आदिवासियों की पीड़ा का शब्दांकन
अजय सिंह राणा
कवि एवं नाटककार रवीन्द्र भारती द्वारा रचित नाटक ‘हुलहुलिया’ आदिवासी परिवेश के इर्द-गिर्द बुना गया है जिसमें हम आदिवासी जीवन की मान्यताएं, परंपराएं, उनके शोषण और उनकी समस्याओं को रेखांकित होते हुए महसूस करते हैं। इस पुस्तक का शीर्षक किसी जनजाति विशेष का नाम नहीं है बल्कि यह सभी जनजातियों का प्रतिनिधित्व करता हुआ एक काल्पनिक नाम है जिसके आधार पर नाटककार ने आदिवासियों की पीड़ा को शब्दों के द्वारा पन्नों पर उकेरा है। यह जनजाति पेड़ और पानी के बारे में गहरी जानकारी रखती है। उसके पास कहीं के निवासी होने का कोई लिखित दस्तावेज़ नहीं है।
भारती ने जनजातियों का प्राकृतिक प्रेम, प्रकृति के साथ उनका सीधा संबंध, उनके कर्मकांड, भाषा, संस्कृति, शोषण, उनको देशद्रोही बताकर यातनाओं से गुजरने की परिस्थितियों का वर्णन आदि इस नाटक में किया गया है। उनकी नागरिकता को लेकर फैले मानसिक द्वंद्व को नाटककार ने बेहद मार्मिक तरीके से पेश किया है।
नाटक में सत्रह दृश्य हैं। इस नाटक में निश्छल वासना रहित प्रेम, मूल्यहीन राजनीतिक शोषण और जनता की स्थिति का मार्मिक वर्णन दिखाई देता है। शैली के आधार पर हम इसे संगीत नाटक कह सकते हैं। इसके अधिकतर दृश्य यथार्थवादी शैली में लिखे गए हैं जिनका मंचन संभव है। गीतों का ताना-बाना जबरदस्त तरीके से बुना गया है जिसमें कलाकारों के अभिनय के लिए बेहतरीन अवसर दिखाई देते हैं। यह एक आधुनिक नाटक है जिसमें एक बेहतरीन नाटक के सभी गुण विद्यमान है। अपने बेहतरीन कथ्य के कारण बहुत गहरे उतरने वाला यह नाटक आदिवासियों की लुप्तप्राय: आबादी और उनके संघर्ष को व्यक्त करता है।
पुस्तक : हुलहुलिया लेखक : रवीन्द्र भारती प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 119 मूल्य : रु. 199.