स्वामी मुक्तानंद : संतों से बड़ी है आम आदमी की आध्यात्मिकता
समुद्र मंथन की विरासत के विस्तार की परंपरा है महाकुंभ। प्रयागराज महाकुंभ के संगम में भी कई रत्न निकले। देश-विदेश में चर्चा हुई। संगम में ऐसे ही एक रत्न मिले स्वामी मुक्तानंद। पंजाब के संभ्रांत परिवार में जन्मे इस संत ने पंजाब वि.वि. से अर्थशास्त्र व अंग्रेजी में एम.ए. किया। फिर उन्हें कैंब्रिज में सहायक प्रोफेसर व ऑक्सफोर्ड में पीएचडी करने का आमंत्रण मिला। अंग्रेजी, रशियन,स्पेनिश आदि भाषाओं में धाराप्रवाह बोलने वाले मुक्तानंद कालांतर सबकुछ छोड़कर नब्बे के दशक में अध्यात्म की दुनिया में रम गए। हरिद्वार में उनसे विभिन्न पहलुओं पर अरुण नैथानी की लंबी बातचीत हुई।
पिछले दिनों इलाहाबाद महाकुंभ में आईटी बाबा आदि की चर्चा हुई। लेकिन फर्राटेदार अंग्रेजी, रशियन, स्पेनिश, पंजाबी बोलते और विदेशी अनुयायियों से घिरे एक संत ऐसे भी थे, जो ऑक्सफोर्ड से पीएचडी करके और कैंब्रिज में प्रोफेसर की नौकरी छोड़कर संन्यासी बन गए। पंजाब के एक संभ्रांत व संपन्न परिवार से संबंध रखने वाले स्वामी मुक्तानंद का मन बचपन से ही अध्यात्म की ओर उन्मुख था। लेकिन वे जानते थे कि साधुओं को हेय दृष्टि से देखा जाता है। फिर संकल्प लिया कि उच्च शिक्षा में ऊंचे मानक स्थापित करके ही संन्यास लूंगा। चंडीगढ़ से अर्थशास्त्र और अंग्रेजी में एमए करने के बाद उनका चयन ब्रिटेन के कैंब्रिज विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर पद के लिये हुआ। फिर ऑक्सफोर्ड वि.वि. ने पीएचडी के लिये आमंत्रित किया। लेकिन कालांतर में सब कुछ छोड़कर संन्यास लेने भारत लौट आए। उत्तराखंड में हरिद्वार स्थित पायलट बाबा के आश्रम में आध्यात्मिक साधना में संलग्न स्वामी मुक्तानंद ने दैनिक ट्रिब्यून को अपनी शिक्षा व आध्यात्मिक यात्रा के बारे में विस्तार से बताया।
वो कौन सा क्षण था जब आपने अध्यात्म की राह चुनी?
बचपन से सपना था कि साधु बनूंगा। मैं नौ वर्ष की आयु में घर के पास रहने वाले दो साधुओं के संपर्क में आया। उनके सान्निध्य में अनूठी शांति का अनुभव हुआ। मेरे मन में आया कैसे वे बिना साधनों के भी आराम से रहते हैं। नौ साल की उम्र में मन बना लिया था कि संन्यास की राह लेनी है।
आप की प्रारंभिक शिक्षा जालंधर के कॉन्वेंट स्कूल में होती है। फिर आप चंडीगढ़ आए। आपने दो विषयों में एमए किया। आपने कैंब्रिज वि.वि. में अध्यापन किया। फिर आप ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पीएचडी करते हैं। फिर शिक्षा और संन्यास की राह, दोनों चीजें कैसे साथ-साथ चल रही थीं?
एक्चुअली क्या है कि जब मैं बीए में था तो मन में इस दिशा में विचार बना। तब बुद्धि डेवेलप हो रही थी। उस समय मैंने महसूस किया था कि पंजाब में संतों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता। लोग उन्हें भिखारी समझते थे। ऐसे में सोचा कि क्या करूं लोग इस नजर से न देखें। किंगली फेमिली से संबंध रखता हूं। अगर साधु बना तो समझा जाएगा कि मैं जिम्मेदारी से भागा हूं। तब मन बनाया कि शिक्षा में नयी ऊंचाइयां हासिल करूंगा। शिक्षा में मेरी गंभीर रुचि थी और अध्यात्म से प्रेम। फिर सोचा कि शिक्षा में कुछ ऐसे मानक स्थापित करूंगा जो मेरी फैमिली में अब तक हासिल न किए गए हों।
पहले अर्थशास्त्र में एमए किया। फिर अंग्रेजी में एमए किया। सौभाग्य से उन दिनों एक विज्ञापन निकला कि ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों के लिये भारत से अंग्रेजी के शिक्षक चाहिए। मैंने आवेदन किया तो मेरा चयन हो गया। मैं पहले दस लोगों की मैरिट में था। इसके लिये आइलेट परीक्षा पास करनी भी जरूरी थी। मैंने आइलेट परीक्षा 8.5 बैंड से पास की। मुझे विकल्प दिया कि आप कहीं भी ज्वाइन कर सकते हैं। मैं कैंब्रिज में सहायक प्रोफेसर पद के लिए चयनित हुआ। फिर ऑक्सफोर्ड से बुलावा मिला। मैंने मना कर दिया। उनसे कहा कि मैंने कैंब्रिज ज्वाइन कर लिया है। तो फिर ऑक्सफोर्ड ने मुझे पीएचडी करने का प्रस्ताव दिया। मैंने इंगलिश फोनिटिक विषय में पीएचडी की।
अध्यात्म की ओर जाने की कोई घटना या कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि थी?
सही मायनों में ये प्रारब्ध ही था। लगता था आध्यात्मिक दुनिया में बड़ी शांति है। हालांकि, छोटी उम्र में समझ तो नहीं होती, मगर नौ-दस साल में निर्णय कर लिया कि संन्यासी बनूंगा। एक और निर्णय कि वैवाहिक जीवन में नहीं पड़ूंगा।
आप वर्ष 1976 में चंडीगढ़ आए थे। कैसी यादें हैं चंडीगढ़ की?
वह समय तो बहुत पुराना था। आज का चंडीगढ़ तो बहुत बदल गया। मैंने बहुत दिन से चंडीगढ़ देखा भी नहीं। मैंने 1976 में पंजाब विश्वविद्यालय में एमए अर्थशास्त्र ज्वाइन किया था। पहला एमए 1978 में पूरा किया। फिर सोचा कि अर्थशास्त्र में एमए करके क्या होगा, सिर्फ घिसी-पिटी लाइफ रहेगी। कभी किसी कालेज में प्रोफेसर लग जाऊंगा। टीचिंग का ऑफर आया तो कुछ दिन पढ़ाया भी। मन नहीं बना। संतुष्टि नहीं हुई। दूसरा एमए अंग्रेजी में किया। लकीली पोस्ट निकल आई थी। फिर कैंब्रिज के लिये मौका मिला। मुझे लगा मैं अपनी मंजिल के करीब हूं।
आप भारत जैसे आध्यात्मिक देश से निकलकर ब्रिटेन जैसे चरम उपभोक्तावादी देश पहुंचते हैं। तामसिक परिवेश व तामसिक खाना-पीना। कैसे सामंजस्य बनाया था?
मैंने जब कैंब्रिज ज्वाइन किया था तब हालात दूसरे थे। वर्ष 1981 के लास्ट में ब्रिटेन गया। उस समय तो पंजाब व हरियाणा में विदेश जाने का इतना क्रेज न था। बहुत कम लोग जाते थे परदेस। मेरी योजना थी कि ऐसी स्थिति में सांसारिक जीवन से निकलना है। निस्संदेह, कल्चर तो भिन्न था। लेकिन मैंने यूरोपीय जीवन भी जिया। इंज्वाय भी किया। लेकिन अपनी कल्चर को नहीं छोड़ा। अपना मूल नहीं भूला। भारत भी आना-जाना लगा रहा है। मेरा ध्यान अध्यात्म की ओर पहले से था। इंग्लैंड में रहकर भी मैं अपने रीति-रिवाज हिंदू तौर-तरीके से निभाता रहा। अपनी जड़ों से जुड़ा रहा।
आप 1992 में हरिद्वार आते हैं। कैसे जुड़ना हुआ पायलट बाबा से?
दरअसल, मैंने पहले संन्यास पंजाब में जूना अखाड़े के एक संत से लिया। संन्यास की दीक्षा के वक्त उन्होंने कह दिया था कि उनकी आध्यात्मिक व शारीरिक यात्रा पूरी होने वाली है। मैं अपना शरीर छोड़ दूंगा। आप की नयी यात्रा शुरू हुई है। आप को अब नया देहधारी गुरु चाहिए। आप दूसरा गुरु ढूंढ़ लो। मेरे मन में विचार आया कि चलो आध्यात्मिक नगरी हरिद्वार व ऋषिकेश की ओर चलते हैं। पहले तीन-चार साल तो भटकता रहा। फिर 1998 में पायलट बाबा के संपर्क में आया। उनसे तीन-चार साल मिलना होता रहा। फिर 2004 में पायलट बाबा का शिष्य बना।
आप पिछले दिनों महाकुंभ में खूब चर्चा में रहे। आप बीच में ही लौट आए? कुंभ भारत की प्राचीन आध्यात्मिक परंपरा है। आप इसे किस तरह देखते हैं?
कुंभ में मैं गया था। शुरू होने से पहले ही गया था। वहां पायलट बाबा कैंप की व्यवस्था को मुझे देखना था। मैं पांच जनवरी को प्रयागराज पहुंच गया। इस बार व्यवस्था अच्छी थी। मगर भीड़ अप्रत्याशित थी। थोड़ा व्यवधान स्वाभाविक था, वो हुआ भी। कुंभ से जल्दी वापस आना मेरा व्यक्तिगत कारण था। मुझे डस्ट से एलर्जी है। प्रयागराज में धूल-मिट्टी इतनी थी कि मुझे सांस की समस्या हो गई। डाक्टरों ने तुरंत प्रयागराज छोड़ देने को कहा। मैं डाक्टर की सलाह पर हरिद्वार वापस आ गया।
महाकुंभ में तमाम विदेशी मेहमानों से आप घिरे रहे। धाराप्रवाह अंग्रेजी, रशियन, स्पेनिश आदि भाषाओं में संवाद करते रहे? आप दुनिया के किन-किन देशों में गए?
देखिए जहां तक देशों में जाना व घूमना है तो दुनिया में ए ग्रेड के जितने भी देश हैं, वे 100 प्रतिशत देखे हैं। चाहे अमेरिका, यूके, आस्ट्रेलिया या कनाडा आदि हों। जहां तक बी ग्रेड देशों की बात है तो पचास फीसदी देखे हैं। विकासशील देशों में अफ्रीका उपमहाद्वीप पूरा घूमा है। आस्ट्रेलिया महाद्वीप के छोटे-छोटे देश हैं, जिनके नाम भी लोगों ने नहीं सुने हैं। मसलन फिजी, पपुआ न्यूगिनी आदि। बहुत अच्छे दिन बिताए वहां। आज भी संपर्क में हूं और वहां से आए लोग मिलते भी रहते हैं। जहां तक भाषा की बात है तो हिंदी व पंजाबी स्वाभाविक रूप से हमारी मातृभाषा हैं। अंग्रेजी पर शुरू से पकड़ रही है। कॉन्वेंट से पढ़ाई की थी। ईश्वर की कृपा से अच्छी आती है। उसके बाद रशियन भी सीखी। थोड़ी-थोड़ी कुछ अन्य यूरोपीय भाषाएं सीखी यूरोप में रहते हुए। अब समय के साथ अभ्यास में नहीं हैं। करीब 34-35 के बाद, अब तो शायद बोल नहीं पाऊं। काम चलाने लायक बोलता हूं।
आपने 1978 में पहले एम.ए. चंडीगढ़ स्थित संस्थान से किया। उसी साल दैनिक ट्रिब्यून का प्रकाशन शुरू हुआ था। किस तरह की यादें हैं चंडीगढ़ की?
‘द ट्रिब्यून’ मेरा फेवरिट न्यूजपेपर रहा है। मैं इसका डेली रीडर था। अब तो घर छोड़े काफी समय हो गया है। लेकिन आज भी ‘द ट्रिब्यून’ की बहुत सी कटिंग रखी होंगी। आज भी विद डेट और कमेंट फाइल में रखी होंगी, इस टिप्पणी के साथ कि इन्हें फाइल में क्यों रखा है। ट्रिब्यून से मेरा गहरा रिश्ता रहा है, मानसिक भी और आध्यात्मिक भी।
इस मुकाम पर आकर कभी मन में विचार आता है कि काश गृहस्थ होते, आराम की जिंदगी जीता। मलाल होता है कि कैंब्रिज क्यों छोड़ा?
देखिए अपनी लाइफ के अलग-अलग फेज होते हैं। फैमिली लाइफ के बारे में तो मैंने कभी सोचा नहीं था। बचपन का निर्णय था कि शादी नहीं करनी है। मुझे इस बात का कोई मलाल नहीं है।
कैंब्रिज ज्वाइन करने का अनुभव कैसा रहा?
उन दिनों मेरी उम्र कुछ ज्यादा नहीं थी। मुझे तीस दिन के लिये हिडन रखा गया था। मैं कैंब्रिज सहायक प्रोफसर के रूप में ज्वाइन कर रहा हूं किसी को नहीं बताया गया। वाइस चांसलर ने कहा था कि तुम कैंब्रिज परिसर घूमो और देखो। उन दिनों अंग्रेजी के सीनियर लेक्चरर प्रो. टोनी ग्रे थे। अंग्रेजी के मॉडर्न कवि थे। मेरी ज्वाइनिंग के दौरान उनसे मेरा अच्छा संबंध रहा। उन्हें भी पता था कि उनकी रिटायरमेंट और मेरी ज्वाइनिंग एक ही दिन थी। उनसे काफी प्रभावित रहा। आज भी उनकी कविताएं स्कूल-कालेजों में पढ़ते हैं।
आप जालंधर में कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़े, चंडीगढ़ में दो एम.ए. किया। फिर कैंब्रिज में पढ़ाया और ऑक्सफोर्ड से पीएचडी की। हमारी शिक्षा पद्धति में क्या कमी है कि भारत में विदेशों में जाकर पढ़ने की होड़ लगी है? क्या सुधार की जरूरत है?
निस्संदेह, उन दिनों हम बहुत पीछे थे अन्य देशों से। लेकिन अब काफी डेवेलपमेंट भी हो रही है। जब मैं कैंब्रिज गया तो उनका टीचिंग पैटर्न देखा। यदि वहां एक क्लास रूम में कोई भी छात्र नहीं है तो भी टीचर का लेक्चर होता था। छात्र का होना जरूरी नहीं था। स्टूडेंट तीन जगह पढ़ते थे, लाइब्रेरी में जहां टीवी आदि लगे होते थे या फिर अपने कमरे में बैठकर। लेकिन वैल ड्रेस होकर बैठेंगे जैसे क्लास में बैठते हैं। या फिर पार्क में ओपन क्लासरूम बनाया जाता था। क्लास रूम की गैदरिंग कम होती थी। लेकिन मेरी पढ़ाई का भी अलग तरीका था। जिस दिन पढ़ाना शुरू किया तो सिर्फ पांच ही छात्र थे। तीन माह में 40 छात्र हो गए। मेरे को वाइस चासंलर ने बुलाकर पूछा था कि आपकी क्लास में फिजिकल प्रजेन्स इतनी ज्यादा कैसे होती है? मैंने उन्हें बताया कि आप यूरोपीयन तकनीक से पढ़ाते हैं और मैं भारतीय व ब्रिटिश मिक्स तरीके से पढ़ाता हूं। भारत में कक्षा में उपस्थिति जरूरी होती है। उस समय फर्क था। अब स्थितियां बदल रही हैं। भारत में भी आज छात्र कालेज जाएं या न जाएं। आज ऑनलाइन क्लासेज भी होती हैं। हम भी उनकी तरह डेवेलप कर रहे हैं। आज उनके समकक्ष हैं।
आम आदमी के लिये अध्यात्म के क्या मायने हैं?
आम आदमी के लिये अध्यात्म जो है और संन्यासी के लिये आध्यात्म है, दोनों एक ही हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि गृहस्थ का अध्यात्म संन्यासी से थोड़ा अलग है। मेरी सोच है कि गृहस्थ हम से ज्यादा आध्यात्मिक होता है। वे हमसे ज्यादा धर्म-कर्म करते हैं। हमें सिर्फ ध्यान-साधना करनी होती है। गृहस्थ को परिवार को भी देखना होता है और धर्म भी करना होता है। इस लिहाज से दोनों में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। मेरा तो यही कहना कि गृहस्थ अपने धर्म-कर्म पर ध्यान दे। मन से सोचकर कभी किसी का अनर्थ न करे। यदि अनजाने में कुछ गलत हो भी जाए तो माफी मांग लें। झुकने में कोई छोटा नहीं होता।
हमारा समाज संक्रमण काल से गुजर रहा है। कृत्रिम जीवन है, परिवार टूट रहे हैं, जीवन की सहजता -सरलता नदारद है। दरकते सामाजिक मूल्यों को कैसे बचाया जाएगा?
पहले हमारा जो फैमिली सिस्टम था आज भी दुनिया में उसकी सराहना की जाती है। विकसित देशों से तुलना करें तो वो हमारा पुराना फैमिली सिस्टम एडॉप्ट कर रहे हैं। हम उस सिस्टम को छोड़ रहे हैं। जैसे ज्वाइंट फैमिली थी। यूरोप में बड़ी संख्या में लोग ज्वाइंट फैमिली की तरफ जा रहे हैं। पहले अलग रहते थे अब नहीं। अब हम अकेले रहना शुरू कर रहे हैं। अपने बुजुर्गों की देखभाल व इज्जत नहीं करते हैं। जैसे ही हमारी शादियां होती हैं बिखराव शुरू हो जाता है। सास-ससुर के साथ नहीं रह सकते। हर कोई अपनी स्वतंत्रता चाहता है। स्वतंत्रता व विकास एक -दूसरे पर निर्भर हैं। हमारी स्वतंत्रता हमारे विकास में बाधक न हो।
योग भारत की प्राचीन समृद्ध परंपरा रही है। पूरी दुनिया में योग का अरबों का व्यापार होता है। आपके जीवन में योग के क्या मायने हैं?
योग साधना को हम दो तरह से देखते हैं। एक तो अध्यात्म से जोड़ कर देखते हैं। एक वे ऑफ एक्सरसाइज है। निस्संदेह, शारीरिक विकास होगा तो हमारा दिमाग भी ठीक से काम करेगा। दोनों ही ठीक हैं। पहले हम अपने शरीर को ठीक करें। उसके बाद योगिक क्रियाओं से अध्यात्म की ओर बढ़ सकते हैं।
देश के तमाम महानगर प्रदूषण की चपेट में हैं। प्रदूषण में प्राणायाम करना कितना संभव है?
निस्संदेह, प्रदूषण में प्राणायाम करना उचित नहीं है। लेकिन समाधान हैं। आज जैसे देश में ग्रीन बेल्ट बनायी जा रही हैं। ऐसे प्रदूषण मुक्त पार्क व एरिया बनने चाहिए जहां प्राणायाम कर सकें। लेकिन यदि हम सड़क पर खड़े होकर प्राणायाम करेंगे तो उसका कोई फायदा नहीं होगा।
प्रदूषित वातावरण को शुद्ध करने के लिये घी का दीपक उपयोगी होता है। हमें जड़ी-बूटियों आदि सामग्री से हवन करना चाहिए। वातावरण की शुद्धि होती है। बहुत सारी ज़ड़ी-बूटियां प्रदूषण को दूर करती हैं। आक्सीजन भी बढ़ाती हैं।
हमारे खानपान व प्राकृतिक चिकित्सा में गाय के दूध व उसके अवयवों का उपयोग होता है। लेकिन जब वातावरण में प्रदूषण है और गाय चारागाह नहीं जाती है तो क्या दूध की गुणवत्ता प्रभावित होती है?
निस्संदेह, दूध की गुणवत्ता कई कारणों से प्रभावित है। सदियों से पंचगव्य का प्रयोग होता रहा है। नेचुरोपैथी व आयुर्वेद में उपयोग होता रहा है। आज भी जारी है। लेकिन प्रदूषण इतना अधिक भी नहीं है कि उसका उपयोग न हो सके। आप पहाड़ों पर चले जाएं, छोटी गाय यानी गीर गाय का शुद्ध दूध-घी मिलता है। भले ही वह घी चार-साढ़े चार हजार रुपये किलो मिलता है। लेकिन पूरी तरह शुद्ध है। उसको पाने के लिये छह महीने-साल पहले बुकिंग होती है तब मिल पाता है।
लेकिन गाय के प्राकृतिक भोजन का अभाव तो दूध की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। जैसे उत्तराखंड में कस्तूरी मृग ब्रह्मकमल खाता है तो तभी तो कस्तूरी मिलती है?
निस्संदेह, बिलकुल प्रभावित है। पहाड़ों में गाय-भैंस का चारा शुद्ध है। वे जंगली हरी पत्तियां खाती हैं। वहां के दूध व दही का टेस्ट, प्लेन से डिफरेंट होता है। दूध से खुशबू आएगी जैसे जड़ी-बूटी से निर्मित हुआ हो। वो खानपान का ही असर है। वहां आज भी शुद्धता है।
सोशल मीडिया पर मीम्स की बहार होती है कि पत्नी पीड़ित संन्यासी बन रहे हैं? ऐसे संन्यासियों का अध्यात्म सधेगा?
मेरी समझ में पत्नी पीड़ितों के लिये संन्यास में कोई जगह नहीं है। जब तक अपने अंदर मन की शांति नहीं है तो संन्यास लेने में कोई फायदा नहीं है। संन्यास लेने के बाद भी यदि वही विचार उठेंगे, पत्नी व बच्चों के झगड़ों में उलझे रहेंगे तो उसका कोई फायदा नहीं है। इनसे निबटकर ही संन्यास ले सकते हैं। अध्यात्म की उच्चतम स्थिति तक भी जा सकते हैं।