हॉस्टल की दहलीज़ से कविता तक का प्रकाश
ब्रजेश कृष्ण
वर्षों पहले का वह दिन मेरी स्मृति में चित्र की तरह अंकित है। बात नवंबर-दिसंबर 1975 की है। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के टैगोर छात्रावास की मैस के हॉल में एक छात्र बहुत ही सधे कदमों से धीरे-धीरे प्रविष्ट हुआ। वह शोध छात्रों का हॉस्टल था और यह समय लंच का था। उस छात्र ने बंद गले का कत्थई कोट और सलेटी रंग की पेंट पहन रखी थी। चेहरे पर मोटे लैंस का भारी चश्मा और हल्की मूंछें थीं, जो उसे काफ़ी गंभीर किस्म का बनाती थीं।
वह हॉल में घुसा और डाइनिंग टेबल के एक किनारे चुपचाप बैठकर खाने की थाली का इंतजार करने लगा था। मैंने उसका परिचय जानना चाहा। उसने बताया कि उसने हिंदी विभाग में शोध छात्र के रूप में प्रवेश लिया है। शिकोहाबाद से आया है। और नाम है, चंद्रप्रकाश विग। उसकी आवाज धीमी, मगर स्पष्ट व आत्मविश्वास से भरी हुई।
कुछ ही महीने पहले मैं सागर विश्वविद्यालय से यहां आया था व किसी साहित्यिक रुचि वाले साथी के संग-साथ के लिए तरस रहा था। जब चंद्रप्रकाश ने बताया कि वह समकालीन कविता पर शोध करेगा तो मुझे उससे मिलना अच्छा लगा। यह प्रकाश मनु से मेरी पहली भेंट थी, हालांकि उन दिनों तक उनका नाम चंद्रप्रकाश विग था। जल्दी ही हमारे बीच ऐसी मैत्री स्थापित हुई कि आज पैंतालीस बरस बाद भी मुरझाई नहीं! हम अब बरसों तक नहीं मिल पाते, किंतु मैत्री का यह बिरवा लहलहा रहा है!
पहली भेंट के दो-एक दिन के भीतर ही मैं प्रकाश को अपने कमरे में ले गया। उन्हें मैंने सागर के साहित्यिक माहौल के किस्से सुनाए। वहां होने वाली गोष्ठियों, प्रतिष्ठित लेखकों के आगमन और वहां के कवि-लेखक मित्रों की चर्चा की तो वे जैसे रोमांच से भर गए। वे भी शिकोहाबाद के अपने कवि दोस्तों के बारे में बताते रहे, मेरे आग्रह पर उन्होंने अपनी दो-एक कविताएं सुनाईं। वे उन दिनों ‘रुद्र’ उपनाम से कविता लिखते थे।
फिर कुछ अंतराल से मैंने उन्हें सागर से साथ लाई हुई कुछ किताबें पढ़ने को दीं। इनमें मुक्तिबोध का ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’, धूमिल का ‘संसद से सड़क तक’, रघुवीर सहाय का ‘आत्महत्या के विरुद्ध’, कैलाश वाजपेयी का ‘तीसरा अंधेरा’ के अलावा अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित विष्णु खरे, ज्ञानेंद्रपति, जितेंद्र कुमार आदि की ‘पहचान’ सीरीज की कलात्मक पुस्तिकाओं के साथ कुछ पत्रिकाओं के अंक थे। मैंने अपने प्रिय कवि विष्णु खरे की कुछ पसंदीदा कविताओं का बहुत डूबकर वाचन भी किया था। प्रकाश के अनुसार, इस सबसे उनके आगे एक नई दुनिया खुल गई और अपनी अभिव्यक्ति को पहचानने में मदद मिली।
प्रकाश के लिए कुरुक्षेत्र के वे दिन गहन आकांक्षा से भरे जीवन के सबसे उत्तेजक दिन थे। उन्होंने फिजिक्स में एमएस.सी. करने के बाद हिंदी में एम.ए. किया था और उन्हें यहां पीएच.डी. करने के लिए यूजीसी फेलोशिप मिली थी।
कुरुक्षेत्र ने प्रकाश को बहुत कुछ दिया, लेकिन तकलीफ भी कम नहीं दी! वे प्रखर मेधावी तो हैं ही, शुरू से ही अनथक परिश्रमी भी हैं। जिस काम को करते हैं जुनून के साथ जुटते हैं। मेधा और परिश्रम का संयोग अपने रंग खिलाता ही है! वे दिन-रात रिसर्च में जुटे रहते। दिन-दिन भर लाइब्रेरी और विभाग में बैठकर किताबों में डूबे रहते। इससे विभाग में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ रही थी, वहीं अन्य कुछ शोध-छात्रों की ईर्ष्या भी! उनके लिए कई मुश्किलें पैदा होने लगीं। तरह-तरह से उन्हें परेशान किया जा रहा था।
प्रकाश की संवेदनशीलता की कोई सीमा नहीं है! अपनी स्थितियों को लेकर लावा उगलती हुई एक शानदार कविता लिखी, ‘भीतर का आदमी’! कविता में आज की क्रूरताओं के कई गहन बिंब थे। प्रकाश ने मुझे जब यह कविता सुनाई तो मैं झूम उठा। मेरे मुंह से निकला, ‘मान गया तुम्हें, कवि भाई! तुमने कविता को पा लिया है!’
उन्हीं दिनों अखिल भारतीय भाषा परिषद का अधिवेशन कुरुक्षेत्र में हुआ, जिसके अंतिम दिन शाम को कवि सम्मेलन था। इसमें प्रकाश को भी कविता पढ़ने का न्योता मिला था। उन्होंने अपनी लंबी कविता ‘भीतर का आदमी’ पूरे जुनून के साथ सुनाई तो तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल देर तक गूंजता रहा।
तालियों के रुकते ही प्रख्यात कवि जगदीश गुप्त, जो प्रथम पंक्ति में श्रोताओं के बीच बैठे थे, एकाएक मंच पर पहुंचे और बोले कि ‘अब मंच ने अपनी गरिमा पा ली है। अभी-अभी जिस युवक ने कविता पढ़ी, उसे सुनकर मुझे मुक्तिबोध की याद आ गई!’
प्रकाश की मुश्किलें अब भी कम नहीं हुई थीं। लेकिन बगैर किसी की परवाह के वे अपने शोधकार्य में जुट गए। शाम को कभी-कभी हम ब्रह्मसरोवर तक घूमने निकल जाते। कई बार शुक्ला जी, विनोद शंकर और पी.डी. शर्मा जैसे अन्य मित्र भी इस पदयात्रा में शामिल होते। खूब हंसी-ठट्ठा होता! बता दें कि प्रकाश जैसी जोरदार, खुली हुई निर्मल हंसी मैंने दूसरी नहीं देखी। बच्चों की-सी खिलखिलाहट और उनके निष्कपट व्यवहार की अनुगूंजें अब मेरी स्मृति का स्थायी हिस्सा हैं।