अब नहीं लेते लोग एडवांस का चांस
मुकेश राठौर
‘एडवांस आपके कार्य को गति देगा’ इस टाइप की सूचनाएं पहले आम हुआ करती थीं। जहां भी ऑर्डर पर तारीख देकर कार्य होता था, यह सूचना जरूरी सी थी। एडवांस की एंट्री से कार्य करने और करवाने वाले दोनों बंध जाते थे। पैसे का जोड़ सबसे मजबूत होता है। कुछ साल पहले जब आज की तरह रेडीमेड ड्रेसेज पहनने का चलन नहीं था और न ही किचन में वाशिंग मशीन अवतरित हुई थी, हम कपड़े सिलाई और धुलाई वाले के यहां जाते थे। हम चाहते थे कि हमारा कार्य प्राथमिकता से किया जाए तो इसकी पहली शर्त थी कि हम पेशगी या एडवांस में कितनी रकम दे रहे हैं। यदि हम तीन-चौथाई या लगभग संपूर्ण रकम अग्रिम जमा कर दें तब तो समझो बंदा हाथ का काम पैर या पृष्ठ भाग के नीचे दबाकर हमारा काम हाथ में ले लेता था बल्कि कभी तो हाथों-हाथ कर भी डालता। यह एडवांस की ताकत थी, जो दिनों का काम घंटों में करवा डालती।
उन दिनों जब खेतों में मशीनों के पहिए नहीं पड़े थे और फसल पर ड्रोनों के पंख नहीं उड़े थे, बैल और मजदूरों के बिना खेती-किसानी संभव नहीं थी। जुताई, बुआई, निराई, सिंचाई से लेकर कटाई तक मजदूर की जरूरत पड़ती थी। छोटी जोत वाले काश्तकार तो ‘अड़जी-पड़जी’ कर काम चला लेते थे लेकिन जमींदार टाइप बड़े काश्तकारों को भारी संख्या में मजदूरों की जरूरत पड़ती थी, सो वे एक सीजन पहले ही आसपास के गांवों में जाकर मजदूरों को एडवांस दे आते थे और चैन की नींद सोते। समय आने पर मजदूर खुद जगाते कि साहब जी बताइए कब काम पर आ जाएं।
यह तो हुई वस्तु और सेवाओं की बात, रिश्ते बनाने में भी बयाने का बोलबाला था। घर के बड़े-बुजुर्ग किसी की बेटी के हाथों में महज सवा रुपया और नारियल देकर अपने बेटे की सगाई तय कर आते थे, विवाह भले सालों बाद करते, दोनों पार्टियां टस से मस न होकर जस की तस बनी रहती। कई बार तो दो पक्ष अपने रिश्तों की सोनोग्राफी करते हुए गर्भस्थ शिशुओं का रिश्ता तय कर डालते थे।
कान के कच्चे होकर भी वो लोग वचन के पक्के हुआ करते थे। वक्त आने पर प्राण छोड़ देते थे मगर दिया हुआ वचन नहीं। आज की एडवांस जनरेशन में अब एडवांस कहीं पीछे छूट गया है। समय के साथ हर बात का अर्थ बदल गया है। अब का मजदूर बंधुआ नहीं और न ही रिश्तेदार वादे के पक्के। अबके लोग कल का नहीं आज का सोचते हैं। अब एडवांस दे दिया तो कार्य को गति मिलने के बरअक्स सद्गति मिल जाती है भाई साहब। अब आप एडवांस देकर बुरी तरह फंस जाते हैं और वह मजबूरियां गिनाता फिरता है। शायर नासिर काजमी ने ठीक ही कहा है—तेरी मजबूरियां दुरुस्त मगर/ तूने वादा किया था याद तो कर।