मुख्य समाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाबहरियाणाआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकी रायफीचर
Advertisement

असंसदीय कृत्य

04:00 AM Dec 21, 2024 IST

जब देश की नई संसद में सदन की कार्रवाई शुरू हुई, तो विश्वास था कि देश में संसदीय मर्यादाओं को नई गरिमा मिलेगी। लेकिन हाल ही में संपन्न शीतकालीन सत्र के दौरान हुए हंगामे ने देश के आम जनमानस को गहरे तक निराश ही किया। सड़क पर सांसदों की धक्का-मुक्की और आरोप-प्रत्यारोपों ने उन मतदाताओं को ठेस पहुंचायी, जिन्होंने उन्हें अपने प्रतिनिधि के रूप में चुना था। आरोप-प्रत्यारोप तो सांसदों की पुरानी परंपरा रही है, लेकिन इस बार तो बात धक्का-मुक्की से लेकर थाने तक जा पहुंची। ऐसे में सवाल किया जा सकता है कि जब हमारे माननीयों का व्यवहार ऐसा होगा तो आम आदमी से क्या उम्मीद की जा सकती है। दरअसल, महाराष्ट्र चुनाव में करारी शिकस्त से पस्त विपक्ष सरकार पर हमले के लिये मुद्दे की तलाश में था। उन्हें मुद्दा खुद गृहमंत्री अमित शाह ने दे दिया। संविधान के रचयिताओं में अग्रणी डॉ. बी.आर. अंबेडकर के बारे में शाह की टिप्पणी के बाद एनडीए और इंडिया गठबंधन के सांसदों के बीच आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला कालांतर टकराव में बदल गया। निश्चय ही राजनेताओं के व्यवहार से देश-विदेश में कोई अच्छा संदेश नहीं गया। जिन सांसदों के हाथ में कानून की गरिमा बनाये रखने की जिम्मेदारी है, वे हाथ ही धक्का-मुक्की में लिप्त होने लगे। जो जनप्रतिनिधियों की कथनी-करनी के अंतर को ही दर्शाता है। सही मायनों में यह मतदाताओं का भी अपमान है जिन्होंने उन्हें चुनकर संसद में भेजा है। निस्संदेह, जब अमित शाह ने कहा कि डॉ. अंबेडकर का नाम जपना एक फैशन बन गया तो ऐसा करके उन्होंने अपना कद कदापि नहीं बढ़ाया। इस तरह उन्होंने संविधान के जनक को एक अनावश्यक विवाद में घसीट लिया। महाराष्ट्र चुनाव में पराजय के बाद खस्ता हाल में आये विपक्ष को इस विवाद ने राजग पर एकजुट हो हमलावर होने का अवसर दे दिया है। विपक्ष ने भी मुद्दे को तुरंत लपक लिया। लेकिन इस तरह के विवाद को असंसदीय ही कहा जाएगा।
कालांतर में स्थिति यहां तक पहुंच गई कि शाह की बयानबाजी के बचाव में खुद प्रधानमंत्री को उतरना पड़ा। उन्होंने कांग्रेस पर राजनीतिक स्वार्थ के लिये दुर्भावनापूर्ण झूठ का सहारा लेने का आरोप भी लगाया। निस्संदेह, डॉ. बी.आर. अंबेडकर एक ऐसे राष्ट्रीय प्रतीक हैं, जिनकी गरिमा को कोई भी राजनीतिक पार्टी नजरअंदाज नहीं कर सकती। यह स्पष्ट ही है कि राजनीतिक लाभ के लिए दोनों प्रमुख पार्टियां उनकी विरासत पर कब्जा करने को यह खेल खेल रही हैं। उनका अमर्यादित व्यवहार इस स्थिति को और गंभीर बना देता है। विडंबना ही है कि ये स्थितियां तब पैदा हुईं जब देश संविधान को अपनाने के 75 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में राष्ट्रव्यापी समारोह आयोजित कर रहा था। दुनिया को यह बताने का प्रयास कर रहा था कि लोकतंत्र, न्याय और समानता की कसौटी पर यह जीवंत दस्तावेज खरा उतरा है। निस्संदेह, इस बात में दो राय नहीं हो सकती कि संविधान के आदर्शों को बनाये रखना सभी सांसदों की सामूहिक जिम्मेदारी है। उनकी प्राथमिकता सामाजिक न्याय और समावेशी विकास को सुनिश्चित करने की दिशा में काम करने की होनी चाहिए, न कि आरोप-प्रत्यारोप व टकराव की सीमाएं लांघने की। वे कम से कम लोकतंत्र के मंदिर की मर्यादा और गरिमा को बनाये रखने का दायित्व तो निभा ही सकते हैं। यदि ऐसा न हुआ तो लोकतंत्र का यह मंदिर प्रहसन के रंगमंच में बदल जाएगा। साथ ही भारत के विश्व गुरु व विश्व बंधुत्व के नारे में भी कोई तार्किकता नहीं रह जाएगी। आज देश बेरोजगारी, महंगाई तथा विकास से जुड़ी तमाम समस्याओं से जूझ रहा है। ऐसे विवादों से तो मुख्य मुद्दों से ध्यान भटकता है। जबकि जनप्रतिनिधियों की प्राथमिकता जन कल्याण के रास्ते तलाशना होना चाहिए। निश्चित रूप से देश-दुनिया में इस विशालतम लोकतंत्र की कारगुजारियों का अच्छा संदेश तो कदापि नहीं जाएगा। हमारे जनप्रतिनिधियों को सोचना चाहिए कि जनता के करों के पैसे से चलने वाले सदन ने शीतकालीन सत्र में क्या हासिल किया। निश्चित रूप से इस सत्र के दौरान होने वाले अप्रिय विवादों से देश-दुनिया में कोई अच्छा संदेश तो कदापि नहीं गया है।

Advertisement

Advertisement