आध्यात्मिक चेतना जगाने वाले क्रांतिकारी संत
स्वामी विवेकानंद ने अपनी अद्वितीय वाणी और आध्यात्मिक दृष्टि से न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया में भारतीय संस्कृति और वेदांत के विचारों को पुनः स्थापित किया। उनका जीवन और शिक्षाएं आज भी मानवता को प्रेरित करती हैं, जो आत्म-साक्षात्कार और सेवा के मार्ग पर चलने की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान करती हैं।
चेतनादित्य आलोक
रत्नगर्भा भारत भूमि पर अनेक महान विभूतियां अवतरित हो, मानवता को प्रकाश के मार्ग पर ले जाने का कार्य करती रही हैं। ऐसे ही रत्नप्रवर एवं ओजस्वी महापुरुष स्वामी विवेकानन्द (12 जनवरी, 1863 - 4 जुलाई, 1902) जी हुए, जिन्होंने औचित्यपूर्ण विवेक-बुद्धि एवं आध्यात्मिक आनन्दानुभूति के माध्यम से भारतीय मनीषा को वैश्विक मंच पर पुनः स्थापित करने का कार्य किया। स्वामीजी की आध्यात्मिक यात्रा एक महावाक्य ‘तत्त्वमसि’ से आरम्भ होकर ‘अहं ब्रह्मास्मि’ के अनुभव-वाक्य में पर्यवसित हुई। इनके गुरु और महानतम संत स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने आध्यात्मिक शक्तियों के अध्यारोपन यानी ‘आत्म-साक्षात्कार’ द्वारा इन्हें यह अनुभव करा दिया था कि वास्तव में हमारे भीतर ही परमात्मा हैं... ये ही ईश्वर हैं। तात्पर्य यह कि महावाक्य ‘तत्त्वमसि’ की शाश्वत अनुभूति से ही नरेन्द्रनाथ के भीतर स्वामी विवेकानन्द का प्रादुर्भाव हुआ। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ‘आत्म-साक्षात्कार’ के अनन्तर ही स्वामी जी की वेदान्त-दृष्टि जाग्रत हुई और वे ‘नरेंद्रनाथ’ से ‘स्वामी विवेकानन्द’ बने।
गुरु रामकृष्ण का आत्मीय लगाव
आध्यात्मिक यात्रा आरंभ करने से पहले स्वामी विवेकानंद का नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। वैसे तो स्वामी रामकृष्ण परमहंस के अनेक शिष्य हुए, किंतु स्वामी विवेकानंद से उनको बेहद लगाव था। कुछ लोग मानते हैं कि गुरु रामकृष्ण जानते थे कि इस लड़के में संप्रेषण की जरूरी समझ है। इसलिए वे इनको अपने संदेशवाहक के रूप में देखते थे, क्योंकि वे स्वयं यह कार्य नहीं कर सकते थे। हालांकि, सत्य तो यह है कि रामकृष्ण परमहंस शक्तियों से परिपूर्ण और माता काली के परम भक्त होने के बावजूद बेहद सरल एवं मासूमियत से भरे व्यक्ति थे। विवेकानंद से उनको बेहद आत्मीय लगाव था। इसीलिए सब कुछ एवं सभी लोगों, यहां तक कि मां शारदा के भी निकट मौजूद रहने के बावजूद अपने परम प्रिय शिष्य विवेकानंद को निकट न पाकर वे बेचैन हो जाते थे। उनके आस-पास के लोग भी कभी यह समझ नहीं पाए कि वे विवेकानंद को लेकर इतने बेचैन क्यों थे कि यदि एक दिन भी विवेकानंद उनसे मिलने नहीं आते, तो वे इनको ढूंढ़ने निकल जाते थे। विवेकानंद भी अपने गुरु के लिए उतने ही समर्पित थे। ये भी प्रति क्षण गुरु का अनुसरण करते थे।
क्रांतिकारी संन्यासी
असीम ऊर्जा के स्रोत, ओजस्वी वाणी के स्वामी, विराट व्यक्तित्व एवं आत्मीय प्रेम से परिपूर्ण हृदय वाले स्वामी विवेकानंद एक अत्यंत ही आकर्षक व्यक्ति थे। ये जब किसी विषय पर बोलते तो दुनिया भर में इन्हें सुना जाता था। इनकी वाणी तथा इनके व्यक्तित्व में अद्भुत आकर्षण था। इन्होंने अपने महान विचारों, अनन्य प्रेम, सौहार्दएवं भक्ति के बल पर संपूर्ण मानव जाति को प्रेरित और प्रभावित किया था। न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया के महानतम् व्यक्तित्वों पर इनकी वाणी और इनके व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव था। यहां तक कि इनके क्रांतिकारी विचारों का प्रभाव आज भी लोगों पर देखा जा सकता है। जरा सोचिए, लगभग सवा सौ सालों से दुनिया भर के लोगों, विशेष रूप से युवाओं के लिए स्वामी जी के विचार और व्यक्तित्व प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। वास्तव में, स्वामी विवेकानंद एक क्रांतिकारी संन्यासी थे।
विश्व धर्म-परिषद्
पच्चीस वर्ष की अवस्था में स्वामी जी ने गेरुआ वस्त्र धारण किया और पैदल ही संपूर्ण भारतवर्ष की यात्रा की। सन् 1893 में शिकागो (अमेरिका) में ‘विश्व धर्म-परिषद्’ में भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुंचे। ये पहले योगी थे, जिन्होंने पश्चिमी देशों में जाकर हलचल मचाई थी। उस समय यूरोप-अमेरिका के लोग पराधीन भारतवासियों को हीन दृष्टि से देखते थे। इसलिए लोगों ने बहुत प्रयास किया कि विवेकानंद को विश्व धर्म परिषद् में बोलने ही न दिया जाए। एक अमेरिकी प्रोफेसर के प्रयास से इन्हें थोड़ा समय मिला और जब ये बोले तो सभी विद्वान चकित रह गए। फिर तो, अमेरिका में इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय बन गया। तीन वर्ष तक ये अमेरिका में रहकर अमेरिकियों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। इनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान से प्रभावित होकर अमेरिकी मीडिया ने इन्हें ‘साइक्लॉनिक हिन्दू’ का नाम दिया। अमेरिका में इन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित कीं। अनेक अमेरिकी विद्वानों ने इनका शिष्यत्व ग्रहण किया।
आत्मबोध से आत्मसात की पुस्तक
अमेरिका से स्वामी जी यूरोप गए। जर्मनी में ये एक मशहूर कवि-दार्शनिक के घर मेहमान बने। मेजबान एक पुस्तक की बड़ी प्रशंसा करने लगे। विवेकानंद बोले, ‘मुझे एक घंटे के लिए पुस्तक दे दीजिए, जरा देखूं तो, इसमें क्या है।’ मेजबान नेआश्चर्य से पूछा, ‘एक घंटे में आप क्या जान लेंगे? मैं इसे हफ्तों से पढ़ रहा हूं, पर अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा। फिर, यह पुस्तक जर्मन भाषा में है, जो आप नहीं जानते, आप इसको पढ़ेंगे कैसे?’ विवेकानंद ने अपनी बात दोहराई तो मेजबान ने मजाक समझ कर पुस्तक उनको दे दी। विवेकानंद पुस्तक को दोनों हथेलियों के बीच दबाकर पकड़कर एक घंटे तक बैठे रहे। फिर पुस्तक लौटा दी और कहा, ‘इसमें कुछ खास नहीं है।’ मेजबान ने इसे अहंकार समझा तो विवेकानंद ने कहा, ‘आप मुझसे इसके बारे में कुछ भी पूछ सकते हैं। उसके बाद मेजबान ने जो भी पृष्ठ संख्या बताई, स्वामी जी ने उसी वक्त पूरा पृष्ठ शब्दशः सुना दिया। मेजबान को बिलकुल विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने पूछा, ‘यह क्या है? पुस्तक खोले बिना और वह भी जर्मन भाषा की पुस्तक के बारे में आप सब कुछ कैसे बता सकते हैं?’ दरअसल, वे नहीं जानते थे कि स्वामी जी के पास ‘विवेक’ यानी ‘बोध’ की विशेष क्षमता थी।
समाधि का अनुभव
विवेकानंद आरंभ से ही बहुत तर्कसम्मत, बुद्धिमान एवं जोश से भरे हुए व्यक्ति थे। एक बार उन्होंने गुरु रामकृष्ण से कहा, ‘आप प्रति क्षण भगवान-भगवान करते रहते हैं। मैं कैसे मानूं कि भगवान हैं... मुझे प्रमाण दीजिए।’ रामकृष्ण ने कहा, ‘मैं ही प्रमाण हूं।’ 19 वर्षीय विवेकानंद ने तीन दिन बाद वापस आकर पूछा, ‘क्या आप मुझे ईश्वर के दर्शन करा सकते हैं?’ रामकृष्ण ने पूछा, ‘तुम्हारे पास उन्हें देखने का साहस है?’ विवेकानंद ने कहा, ‘हां।’ रामकृष्ण ने विवेकानंद की छाती पर अपने पैर रख दिए और विवेकानंद समाधि की अवस्था में यानी मन की सीमाओं से परे चले गए। लगभग 12 घंटे बाद समाधि से जब बाहर आए तो पूरी तरह बदल चुके थे। उसके बाद इन्होंने अपने जीवन में कभी कोई प्रश्न नहीं पूछा, बल्कि प्रश्नों के उत्तर देने लगे।