स्वयं की खोज
एक गृहस्थ ब्राह्मण थे, जो शिष्यों से पूजा-पाठ संपन्न कराते और जीवन की गाड़ी चलाते थे। एक बार किसी ने उनसे पूछा, ‘क्या आपने कभी स्वयं की तलाश की है?’ इस प्रश्न ने उन्हें विचलित कर दिया। उन्होंने मन ही मन खुद को तलाशने का निर्णय कर लिया। उसी दिन से वे खुद को तलाशने की साधना में जुट गए। इस बीच उनकी पत्नी ने घर का राशन-पानी लाने की बात कही। इस पर वे क्रोध में आकर कहने लगे, ‘मैं यहां खुद को तलाशने की साधना में जुटा हुआ हूं, और तुम यह फालतू के काम बता रही हो।’ पत्नी का माथा ठनका। वह बोली, ‘पतिदेव, स्वयं को खोजा नहीं जा सकता। कर्म और कर्तव्य से विमुख होकर तपस्या करने से स्वयं का ज्ञान नहीं मिलता, बल्कि यह कर्तव्य पूरे करने से हासिल होता है। यह फूलों से निकलने वाली सुगंध की तरह है, जो आसपास के वातावरण को खुशनुमा कर देती है।’ ब्राह्मण को पत्नी की इस बात पर गहराई से विचार करने का अवसर मिला। ब्राह्मण ने विचार किया कि पत्नी ने स्वयं को खोज लिया है। वह अधिक स्पष्ट है। अब साफ हो गया था कि जीवन में संतुलन न बिठा पाने के कारण वे डगमगा गए थे। जब हममें अपने कर्तव्यों को पहचानने का विवेक हो, तभी हम स्वयं को भली-भांति समझ सकेंगे।
प्रस्तुति : मुग्धा पांडे