For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

हिट के लिए दर्शक नहीं, अब स्ट्रेटजी पर दारोमदार

04:05 AM May 31, 2025 IST
हिट के लिए दर्शक नहीं  अब स्ट्रेटजी पर दारोमदार
Advertisement

निस्संदेह बॉलीवुड का कुल कारोबार बढ़ा है लेकिन पहले बॉलीवुड की करीब आधी फिल्में सफल रहती थी, वहीं आज 20 बॉलीवुड फिल्मों से भी एक के सफल होने की गारंटी नहीं। यह स्थिति बॉलीवुड के भविष्य के लिए सही नहीं। अच्छे कहानीकारों, गीतकारों व राइटर की वेल्यू व रोजगार घट रहा है। कार्पोरेट रणनीति से गिनी-चुनी फिल्में हिट होती हैं। जबकि पहले फिल्मी कहानियां आम दर्शक की भावनाओं पर आधारित होती थीं।

Advertisement

डी.जे.नंदन
एक जमाने में करीब 30 हजार करोड़ का हो चुका बॉलीवुड फिल्मों का कारोबार आज अपने टर्नओवर के मामले में भले बहुत कम न हुआ हो, लेकिन अगर पिछली सदी के 50 और 60 के दशकों से हम बॉलीवुड कारोबार की आज से तुलना करें तो तब के मुकाबले सिर्फ 7-8 फीसदी फिल्में ही हिट होती हैं। आज बॉलीवुड की सुपरहिट फिल्मों की कमाई की कोई सीमा नहीं। यह कुछ सौ करोड़ से लेकर कुछ हजार करोड़ रुपये तक हो सकती है। लेकिन पहले जहां बॉलीवुड की 10 में से 5 फिल्में सफल रहती थी और कम से कम दो अपनी लागत को जैसे-तैसे निकाल लेती थी, वहीं आज 20 बॉलीवुड फिल्मों से भी एक फिल्म के सफल होने की गारंटी नहीं है। यह अलग बात है कि जो फिल्म सफल होती है, उसके लिए कई सौ करोड़ रुपये का बिजनेस आसान है।
फ्लॉप का बढ़ा आंकड़ा
दरअसल, जिस तरह कारोबारी सफलता कुछ गिनी-चुनी कारपोरेट रणनीतिकवादी बॉलीवुड फिल्मों के हिस्से ही आ रही है और ज्यादातर फिल्में फ्लॉप हो रही हैं तथा 80 और 90 के दशकों के मुकाबले उन्हें टीवी का मार्केट भी नहीं मिल रहा, उससे धीरे-धीरे बॉलीवुड कारोबार की जड़ें सूखने लगी हैं। आज ज्यादातर बॉलीवुड के निर्देशकों, सहायक कलाकारों, लेखकों आदि के पास वास्तविक काम नहीं है। मुट्ठीभर लोगों के पास ही पैसा, काम, भविष्य और संभावनाएं हैं। यह किसी भी उद्योग के लिए अच्छी बात नहीं होती।
आज के हीरो नहीं हिट की गारंटी
पिछले दस सालों में बॉलीवुड ने कोई भी ऐसा नया हीरो नहीं दिया, जो एक जमाने में अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना या शाहरुख खान जैसा हीरो रहा हो। आज बॉलीवुड में कोई भी ऐसा चेहरा नहीं है, जिसके दम पर किसी भी फिल्म के सुपरहिट होने की, कम से कम 50 फीसदी ही सही, गारंटी हो। आज की सारी फिल्में अपने रणनीतिक समीकरणों के चलते सुपरहिट या सुपर फ्लॉप साबित होती हैं। वास्तव में बॉलीवुड का जो अपना एक नेचुरल कारोबारी इको सिस्टम था, वो पिछले दो दशकों में अनेक वजहों से खत्म हो गया है।
दर्शक के बजाय स्ट्रेटजी पर ध्यान
बॉलीवुड जिसे कभी भारतीय सांस्कृतिक जीवन का आइना और मनोरंजन उद्योग की आत्मा कहा जाता था, आज वह कार्पोरेट रणनीतियों के चंगुल में फंसकर मर रहा है। संकट सिर्फ टिकट खिड़की पर घटती भीड़ या बढ़ती फ्लॉप फिल्में ही नहीं बल्कि इसका नेचुरल इको सिस्टम बिखर चुका है। आज न तो निर्माता निर्देशकों को आम दर्शकों के मनोरंजन टेस्ट की चिंता है, न ही जेब की चिंता है और न ही फिल्म निर्माता-निर्देशक उन्हें ध्यान में रखकर फिल्में बनाते हैं। वहीं आम लोग भी फिल्मों से अपने हिस्से की किसी कहानी की उम्मीद नहीं करते। ग्लोबल कंटेंट, डबिंग और वैश्विक फैन फॉलोइंग- ये ऐसी कृत्रिम खूबियां हैं, जो गिनी चुनी फिल्मों में ही हो सकती हैं।
फिल्मों पर चर्चा अब बीती बात
पहले के वक्त में कोई नई फिल्म आती थी, तो उसके गाने व डायलॉग पूरे समाज में सुनाई देते थे। लोग फिल्म की चर्चा करते थे। जबकि आज फिल्म के क्रिटिक्स को भी ज्यादातर फिल्मों के बारे में कुछ नहीं पता होता। पहले फिल्मों में थोड़ी कमाई थी, लेकिन बहुत आकर्षण था। हजारों लोगों को काम मिलता था, लाखों लोगों को उम्मीदें रहती थीं। जबकि आज जिन लोकप्रिय कलाकारों को काम मिल रहा है, उनके पास काम की तो कोई सीमा नहीं और न उनकी कमाई का कोई हिसाब है। लेकिन बड़ी संख्या में लोगों को काम के भी लाले हैं। यह इको सिस्टम किसी कारोबार के फलने-फूलने में सहायक नहीं हो सकता, फिल्म इंडस्ट्री के साथ फिलहाल यही हो रहा है।
कार्पोरेट का नियंत्रण
एक-दो दशक पहले फिल्म इंडस्ट्री के जो कहानीकार, गीतकार व डायलॉग राइटर के पास ठीक-ठाक काम था, उन्हें भी मार्केट में काम नहीं मिल रहा। इसकी वजह यह है कि आज कारपोरेट कंपनियां या कुछ मुट्ठीभर अपने ही समूह के लोग फिल्में बनाने और इस कारोबार को अंगुलियों पर नचाने की क्षमता रखते हैं, वही सब कुछ कर लेते हैं। आज फिल्म इंडस्ट्री में किसी अच्छे लेखक, गीतकार, डायरेक्टर और अच्छे डायलॉग राइटर की कोई अलग से परिभाषा नहीं है सिवाय इसके कि वह कितना बड़ा सेलेब्रिटी है। यह वातावरण जानबूझकर बनाया गया है ताकि बहुराष्ट्रीय उद्योगों के उत्पादों को बेचने में माहिर बिचौलियों को फिल्म कारोबार भी बाहर से बना-बनाया मिले। जबकि पहले अपने यहां छोटी-छोटी फिल्में हम सबकी अपनी भावनाओं, अपनी जिंदगी की अनुभूतियों पर बनती थीं। गांवों से लोग ऐसी फिल्मों को देखने के लिए शहरों-कस्बों की तरफ दौड़ा करते थे।
तकनीकी से उपजा भ्रम
आज हमारे हाथ में मौजूद मोबाइल की स्क्रीन पर सारा मनोरंजन उद्योग सिमट गया है, तब हम किसी ऑरिजनल राइटर, ऑरिजनल कहानी, ऑरिजनल भावना या किसी ऑरिजनल पृष्ठभूमि की जरूरत नहीं महसूस करते। हमें लगता है एआई की बदौलत किसी भी चीज को अपना बनाकर पेश कर सकते हैं। लेकिन इस लालच और भ्रम ने ही स्थानीय लोगों को, स्थानीय फिल्मों, स्थानीय कहानियों, स्थानीय नाटकों आदि से दूर कर दिया है। अब बॉलीवुड उद्योग एक ऐसे माफिया के चंगुल में है, जो पूरे कारोबार को अपनी मुट्ठी में जकड़ सकता है। बॉलीवुड की समूची दुनिया ग्लोबल होने के नाम पर बिल्कुल अंजानी, कृत्रिम और नकली हो गई है।
अगर बहुत जल्द हमारे कुछ मनोरंजन प्रेमी कलाकार उठकर सामने नहीं आते और बॉलीवुड में देशज भावनाओं का रंग नहीं भरते, तो यह उद्योग हमेशा हमेशा के लिए दम तोड़ देगा। तब भले कुछ मुट्ठीभर कारपोरेट कंपनियों की मनोरंजन उद्योग से कमाई अरबों आंकी जाए, मगर इस इंडस्ट्री पर निर्भर 40 से 50 लाख लोग बेकार-बेरोजगार हो जाएंगे। जिस तरह आज एक फिल्म के बनने में सैकड़ों करोड़ रुपये लग रहे हैं और फिर प्रमोशन पर उतना ही या उससे ज्यादा खर्च आ रहा है, उसके कारण आम मनोरंजन प्रेमी न तो अपनी फिल्म बना सकता है और न ही उसके बारे में सोच सकता है। ऐसे लेखक, ऐसे कलाकार जिनमें देश का नेचुरल जीवन धड़कता है, उनकी भी इंडस्ट्री में कोई पूछ नहीं है, क्योंकि इंडस्ट्री को ग्लोबल भावनाओं से भरे ऐसे लोग चाहिए, जो दुनिया के किसी भी कोने में देखे जा सकें, लेकिन वो किसी भी कोने के असली लोग न लगें। बॉलीवुड को धीरे-धीरे लगा यह रोग घातक हो सकता है।
 -इ.रि.सें.

Advertisement
Advertisement
Advertisement