सूरज लगता माफ़िया
अशोक ‘अंजुम’
बढ़ी तपिश यूं हो रहे, सभी जीव बेचैन।
ऐसे में हड़ताल पर, घर का टेबिल-फैन॥
घर के भीतर आग है, घर के बाहर आग।
है ‘अंजुम’ चारों तरफ, यही आग का राग॥
गर्मी तानाशाह है, लू का गुण्डाराज।
अब जाने कब गिर पड़े, अपने सिर पर गाज॥
पत्ता तक हिलता नहीं, पेड़ खड़े हैं मौन।
समाधिस्थ हैं संत जी, इन्हें जगाये कौन॥
घुटी-घुटी-सी कोठरी, नहीं हवा का नाम।
नई बहू का ‘जेठ’ ने, जीना किया हराम॥
इक कमरे में है भरा, घर-भर का सामान।
उफ् गर्मी में आ गये, कुछ मूंजी मेहमान॥
बैरी है किस जन्म की, ये गर्मी विकराल।
लो फिर लेकर आ गई, सूखा और अकाल॥
थकी-थकी-सी बावड़ी, सूखे-सूखे घाट।
राम बुझाओ प्यास को, जोह रहे हैं बाट॥
ताल-नदी सबको लगा, अबके सूखा-रोग।
दवा दीजिए वैद्यजी, परेशान हैं लोग॥
ऊपर मिट्टी के घड़े, नीचे तपती रेत।
रामरती को ले चला, दूर प्यास का प्रेत॥
पानी-पानी हो रही, चौपायों की चीख।
चारे का संकट मिटे, चारा रहा न दीख॥
खड़ी जेठ के आंगना, नदिया मांगे नीर।
दुःशासन-सी है तपन, खींच रही है चीर॥
सूरज लगता माफ़िया, हफ़्ता रहा वसूल।
नदिया कांपे ओढ़कर, तन पर तपती धूल॥
तपते सूरज ने किया, यूं सबको बदहाल।
नदी रखे व्रत निर्जला, ताल हुआ कंगाल॥
होठों पर हैं पपड़ियां, फंसी गले में जान।
अन्तस् में पसरा हुआ, प्यासा राजस्थान॥