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आत्मीय अहसासों का कत्ल

04:00 AM Jul 12, 2025 IST
आत्मीय अहसासों का कत्ल
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गुरुवार को हरियाणा से आई दो निर्मम हत्याओं की घटनाओं ने हर किसी संवेदनशील इंसान को झकझोरा है। गुरुपू्र्णिमा के दिन दो शिष्यों ने नारनौंद में एक गुरु को चाकुओं से गोद दिया। वहीं गुरुग्राम में किसी बात पर आगबबूला पिता ने नाजों से पाली बेटी की गोली मारकर हत्या कर दी। यूं तो ये घटनाएं करोड़ों लोगों में उंगली पर गिनी जानी वाली हैं, लेकिन इन घटनाओं में रिश्तों और आत्मीय अहसासों का कत्ल हुआ, इसलिये हर कोई विचलित हुआ। इन हृदयविदारक घटनाओं ने हर किसी को उद्वेलित किया कि आखिर हम कैसा समाज रच रहे हैं? क्यों हम जरा-जरा सी बात पर अपनों व समाज में अब तक आदरणीय स्थान रखने वाले के खिलाफ ऐसी क्रूरता दिखाने लगे हैं। यूं तो हर रोज समाचारों में ऐसी खबरें तैरती रहती हैं, जिसमें हम विश्वास व रिश्तों का कत्ल होते देखते हैं। राह चलते मामूली विवाद में हत्याएं हो जाती हैं। सड़क पर एक कार का दूसरी से स्पर्श हो जाए या पार्किंग विवाद हो, लोग जान लेने पर उतारू हो जाते हैं। लेकिन हरियाणा की दोनों घटनाएं अलग किस्म की हैं। अक्सर हम नई पीढ़ी के आक्रामक व्यवहार की बात करते हैं लेकिन गुरुग्राम में तो पिता ने अपनी पुत्री की हत्या कर दी। कतिपय समाचारपत्रों में गुरुग्राम में राज्य स्तरीय टेनिस खिलाड़ी की हत्या की वजह उसके रील बनाने का जुनून बताया गया, तो दूसरे पत्रों में बेटी द्वारा टेनिस अकादमी खोलने से पिता का नाराज होना। लेकिन ठंडे दिमाग से सोचें तो ये कोई ऐसी वजह नजर नहीं है कि पिता अपने ही जिगर के टुकड़े को गोली मार दे। जाहिर है विवाद व टकराव की लंबी पृष्ठभूमि होगी। नए दौर के बच्चे अति आत्मविश्वास से भरे हैं। उनमें उत्साह है, उमंग है तो बहुत कुछ करने का जज्बा भी है। उनके सपने बड़े हैं तो सोचने-समझने के तौर-तरीके भी जुदा हैं।
वहीं पुरानी पीढ़ी के संघर्ष से व सीमित संसाधनों में पले-पढ़े लोग नई व अपने से पहले की पीढ़ी के बीच तेजी से बदलते परिवेश से सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं। निश्चित रूप से विकास की तीव्र गति के बीच हमारे जीवन में बहुत कुछ तेजी से बदला है। पुरानी पीढ़ी इस संक्रमणकाल से सामंजस्य स्थापित करने में सहज महसूस नहीं कर पा रही है। नई पीढ़ी की स्वच्छंदता और अपने बड़े फैसले खुद लेने की प्रवृत्ति पुरानी पीढ़ी को रास नहीं आ रही है। जिसका प्रतिकार वे हिंसक तरीके से करने लगे हैं। वहीं नारनौंद की घटना हमें आक्रामक होते किशोरों की हकीकत पर विचार करने को बाध्य करती है। दो छात्रों ने प्रिंसिपल की हत्या किस वजह से की, उसकी हकीकत की असली तस्वीर जांच के बाद ही सामने आएगी, लेकिन बात कोई भी हो किसी छात्र द्वारा गुरु की हत्या करने की वजह नहीं हो सकती। कहा जा रहा है कि प्रिंसिपल सख्त और बेहद अनुशासनप्रिय थे। लेकिन ये वजह किसी शिक्षक की हत्या को तार्किकता नहीं दे सकती। हत्या छात्र की हो या शिक्षक की, दोनों ही घटनाएं दुर्भाग्यपूर्ण हैं। एक दौर था कि अभिभावक खुद ही शिक्षक से कहा करते थे कि उनके पाल्य को कड़े अनुशासन में शिक्षा दीजिए। तब शिक्षक भी सख्ती करने से पीछे नहीं हटते थे। पढ़ाई ठीक से न करने और अनुशासन तोड़ने पर छात्रों की पिटाई आम बात हुआ करती थी। इस पर अभिभावक भी कोई बड़ी प्रतिक्रिया नहीं देते थे। लेकिन लगता है कि नई पीढ़ी के विद्यार्थी किसी भी सख्ती को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं। दरअसल, हमारे समाज में जिस आक्रामकता का विस्तार हुआ है, वह अब नई पीढ़ी के बच्चों में नजर आने लगी है। उनके अहम को जल्दी ठेस लग जाती है। वे कक्षा में किसी तरह की सख्ती, उलाहना और नसीहत सहने को तैयार नहीं हैं। इस पर जरा-सी ठेस लगने पर वे आक्रामक हो जाते हैं। अक्सर कई स्कूलों में छोटी-छोटी बात से ठेस लगने पर छात्रों की आत्महत्या की खबरें आती हैं। हमारे समाज विज्ञानियों को भी इन घटनाओं के आलोक में बदलते परिवेश में किशोरों की आक्रामकता के कारणों का मंथन करना होगा।

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