सोने की अशरफी और सेवा
एक बार एक सेठ अपने बच्चे को दिखाने के लिए एक नामी वैद्य के पास पहुंचा। बच्चे को देखने के बाद वैद्य ने औषधि की पहली खुराक वहीं पर पीने को दी। कुछ ही मिनटों में लाभ दिखाई देने लगा। सेठ ने वैद्य से पूछा, ‘क्या फीस देनी होगी?’ वैद्य ने कहा, ‘आप सोने की एक अशर्फी दे दीजिए।’ यह बात पास बैठा दूसरा मरीज भी सुन रहा था। उसने सोचा, ‘इतनी कीमती अशर्फी मैं कैसे दे पाऊं?’ और चुपचाप उठकर जाने लगा। वैद्य ने उसे रुकते हुए कहा, ‘बेफिक्र रहिए, आपका इलाज तो मुफ्त में होगा। जब आप ठीक हो जाएं, तो आश्रम आकर दूसरों की सेवा कर देना।’ यह सुनकर सेठ क्रोधित हो गया और बोला, ‘वैद्यजी, आप तो बहुत लालची इंसान हैं! मेरा पैसा देखकर आपको लालच आ गया और मुझसे अशर्फी मांग बैठे, जबकि इसका इलाज आपने मुफ्त में कर दिया!’ वैद्य मुस्कुराते हुए बोले, ‘नहीं सेठजी, ऐसी बात नहीं है। दरअसल, मेरे आश्रम को चलाने के लिए दो चीजों की आवश्यकता होती है – धन और सेवा। जिस व्यक्ति के पास जो चीज होती है, मैं उससे वही मांगता हूं। आपके पास धन है, इसलिए मैंने आपसे धन लिया, और इस व्यक्ति के पास धन नहीं है, इसलिए ठीक होकर यह मेरे आश्रम में अपनी सेवा प्रदान करेगा।’
प्रस्तुति : मुग्धा पांडे