ फार्माकोग्नॉसी एंड फाइटोकेमिस्ट्री में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार भारतीय जैतून जलपाई के फलों में कई औषधीय गुण हैं इस में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, खनिज पदार्थ और इसकी सूखी पत्तियों में विटामिन-सी होती है। एक अन्य अध्ययन में कहा गया है कि इसके फलों का उपयोग पेचिश और दस्त के इलाज के लिए किया जाता है। इसका उपयोग सूजे हुए मसूड़ों के इलाज के लिए भी किया जाता है। जैतून का तेल दूसरे वनस्पति तेलों की तरह ज्यादा वसा यानी कि चिकनाई वाला होता है लेकिन इसकी मुख्य चिकनाई मोनोअनसैचुरेटेड फैटी एसिड (या म्यूफा) वाली होती है इस कारण अधिक कैलोरी वाला खाद्य होने के बाद भी यह स्वास्थ्य वर्धक भोज्य माना जाता है लेकिन सीमा से ज्यादा उपयोग नुकसानदेह हो सकता है।
जैतून के पेड़ भूमध्यसागरीय क्षेत्र के मूल निवासी हैं। सर्वोत्तम विकास के लिए इसे गर्म से उपोष्णकटिबंधीय जलवायु की आवश्यकता होती है। हालांकि जैतून एक आयातित विदेशी पौधा है लेकिन इसके सामाजिक सांस्कृतिक और औषधीय महत्व ने इसे भारत में भी एक उल्लेखनीय स्थान प्रदान किया है। आईओसी के कार्यकारी सचिवालय के अनुसार, दुनिया के शीर्ष चार जैतून उत्पादक स्पेन, इटली, तुर्की और ग्रीस हैं। भारत में राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और जम्मू और कश्मीर प्रमुख जैतून उत्पादक राज्य हैं। भारत में जैतून की खेती अभी भी प्रारंभिक अवस्था में है और इसका पारिस्थितिक प्रभाव अभी ज्ञात नहीं है। अपने औषधीय गुण, परम्परा और आस्था के महत्व और मान्यता के आधार पर भारतीय न होते हुए भी यह पेड़ अपनी जड़ें भारत में मजबूत कर रहा है। फोटो साभार : विनयराज, दिनेश वाल्के

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