आत्मा से परमात्मा के मिलन का माध्यम
ध्यान विज्ञान से भी आगे बढ़कर एक कदम लेता है। ध्यान पूरी तरह से अविवेचनात्मक होता है। इसके विपरीत, ध्यान सिर्फ देखता है। यह आपकी आंतरिक और बाहरी दुनिया के सभी पहलुओं को बिना किसी निर्णय के देखता है। ध्यान में समर्पण है, ध्यान विज्ञान की भांति तथ्यों के वर्गीकरण, विश्लेषण और निष्कर्ष में नहीं उलझता।
राजेंद्र कुमार शर्मा
वेदों के अनुसार तपस्या, ध्यान, भक्ति, ज्ञान और सेवा आत्मा के लिए मुक्ति के द्वार खोल सकते हैं। साधना और ध्यान की ऊर्जा, मुक्ति प्राप्त करने का माध्यम है ऐसा उल्लेख वेदों में मिलता है। ध्यान एक सूक्ष्म विज्ञान के सिद्धांत पर कार्य करने वाला आध्यात्मिक तत्व है। जिसमें साधक, जीते जी, अपने आत्म तत्व से साक्षात्कार कर लेता है। आत्म तत्व से साक्षात्कार ही परमात्मा से साक्षात्कार है और यही आध्यात्मिक मार्ग का गंतव्य है। जिसके लिए एक सच्चा जिज्ञासु प्रयत्नशील रहता है।
अभ्यास-निष्कर्ष अपरिवर्तनीय
ध्यान विज्ञान से भी आगे बढ़कर एक कदम लेता है। ध्यान पूरी तरह से अविवेचनात्मक होता है। इसके विपरीत, ध्यान सिर्फ देखता है। यह आपकी आंतरिक और बाहरी दुनिया के सभी पहलुओं को बिना किसी निर्णय के देखता है। ध्यान में समर्पण है, ध्यान विज्ञान की भांति तथ्यों के वर्गीकरण, विश्लेषण और निष्कर्ष में नहीं उलझता। कोई नया नियम या सिद्धांत नहीं प्रतिपादित करता। इसका अनादिकाल से एक ही रूप में अभ्यास किया जाता रहा है और इस अभ्यास से उत्पन्न होने वाले निष्कर्ष भी अनादिकाल से एक जैसे ही हैं। ये आत्म तत्व को परमतत्व के नजदीक लाकर, अंत में उसी में विलीन हो जाता है। जो आध्यात्मिक मार्ग का अंतिम गंतव्य है।
ध्यान, आत्मा का दर्पण
ध्यान में, साधक केवल एक दर्पण के समान होता है और यह दर्पण चीजों को उनके वास्तविक रूप में दिखाता है। बिना किसी दिखावे, विकृति या सुकृति के। ध्यान भी साधक के हृदय और आत्मा का दर्पण बनता है। जब हम इस तरह से देखना सीखते हैं, तो ध्यान अपने आप शुरू हो जाता है। यह केवल सिखाने या पढ़ने का विषय नहीं है, बल्कि इसे अनुभव के रूप में अपनाने की जरूरत है। ध्यान अपने आप में पूर्णता की स्थिति है। जैसे-जैसे हम इसे गहराई से अनुभव करते हैं और अभ्यास करते हैं, तब जान पाते है कि ध्यान प्रयोग और अनुभव दोनों है। ध्यान साधक से एक ही अपेक्षा करता है कि वह खुद को पूरी तरह से ध्यान को समर्पित कर दे और इसे अपने जीवन का एक अभिन्न अंग बना ले। ध्यान के दौरान साधक के अंतर में होने वाले अमृत का स्त्रावण अकल्पनीय है।
आत्म समर्पण जरूरी
ध्यान का एक अन्य महत्वपूर्ण अंग है अनुभव। जब हम गहन निरीक्षण करते हैं तो हम एक ऐसे अनुभव का अहसास करते हैं, जो असाधारण है, जिसकी कोई व्याख्या या परिभाषा नहीं है। यह हमें हमारी आत्मा के शुद्धतम रूप का दर्शन करवाता है, जैसा कि वेदों में उल्लेखित है। इस अनुभव को हासिल करने के लिए हमें आत्मसमर्पण करना होता है बिना तर्क और वितर्क के। यह अनायास ही होने वाली प्रक्रिया है। इसमें समय और तिथि निश्चित नहीं होती। हमारा पूर्ण आत्मसमर्पण, स्वत: ही इसे हमारे भीतर प्रकट कर देता है। ध्यान का अनुभव केवल अपने अंदर जाने या आत्म तत्व को जानने की प्रक्रिया मात्र नहीं है, बल्कि यह हमारा अपने अस्तित्व से साक्षात्कार भी करवाता है। वेदों के अनुसार, ध्यान, प्रकृति, ब्रह्मांड और परमात्मा के मिलन का साधन बनता है।